– सारांश कनौजिया
भारत में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मान्यता के अनुसार पूजा पद्धति के चयन का अधिकार है। इन्हीं मान्यताओं के अनुसार यह तय किया जाता है कि धार्मिक स्थलों पर कौन और कैसे जायेगा? उदाहरण के लिये मस्जिदों व गुरुद्वारों में प्रवेश के लिये सिर पर कोई कपड़ा बंधा होना चाहिए। मस्जिदों में प्रवेश से पहले इस्लाम को मानने वाले एक विशेष प्रकार की टोपी को पहनते हैं, जिसका धार्मिक महत्व होता है। यदि कोई गैर मुस्लिम उनके धार्मिक कार्यक्रमों में आता है, तो उससे भी यह अपेक्षा रखी जाती है कि वो उस धार्मिक टोपी को पहनकर इस्लाम में अपनी आस्था व्यक्त करे। ऐसा न करने वाले को इस्लाम विरोधी माना जाता है। यह उनकी मान्यता है और जब तक वह भारतीय संविधान के दायरे में है, किसी को आपत्ति नहीं है। किंतु ऐसे ही विभिन्न नियम मस्जिदों में प्रवेश के लिये बनाये गये हैं।
शिया-सुन्नी एक दूसरे की मजिस्जद में नहीं जा सकते। अहमदिया लोग जो स्वयं को मुस्लिम मानते हैं, उन्हें अपनी धार्मिक मान्यताओं को मानने की स्वतंत्रता नहीं है। पाकिस्तान में तो अहमदिया मुसलमानों की मस्जिदों को तोड़ने पर जश्न मनाया जाता है। वहां का मुसलमान अहमदिया मुसलमानों से व्यापार करना तक अल्लाह का अपमान मानता है, तो फिर मस्जिद में उनका प्रवेश स्वीकार कहां से किया जा सकता है। जब ये तीनों ही इस्लाम की अलग-अलग विचारधाराएं या कह सकते हैं कि अलग-अलग जातियां एक दूसरे के धार्मिक स्थलों व आयोजनों में नहीं जा सकती है, फिर हिन्दू मंदिरों को एक-दूसरे के लिये खोलने की वकालत क्यों की जाती रही है? यहाँ मस्जिदों में एक साथ महिलाओं के नमाज पढ़ने का मामला भी ध्यान देने वाली बात है।
ईसाई सम्प्रदाय को एक उदार विचारधारा के रुप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। किंतु क्या यही वास्तविकता है? ईसाईयों में कैथोलिक, प्राच्य, प्रोटैस्टैंट व ऐंग्लिकन प्रमुख रुप से होते हैं। एक समय था जब कैथोलिक व प्रोटैस्टैंट ईसाईयों में खूनी संघर्ष हुआ करता था क्योंकि ये दोनों ही ईसाई जातियां एक दूसरे की धार्मिक विचारधारा से सहमत नहीं थीं। क्या कैथोलिक और प्रोटैस्टैंट ईसाई आज भी एक दूसरे के चर्च में जा सकते हैं। उत्तर है नहीं। इसके अलावा भारत में एक बड़ा समाज ऐसे हिन्दुओं का है, जिन्हें ईसाई बना दिया गया। जिनके पूर्वज अंग्रेजों के समय में ईसाई बन गये, उनकी बात अलग है, लेकिन जो स्वतंत्रता के बाद ईसाई बने हैं, उन्हें वो सम्मान नहीं मिलता, जो अमेरिका, ब्रिटेन व यूरोप के ईसाईयों को मिलता है। सिर्फ मिशनरी ही इन लोगों को जोड़े रखने के लिये सबके सामने एक होने की बात अवश्य करते हुये दिखायी दे जायेंगे। जब ईसाई ही एक-दूसरे के चर्च में नहीं जा सकते, तो हिन्दुओं से ऐसी अपेक्षा क्यों की जाती है?
