नानासाहब की बात बिना तात्या टोपे के अधूरी है। नासिक के निकट एक गांव में 1814 को जन्मे तात्या के बचपन का नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था। उन्हें प्यार से तात्या भी कहा जाता था। तात्या के पिता बाजीराव द्वितीय के यहां कर्मचारी थे, लेकिन तात्या ने प्रारंभ में अंग्रेजों के तोपखाना रेजीमेंट में काम किया था। इसके बाद उनकी देशभक्ति ने उनसे यह कार्य छुड़वा दिया और वो भी बाजीराव द्वितीय के पास वापस आकर नौकरी करने लगे। रामचंद्र पांडुरंग राव तात्या टोपे कैसे बने, इसके पीछे का एक कारण यह मिलता है कि पेशवा के द्वारा उन्हें एक टोपी दी गई थी, जिसे वे अपना सम्मान मानते थे, इसीलिए उनका नाम तात्या टोपे पड़ा। बाद में वो भी नानासाहब पेशवा के साथ बिठूर आ गए। यहां 1857 के संग्राम के समय नानासाहब ने उन्हें अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया था। जब अंग्रेज सेना से नानासाहब पेशवा की हार निश्चित हो गई तो वो उनके साथ नेपाल नहीं गए, बल्कि अपनी देश भक्ति का परिचय देते हुए अंत तक संघर्ष करते रहे। इस संघर्ष में कई बार उन्होंने अंग्रेजों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया।
यदि तात्या टोपे के साथ विश्वासघात न हुआ होता, तो शायद अंग्रेज उन्हें कभी नहीं पकड़ पाते। अंग्रेजों ने उन्हें सोते समय पकड़ा और अप्रैल 1859 को फांसी पर चढ़ा दिया। 1857 से लेकर 1859 तक तात्या शांत नहीं बैठे थे। वे कभी रानी लक्ष्मीबाई का सहयोग करने आ गए, तो कभी उन्होंने ग्वालियर से तत्कालीन राजा से सहायता ले सेना तैयार की और फिर रणभूमि में उतर गए। तात्या टोपे से जब अंग्रेजों ने उनकी अंतिम इच्छा बताने को कहा, तो तात्या ने अपने परिवार को परेशान न करने के लिए कहा, लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा नहीं किया। अंग्रेजों के द्वारा उनके कई परिजनों को गिरफ्तार कर लिया गया। तात्या टोपे के बारे में अंग्रेज कर्नल मालेसन ने लिखा है कि तात्या टोपे पूरे भारत के हीरो बन गए हैं। अंग्रेज लेखक पारसी के अनुसार यदि तात्या टोपे जैसे कुछ और लोग होते तो उसी समय अंग्रेजों के हाथ से भारत निकल जाता। कुछ और विदेशी इतिहासकारों ने उन्हें समकालीन इटली के प्रसिद्ध योद्धा गैरीवाल्डी की तरह बताया है।