– डॉ घनश्याम बादल
रंगों और मस्ती का त्योहार होली भारत में दो दिन तक संस्कृति व मस्ती का नया रूप लेकर आता है। विशेषत: भारत तथा नेपाल में मनाया जाने वाला होली व फाग़ का पर्व कई अन्य देशो में भी मस्ती से मनाया जाता है।
अहा होली आई !
वसंत का संदेशवाहक, राग-रंग के लोकपर्व होली में राग और रंग प्रमुख रूप से समाए हैं। प्रकृति इस समय अपने चरम पर होती है। एक वक्त था जब होली का जश्न वसंत पंचमी से ही शुरू हो जाता था पहले गुलाल उड़ता था फिर रंग बिखरते थे । फाग से पखवाड़े भर पहले ही धमाल गाना प्रारंभ हो जाता था। बच्चे-बूढ़े सब संकोच भूलकर ढोलक-झांझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगो में डूब जाते थे पर अब वह बात कहां?
रंग बदलती होली
होली का स्वरूप समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी।
नवान्नेष्टि यज्ञपर्व
वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के नए उगे अन्न को अग्नि में डालकर प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला भी कहते हैं, इसीसे इसका नाम होला महल्ला और होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म भी हुआ था।
खो गए बडकुल्ले :
बृज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लट्ठमार होली प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से पीटती हैं। दस दिन पहले होली का डंडा जिसे राजस्थान में प्रहलाद का रूप माना जाता है किसी खुले मैदान या चौराहे पर गाड़ दिया जाता है । इसके पास होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। पर्व के पहले दिन होलिका दहन होता है। इसमें लकड़ियां और उपले प्रमुख रूप से होते हैं।
कहीं कहीं गाय के गोबर से बने बडकुल्ले या भरभोलिए, जलाने की भी परंपरा है जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में में मूंज की रस्सी डाल कर सात भरभोलिए लेकर माला बनाई जाती है। दहन से पहले इस माला को बच्चों के सिर के ऊपर से सात बार घुमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती ताकि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नजर भी जल जाए। मगर शहरों से यह बड़कुल्ले और भरभौलिए अब गायब होते जा रहे हैं।
दिन ढलने पर शुभ मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूं की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गांवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं, पर आज यह सब गायब सा ही हो गया है। राजस्थान के लोगों से पूछिए आज भी वह घूमर नृत्य को याद करके होली से जोड़ते हुए आहें भरते हुए देखे जा सकते हैं।
कैसी–कैसी होलियां
भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में अलग अलग रंग ढंग से मनाया जाता है।
ब्रज की लट्ठमार होली
ब्रज की लट्ठमार होली और वृंदावन में भी पंद्रह दिन होली मनाई जाती है। बैठकी, धुलेंडी, ढोलजात्रा कुमाऊं की गीत बैठकी, में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां होती हैं। हरियाणा की धुलेंडी में भाभी द्वारा देवर को मस्ती के साथ रंगने और उसे छेड़खानी करके सताए जाने की भी प्रथा है।
बस्तर की पत्थर मार होली
बृज एवं वृंदावन के क्षेत्रों में जहां लट्ठमार होली खेली जाती है वहीं मध्यप्रदेश के बस्तर इलाके में आदिवासी लोग टोलों बंट कर एक दूसरे पर पत्थर फेंकते हुए भी होली खेलते हैं । इन पत्थरों को बुराई का प्रतीक माना जाता है और मैं अपनी तरफ से अपने दोनों की बुराई को बाहर फेंकते हैं। इसी तरह नीदरलैंड में एक दूसरे पर टमाटर फेंक कर रंगने की प्रथा का भी एक त्यौहार है।
बंगाल की दोल जात्रा
बंगाल की दोलजात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जुलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो, में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है।
राजस्थान की गुलाबी ‘गैर‘
यदि गहरे गुलाबी रंग की चटक भरी होली देखनी हो तो राजस्थान और उसमें भी शेखावटी अंचल की होली से बेहतर नजारा कहीं और देखने में नहीं आएगा राजस्थान के चुरु सीकर झुंझुनू और जयपुर मिलाकर शेखावटी क्षेत्र के नाम से जाना जाता है इन इलाकों में गहरे पक्के गुलाबी रंग को बड़े-बड़े खड़ा हूं एवं बर्तनों में खोलकर होली के अवसर पर लोगों पर फेंका ही नहीं जाता है अपितु कई जगह तो लोगों को ही उस रंग में डाल दिया जाता है यह रंग इतना पक्का होता है कि होली के बाद हफ्तों तक भी इसका असर लोगों के चेहरों पर दिखाई देता है।
गुजराती होली
दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया जो होली का ही एक रूप है।
बिहारी फगुआ
बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग-अलग प्रकार से होली के श्रृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएं और भिन्नताएं हैं।
कमन, याओसांग व भगोरिया
तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोत्सव है जबकि मणिपुर के याआ. सांग में योंगसांग उस नन्हीं झोपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर का वर्णन है।
साहित्य में होली रंग
प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में रंग नामक उत्सव मनाया जाता है।
बचाइए होली फीलिंग को
आज कैमिकल, गोबर कीचड़ आदि ने होली को बदरंग कर दिया है। यदि होली पर गाए बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धामार, चैती और ठुमरी जैसे पारंपरिक संगीत की समझ रखने वाले और पर्यावरण के प्रति सचेत लोग और संस्थाएं चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए रखें व इनके विकास में योगदान भी दें व रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी तो लोगों को दें तो होली के रंग सच में ही चटक हो जाएंगे और इससे भी बढ़कर होली को ‘होली फीलिंग’ यानी पावन भावना के साथ मनाया जाना बहुत जरूरी है जिससे आपस में सौहार्द एवं प्रेम कि श्री वृद्धि हो।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.
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