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एक पादरी की बेटी जो स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होकर बन भगिनी निवेदिता

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स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता के बारे में सनातन संस्कृति में आस्था रखने वाला हर व्यक्ति जनता होगा। बहुत से लोगों को यह भी पता होगा कि वो हिन्दू नहीं थीं। लेकिन कम ही लोगों को पता होगा कि भगिनी निवेदिता के पिता सैमुअल नोबल एक ईसाई पादरी थे। उनकी माँ का नाम मेरी इसाबेला नोबल था।  भगिनी निवेदिता का वास्तविक नाम मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल था। उनका जन्म 28 अक्टूबर 1867 को आयरलैंड के डुंगानोन में हुआ था। उन्होंने अपनी शिक्षा प्राप्त कर लंदन में एक शिक्षिका के रूप में कार्य किया।

यहीं वर्ष 1895 में उनकी भेंट स्वामी विवेकानंद से हुई थी। स्वामी जी के प्रवचनों से मार्गरेट इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने स्वामी विवेकानंद को अपना आध्यात्मिक गुरु मान लिया। स्वामी जी ने उन्हें महिलाओं के लिए काम करने के लिए कहा। जब गुरु भारत से था, तो शिष्या लंदन में क्या करती? इसीलिए वो 28 जनवरी 1898 को भारत आ गईं। भारत आने के बाद 25 मार्च 1898 को स्वामी विवेकानंद ने उन्हें विधिवत ब्रह्मचर्य की दीक्षा देकर अपनी शिष्या बनाया और नाम दिया ‘निवेदिता’। निवेदिता का अर्थ “पूरी तरह समर्पित”। उनके सेवा भाव को देखकर ही लोग उन्हें ‘भगिनी निवेदिता’ कहने लगे और वो इसी नाम से प्रसिद्ध हुईं।

उस समय कलकत्ता अंग्रेजों की राजधानी थी। इस कारण यह शहर लोगों को सहर्ष ही आकर्षित कर लेता था। भगिनी निवेदिता ने भी संभवतः इसी कारण कलकत्ता को सबसे पहले अपनी कर्मभूमि के रूप में चुना। उन्होंने 13 नवंबर 1898 को कलकत्ता के बागबाज़ार में एक कन्या पाठशाला खोली। इस पाठशाला का उद्घाटन स्वयं रामकृष्ण परमहंस की पत्नी माँ शारदा देवी ने किया था। भगिनी निवेदिता ने देशप्रेम की भावना भरने के लिए अपने स्कूल में ‘वंदे मातरम’ गीत को प्रार्थना गीत के रूप में शामिल किया। भगिनी निवेदिता का मानना था कि बाल विवाह जैसी कुरीतियों को दूर करने के लिए महिलाओं का शिक्षित होना अत्यंत आवश्यक है।

वर्ष 1899 में कलकत्ता में जब प्लेग फैला, तब महामारी होने के कारण लोग अपनी जान बचाकर भाग रहे थे, तब भगिनी निवेदिता ने अपनी जान की परवाह किये बिना दिन-रात रोगियों की सेवा की। 1906 में बंगाल अकाल और बाढ़ की विभीषिका झेल रहा था। तब भी भगिनी निवेदिता आगे आईं और सेवा कार्य में जुट गईं। उनकी प्रेरणा से अन्य भारतीय महिलाएं भी इस कार्य में उनके साथ जुट गईं।

कोई भी भगिनी निवेदिता के जीवन को मात्र देखकर ही बहुत कुछ सीख सकता था। वो भारत आने के बाद खादी के वस्त्र पहनती थीं। उन्होंने जगदीश चंद्र बोस जैसे भारतीय वैज्ञानिकों को भी प्रोत्साहित करने का कार्य किया था। उन्होंने बोस को नैतिक के साथ ही आर्थिक रूस से भी सहयोग किया था। भगिनी निवेदिता सिर्फ समाज सेवा के क्षेत्र में ही सक्रिय नहीं थीं। उनका संपर्क लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक व अरबिंदो घोष सहित विभिन्न क्रांतिकारियों के संपर्क में भी थीं।

अबनिंद्रनाथ टैगोर और बिनोद बिहारी मुखर्जी जैसे कलाकारों को भारतीय परंपरा आधारित कला सृजन के लिए भगिनी निवेदिता का मार्गदर्शन और सहयोग मिला। एक विदेशी पृष्ठभूमि और ईसाई पादरी की पुत्री होने के बाद भी जब से उन्होंने स्वामी विवेकानंद की शिष्या बनने का निर्णय लिया, उन्होंने भारतीय संस्कृति को भी अपनाना शुरू कर दिया। इसी का परिणाम यह था कि वो भारत को कई भारतीयों से भी अधिक समझने लगी थीं।

वो उत्कृष्ट लेखिका भी थीं। उन्होंने The Master As I Saw Him, Kali the Mother, The Web of Indian Life, Cradle Tales of Hinduism व Notes of Some Wanderings with the Swami Vivekananda पुस्तकें लिखीं। बिना रुके निरंतर कार्य करने के कारण उनकी तबियत बिगड़ने लगी और 13 अक्टूबर 1911 को दार्जिलिंग में उनका देहांत हो गया। भगिनी निवेदिता ने अपनी मृत्यु से पहले अपनी सारी संपत्ति भारत में महिलाओं की शिक्षा के लिए दान कर कर दी थी।

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