यह प्रश्न आज इस लिये ध्यान में आ रहे हैं क्योंकि कुछ दिनों पूर्व एक मुस्लिम युवक के हिन्दू मंदिर में पानी पीने पर विवाद हो गया। इसका विरोध करने वाले लोगों को फांसीवादी, देश की एकता को तोड़ने वाला और ना जाने क्या-क्या कहा गया? हम किसी हिंसा के पक्षधर नहीं हैं। यदि किसी मुस्लिम ने ऐसा किया है, तो भी उसके साथ हिंसा नहीं होनी चाहिए। यह भारतीय संविधान के विरुद्ध है। किंतु क्या हम जनेऊ पहनकर, मांधे पर तिलक लगाकर भगवान का नाम लेते हुये किसी मस्जिद या गिरिजाघर में आवश्यकता पड़ने पर पानी पी सकते हैं? यह प्रश्न भी पूंछा जाना चाहिए। मुसलमान अपनी हर मुसीबत को दूर करने के लिये अल्लाह को याद करता है, इसी प्रकार ईसाई ईसामसीह को। अपनी समस्या दूर होने के बाद दोनों अपने-अपने भगवान को धन्यवाद भी देते हैं। इसके कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन क्या हिन्दू मस्जिद या गिरिजाघर में खड़े होकर अपने देवी आदि शक्ति, काली, भगवान शिव, विष्णु या अन्य किसी देवी-देवता को धन्यवाद दे सकता है। उत्तर होगा नहीं।
उदारता का दिखावा करने वाले इसका उत्तर हां में भी दे सकते हैं। इसलिये मैं एक उदाहरण से वास्तविकता को स्पष्ट करना चाहता हूं। कई महीनों पहले कुछ मुस्लिम युवकों ने मंदिर में दर्शन किये और उसके बाद मंदिर परिसर में ही नमाज पढ़ी। उस समय सेक्युलर जमात ने कहा था कि इन मुसलमानों का उद्देश्य हिन्दू भावनाओं को आहत करना नहीं था। इस घटना से आपसी सदभाव बढ़ना चाहिए। जरा विचार करें, मंदिर परिसर में नमाज पढ़ने से आपसी सदभाव कैसे बढ़ सकता है? इसके कुछ दिनों बाद एक मस्जिद में हिन्दू ने मौलवी से अनुमति लेकर हिन्दुओं का धार्मिक पाठ किया। परिणाम मौलवी को हटा दिया गया और हिन्दू के खिलाफ एफआईआर हो गयी। अब सेक्युलर जमात गायब थी। किसी ने भी मौलवी को हटाने और हिन्दू पर एफआईआर का विरोध नहीं किया। हमारा विरोध इस दो प्रकार की विचारधारा का है। हिन्दू धर्म में पूजा का अधिकार सभी को है। मंदिरों के कुछ नियम हैं। इनका पालन सभी को अनिवार्य रुप से करना चाहिए। मंदिर परिसर में सिर्फ उन्हीं लोगों को अनुमति होनी चाहिए, जो हिन्दू धर्म में आस्था रखते हैं। हिन्दू धार्मिक स्थलों को पर्यटन का केंद्र मानकर किसी को भी, कैसे भी आने की अनुमति देना गलत होगा।
यद्यपि मैं यह भी मानता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति जिसे हिन्दू धर्म में आस्था है, उसे अपने आराध्य की पूजा का अधिकार होना चाहिए। यदि किसी मंदिर में मान्यता के अनुसार किसी व्यक्ति अथवा समुदाय का प्रवेश वर्जित है, तो उसे अन्य स्थान पर पूजा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार कुछ देवी-देवताओं की पूजा पुरुषों अथवा स्त्रियों के लिये निषेध की गयी है। इसके पीछे भी मान्यताएं हैं। इनके सम्मान का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। हिन्दू धर्म में जातियां कर्म के अनुसार तय होती थी, बाद में जन्म के अनुसार होने लगी, इसलिये यदि कोई व्यक्ति अब वह कार्य नहीं करता, जिसके लिये उसकी जाति पहचानी जाती थी, तो उसे भी हिन्दू धार्मिक स्थलों में प्रवेश मिलना चाहिए।
लेखक मातृभूमि समाचार के संपादक हैं।