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सुभाष चन्द्र बोस

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स्वतंत्रता पूर्व कांग्रेस के अधिवेशनों में अध्यक्ष का चुनाव होता था। ऐसे ही अधिवेशनों में कुछ गरम दल के लोग भी अध्यक्ष बने, जिनमें 1920 में विशेष सत्र में लाला लाजपत राय थे, जिन्हें इसी वर्ष हटाकर दूसरा अध्यक्ष चुन लिया गया। 1938 में सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1939 में बोस को पुनः अध्यक्ष चुन लिया गया, लेकिन तथाकथित नरम दल के लोगों को यह बात हजम नहीं हुई और उन्होंने षड़यंत्र करके बोस को इस्तीफा देने के लिए विवश कर दिया। इसके बाद बोस ने आजाद हिन्द फौज का पुनर्गठन किया। विशेष बात यह थी कि गांधीजी के कांग्रेस में आने के बाद उनकी मृत्यु तक कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए उनका मत सबसे महत्वपूर्ण माना जाता था। सुभाष चन्द्र बोस को दुबारा अध्यक्ष पद से हटाने को लेकर गांधीजी ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था।

बोस गांधी जी से किसी प्रकार का टकराव नहीं चाहते थे, इसीलिए उन्होंने पहले अध्यक्ष पद छोड़ दिया और फिर कांग्रेस से भी अलग हो गए। इसी प्रकार स्वतंत्रता के समय जो नेता कांग्रेस का अध्यक्ष होगा, वही देश का कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनेगा, अंग्रेज और कांग्रेस दोनों ऐसा करने का मन बना चुके थे। कांग्रेस सरदार पटेल को अध्यक्ष बनाना चाहती थी, लेकिन गांधीजी पंडित जवाहरलाल नेहरू को देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने बहुमत के विरुद्ध जाते हुए पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। यदि तब तक सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस से जुड़े रहते तो संभव था कि उनका भी नाम प्रधानमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाया जाता, लेकिन बोस पद नहीं देश को पहले रखते थे, इसीलिए वो तो पहले ही कांग्रेस से अलग हो चुके थे।

आजाद हिन्द फौज और नेताजी सुभाष चंद्र बोस

कुछ लोग यह मानते हैं कि भारत को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने के लिए किया गया अंतिम आंदोलन ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ था। किन्तु यह सही नहीं है। यह वही कालखंड था, जब अंग्रेज द्वितीय विश्व युद्ध का सामना कर रहे थे। क्योंकि कांग्रेस ने प्रथम विश्व युद्ध की तरह ही इस बार भी अंग्रेजों की सेना में भारतीयों के भर्ती होने के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं किया था, इसलिए अंग्रेज भारतीयों को अग्रिम मोर्चों पर रखकर यह विश्व युद्ध लड़ रहे थे। अंग्रेजों को अपनी रणनीति और भारतीयों की बहादुरी के बाद भी इस युद्ध में उन्हें बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा था। अभी अंग्रेज प्रथम विश्व युद्ध के कारण हुये नुकसान से पूरी तरह बाहर भी नहीं आ पाए थे और उन्हें इतना बड़ा दूसरा युद्ध लड़ना पड़ा। कुछ लोग कह सकते हैं कि अंग्रेजों ने दोनों विश्व युद्ध जीते थे, फिर उन्हें नुकसान कैसा? जब कभी भी युद्ध होता है, तो नुकसान दोनों पक्षों को झेलना पड़ता है। किसी को कम, तो किसी को अधिक। इसलिए अंग्रेजों को विपक्षी देशों की अपेक्षा कम नुकसान हुआ, लेकिन दो लगातार झटकों के कारण इस छोटे से देश को यह भी बड़ा लग रहा था। सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए देश से बाहर रहकर कार्य कर रहे थे।

रास बिहारी बोस ने 1915 में आजाद हिन्द फौज (आजाद हिन्द सरकार की सेना) का गठन किया था। किन्तु इस फौज को कई वर्षों तक कुछ विशेष सफलता नहीं मिल सकी थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान की सहायता से रास बिहारी ने इसे दुबारा खड़ा करने का प्रयास किया। इसी दौरान 1941 में विदेश में रह रहे भारतीयों ने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की। सुभाष की भी इसमें प्रमुख भूमिका थी। इसका पहला सम्मेलन 1942 में हुआ। जून 1943 को टोकियो रेडियो पर सुभाष चंद्र बोस ने स्पष्ट रूप से कहा कि अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के भीतर व बाहर से स्वतंत्रता के लिये स्वयं संघर्ष करना होगा। रास बिहारी को यह बात बहुत अच्छी लगी, क्योंकि वो भी 1915 से यही बात कह रहे थे। इसी कारण रास बिहारी ने अपनी आजाद हिन्द फौज 4 जुलाई 1943 को सुभाष चन्द्र बोस को दे दी।

