– सारांश कनौजिया
केरल में इस समय वाम दलों के नेतृत्व वाले गठबंधन एलडीएफ की सरकार है। पिछले इतिहास के अनुसार इस बार केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ की सरकार बनना चाहिए थी। किंतु अधिकांश सर्वे यह दिखा रहे हैं कि प्रदेश में एलडीएफ की फिर वापसी होगी। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या यूडीएफ के सभी वोट एलडीएफ को मिल रहे हैं? इसके लिये हमें केरल विधानसभा चुनाव 2016 पर नजर डालनी होगी। केरल में इससे पहले यूडीएफ की सरकार थी। 2016 में एलडीएफ ने प्रचलन के अनुसार सत्ता में वापसी की। इस चुनाव में एलडीएफ को 91 व यूडीएफ को 47 सीटे मिलीं। एशियानेट के लिये किये गए सी-वोटर सर्वे में इस बार एलडीएफ को 82 से 91 सीटे और यूडीएफ को 46 से 54 सीटे मिलते हुये दिखाया जा रहा है। लगभग यही स्थिति अन्य सर्वे में भी दिख रहे है। ऐसे में बाहर से देखने पर लग सकता है कि सबकुछ पहले जैसा ही तो है, फिर इस बार नया क्या है?
2016 के चुनाव में भाजपा को मात्र 1 सीट से संतोष करना पड़ा था। इस बार एनडीए गठबंधन को एशियानेट सर्वे में 7 सीटों तक मिलने की संभावना व्यक्त की जा रही है। फिर 6 सीटों का नुकसान किसे हो रहा है? यह प्रश्न आपके मन में आ रहा होगा। इसका उत्तर है एलडीएफ को। केरल विधानसभा में 140 सीटे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जो 91 सीटे जीती थीं, उसमें से 6 निर्दलीय विधायक थे, जिनको वाम दलों का समर्थन हासिल था, लेकिन उनके पास किसी वाम दल का सिंबल नहीं था। इस बार सत्ता विरोधी लहर है, लेकिन यूडीएफ को इसका लाभ नहीं मिलेगा। यह लाभ कुछ मात्रा में भाजपा के पास चला जायेगा।
केरल की जनता अभी तक एलडीएफ और यूडीएफ में से किसी एक को ही सत्ता देती रही है। यहां एनडीए का कोई जनाधार नहीं है। इस बार भी केरल के लोग बदलाव चाहते हैं, लेकिन उन्हें यूडीएफ पर भी विश्वास नहीं है। जब वो दोनों गठबंधनों की तुलना करते हैं, तो एलडीएफ को ही बेहतर मानते हैं। केरल कांग्रेस के बड़े नेता पी.सी. चाको पार्टी की प्रदेश इकाई में समंवय न होने की बात कहकर त्यागपत्र दे चुके हैं। यही हाल कई अन्य प्रदेश स्तर के कांग्रेस नेताओं का भी है। वो या तो कांग्रेस का साथ छोड़ चुके हैं या फिर काग्रेस का हाथ पकड़कर चलने की जगह घर पर बैठे हैं। इसी कारण एलडीएफ एक बार फिर वापसी कर सकती है, लेकिन वहीं दूसरी ओर भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन भी कई जगह पर वाम दलों के लिये चुनौती बनेगा।
मेट्रो मैन ई. श्रीधरन अघोषित रुप से एनडीए के मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। उनकी साफ छवि और देश के लिये योगदान से सभी परिचित हैं। इसका लाभ भाजपा को मिलेगा। इसके अलावा पार्टी कई क्षेत्रीय दलों व लोगों से संपर्क कर उन्हें अपने साथ जोड़ने में भी सफल हुई है, श्रीधरन उन्हीं में से एक हैं, इसका लाभ भी उसे मिलेगा। एशियानेट का सर्वे भले ही भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को मात्र 9 सीटे दे रहा हो, लेकिन ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि 140 में से कई सीटे ऐसी होंगी, जहां एनडीए प्रत्याशी दूसरे या तीसरे स्थान पर होगा। जो भाजपा के लिये भविष्य का अच्छा संकेत है।
एलडीएफ केरल में दोबारा सत्ता हासिल कर लेगी, जो प्रदेश के इतिहास में अब तक नहीं हुआ। इसके बाद भी मैं भाजपा और एनडीए गठबंधन की बात कर रहा हूं। क्या यह सही है? इसको समझने के लिये ऐसे प्रदेशों पर नजर डालनी होगी, जहां कभी वाम दल थे। इनमें पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा प्रमुख रुप से गिने जा सकते हैं। त्रिपुरा में आज भाजपा की सत्ता है। पश्चिम बंगाल में वाम दलों के बाद ममता दीदी आयी और अब बहुत संभावना है कि भाजपा सत्ता में आ सकती है या फिर एनडीएक गठबंधन थोड़ा ही पीछे रहेगा। इन दोनों ही राज्यों में कभी भाजपा का अस्तित्व नहीं था। त्रिपुरा में भाजपा अचानक सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गयी क्योंकि वहां वाम दलों का विकल्प और कोई नहीं था। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी विकल्प थीं, इसलिये भाजपा को वर्तमान स्थिति तक आने में समय लगा।
पश्चिम बंगाल जैसी ही स्थिति केरल की है। केरल में प्रदेशवासियों को अभी लगता है कि एलडीएफ को यूडीएफ ही चुनौती दे सकता है, किंतु यदि वोट प्रतिशत के अनुसार भाजपा प्रदेश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनने में भी सफल हो जाती है, तो भविष्य में उसको सत्ता मिलने की संभावना बढ़ जायेगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में यूडीएफ को 18 सीटे इसलिये मिल गयी क्याोंकि केरल में बहुत से लोगों को लगता था कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन सकते हैं। अब उनका यह भ्रम दूर हो चुका है। केरल की जनता अब राहुल गांधी और कांग्रेस की वर्तमान कार्यशैली को देख चुकी है, इसलिये यदि उसे सत्ता परिवर्तन चाहिए है, तो भाजपा को विकल्प के रुप में आगे बढ़ाना ही होगा। कम से कम फिलहाल तो और कोई विकल्प मिलता दिख नहीं रहा है।
लेखक मातृभूमि समाचार के संपादक हैं।