सुभाष चन्द्र बोस ने 5 जुलाई 1943 को इस सेना के सुप्रीम कमांडर की हैसियत से सिंगापुर में संबोधित करते हुए दिल्ली चलो का नारा दिया। 21 अक्टूबर 1943 को बोस ने निर्वासित सरकार की घोषणा भी कर दी। जापान की सरकार ने बोस को अंडमान और निकोबार द्वीप दे दिए। 30 दिसंबर 1943 को नेताजी ने यहां स्वतंत्र भारत सरकार का ध्वज भी फहरा दिया। इस तरह अब निर्वासित सरकार के पास अपना भूभाग भी था। इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली और आयरलैंड आदि देशों ने अपनी मान्यता भी दी थी। सुभाष चंद्र बोस ने इन मित्र देशों और भारतीयों की सहायता से लगभग 80,000 लोगों की सेना बना ली। इस फौज ने 4 फरवरी 1944 को आक्रमण कर पूर्वोत्तर भारत के कुछ सीमावर्ती हिस्सों पर कब्ज़ा भी कर लिया था। यह सेना 18 मार्च 1944 को कोहिमा और इम्फाल में अंग्रेजों की सेना के सामने थी।

पूर्वोत्तर में बारिश का मौसम जल्दी आता है। ऐसी ही विषम परिस्थितियों के कारण आजाद हिन्द फौज तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रही थी। वहीं दूसरी ओर द्वितीय विश्व युद्ध में नेता जी के दो प्रमुख सहयोगी देश जापान और जर्मनी कमजोर पड़ रहे थे। अगले वर्ष दो प्रमुख घटनाएं घटित हुईं, जिनके कारण आजाद हिन्द फौज को हार का सामना करना पड़ा। पहले 18 अगस्त 1945 को एक विमान हादसे में बोस की मृत्यु का समाचार मिला। 1945 में इस सूर्य पर सदा के लिए ग्रहण लग गया और वे फिर कभी दिखाई नहीं दिए। उसके बाद अगले महीने जर्मनी और जापान की हार के साथ विश्व युद्ध समाप्त हो गया। इससे जहां एक ओर आजाद हिन्द फौज को न ही मार्गदर्शन मिल पा रहा था और न ही मित्र देशों का सहयोग। दूसरी ओर विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के कारण अंग्रेज अधिक ताकत के साथ आजाद हिन्द फौज का मुकाबला कर पा रहे थे।

आजाद हिन्द फौज को मिले समर्थन के आगे झुके अंग्रेज

द्वितीय विश्व युद्ध में जापान और जर्मनी की हार के कारण आजाद हिन्द फौज देश को स्वतंत्र कराने में भले ही सफल न रह सकी हो, लेकिन भारतीयों के मन में उनके प्रति अपार लगाव था। आजाद हिन्द फौज के सैनिकों की गिरफ्तारी के बारे में जैसे ही सभी को पता चला, पूरे देश में उनका समर्थन करने के लिए लोग स्वतः ही आगे आने लगे। जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे। देश को यह विश्वास हो चला था कि आजाद हिन्द फौज भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रही थी। इसलिए वो देश भक्त हैं और इन सैनिकों को किसी भी कीमत पर सजा नहीं मिलनी चाहिए। भगत सिंह की फांसी के समय गांधीजी के उदासीन और विफल प्रयासों को देश देख चुका था। इसलिए उन्हें गांधीजी या कांग्रेस से कुछ भी उम्मीद नहीं थी। कुछ कांग्रेसियों ने जनता की इस भावना को पहचान लिया था। इसलिए वो जरुर आजाद हिन्द फौज के साथ दिखे।

आजाद हिन्द फौज के 17 हजार सैनिक गिरफ्तार हुए थे, उन सभी पर मुकदमे चले। सबसे प्रसिद्ध मुकदमा लाल किला पर कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह तथा मेजर जनरल शाहनवाज खान के खिलाफ था। सांप्रदायिक कारणों से तत्कालीन अकाली दल गुरुबख्श सिंह और मुस्लिम लीग शाहनवाज खान का मुकदमा लड़ना चाहते थे। किन्तु इन लोगों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। तीनों ने तेज बहादुर सप्रू के नेतृत्व वाले वकीलों के दल को ही अदालत में अपना प्रतिनिधि चुना। सप्रू की अस्वस्थता के कारण तीनों का मुकदमा भूलाभाई देसाई ने लड़ा। देसाई ने दलीले अच्छी रखी, लेकिन अंग्रेज हमेशा की तरह निर्णय पहले ही कर चुके थे। यह अदालती कार्रवाई तो सिर्फ दिखावा थी। इसलिए तीनों को फांसी की सजा सुना दी गई। पूरे देश में आजाद हिन्द फौज के समर्थन में जो नारे लग रहे थे, उनमें से एक था ‘लाल किला को तोड़ दो, आजाद हिन्द फौज को छोड़ दो’। अंग्रेज समझ चुके थे कि यदि तीनों को फांसी दे दी गई, तो लाल किला क्या शायद पूरे देश में अंग्रेजों के भवन तोड़े जाने लगेंगे। इससे भयभीत होकर तत्कालीन वायसराय लार्ड वेवेन ने सभी की सजा को माफ कर दिया। अंग्रेजों ने कभी गांधीजी पर एक लाठी का भी प्रहार नहीं किया था, उन्हें यातना देना तो दूर की बात है, लेकिन इतने बड़े स्तर पर क्रांतिकारी विचारों वाले लोगों को माफी अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास में इससे पहले कभी नहीं दी थी।

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