– डॉ० घनश्याम बादल
‘वयम् राष्ट्र जाग्रयाम:’ का उद्घोष करने वाले विवेकानंद हिंदू एवं राष्ट्र धर्म की ऐसे संवाहक थे जिन्हें दुनिया ने 1893 के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन के पश्चात ‘तूफानी हिंदू’ के नाम से जाना था । वें उस समय केवल 30 वर्ष के युवा थे मात्र 39 वर्ष की अवस्था में 4 जुलाई 1902 को अपनी इहलीला समाप्त कर परमधाम को चले गए । इतनी अल्पायु में इतना अधिक योगदान एवं राष्ट्र सेवा करने वाले विरले ही मिलते हैं।
स्वामी विवेकानंद प्रखर व्यक्तित्व, ऊर्जस्वी विचारों वाले देश के प्रति समर्पित ऐसे संन्यासी थे जो समाज के उत्थान एवं प्रगति के साथ साथ राष्ट्र के प्रति भी अपने दायित्व का निर्वहन निडरता से करते थे । उनके इन्हीं गुणों ने उन्हें न केवल भारत अपितु विश्व भर में श्रद्वा का पात्र बनाया। विवेकानंद को अपने नौवें पुत्र नरेंद्र के रूप में मां ने बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म और उच्च मूल्य तथा संस्कार दिए थे । स्वयं के चिंतन से ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा जगी तो 25 वर्ष की आयु में तब के नरेंद्रदत्त संन्यासी बन गुरु की खोज में निकल पड़े। पर, कोई भी ज्ञानी उन्हे स्वयं ईवर को देखने का यकीन नहीं दिला पाया । विवेकानंद ने ऐसे किसी भी व्यक्ति को अपना गुरु मानने से इंकार कर दिया जो स्वयं ईश्वर का साक्षात्कार न कर चुका हो क्योंकि उनका मानना था कि जिसे स्वयं ईश्वर के साक्षात्कार नहीं हुए हों वह उन्हें ईश्वर से कैसे मिलवा सकता है।
विवेकानंद के इस गुरु की खोज के अभियान में अंततःस्वामी रामकृण परमहंस ने उन्हे विश्वास दिलाया कि उन्हें ईश्वर के साक्षात दर्शन उसी प्रकार से हुए हैं जैसे वे विवेकानंद से मिल रहे हैं तथा उन्हें आश्वस्त किया कि वें उन्हें ईश्वर से अवश्य मिलवाएंगे वह भी ठीक वैसे ही जैसे दो व्यक्ति आपस में मिलकर करते हैं । कहते हैं कि उन्होने युवा नरेंद्र को ईश्वर के दर्शन कराए तथा नया नाम दिया ‘विवेकानंद’। विवेकानंद आजीवन उनके शिष्य बन कर रहे । 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में जन्मे जिज्ञासु नरेन्द्र, विवेकानन्द बनने से पहले 16 वर्ष की आयु में पाश्चात्य दार्शनिकों के भौतिकतावाद व नास्तिकवाद की चपेट में आए पर बाद में ब्रह्म समाज में शामिल हो हिन्दू धर्म-सुधार की मुुहिम से जुड़ गए थे।
गुरु रामकृष्ण परमहंस के दिव्य स्पर्श ने नरेन्द्र को बदला । उन्होंने उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर वास्तव में है और मनुष्य ईश्वर को पा सकता है। रामकृष्ण परमहंस ने सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में उनका मार्गदर्शन किया , एवं उनमें आध्यात्मिक शक्ति का अंत:सृजन किया । शक्तिपात के कारण कुछ दिनों तक नरेन्द्र उन्मत्त से रहे पर गुरु ने आत्मदर्शन कराया तो विश्व कल्याण के लिए निकल पड़े । ‘उत्तिष्ठ, जागृत, प्राप्य वरान्निबोधत’ का मंत्र देने वाले विवेकानंद को युवकों से बड़ी आशाएं थीं । उनकी कल्पना के समाज में धर्म या जाति के आधार पर भेद नहीं था । समता के सिद्धांत के आधार पर समाजनिर्माण आंदोलन खड़ा करने वालें विवेकानंद का मत था ‘युवा बदलेंगें तो देश बदलेगा ’।
भगवा वेश धारण करने वाले विवेकानंद, वर्षों घूम – घूमकर राजाओं , दलितों अगड़ों , पिछड़ों सबसे मिले । कन्याकुमारी में समाप्त हुई,यात्रा के बाद ज्ञान प्राप्त करने वाले राष्ट्रानुरागी विवेकानंद का माना था कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण वैरागियों और जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही देश में नवजागरण का संचार किया जा सकता है। भारत पुनर्निर्माण के अपने अभियान के अंतर्गत 11 सितंबर 1893 को शिकागो धर्म संसद में गए । वहां उन्होने अपने भाषण से जबरदस्त प्रभाव छोड़ा। स्वामी विवेकानन्द के चमत्कारी भाषण ने विश्व भर में भारत की धाक जमा दी । उनके संबोधन ‘‘अमेरिकी बहनों और भाइयों, आपके इस स्नेह्पूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है मैं आपको दुनिया के सबसे पौराणिक भिक्षुओं की तरफ से धन्यवाद देता हूँ ” ने विवेकानंद को विश्व प्रसिद्ध बना दिया।
वहां विवेकानंद ने कहा था ‘‘ मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढाया है । हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मानवधर्म के हामी विवेकानंद ने कहा – सांप्रदायिकता, कट्टरता, और इसके भयानक वंशज, हठधर्मिता लम्बे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं । कितनी बार ही ये धरती खून से लाल हुई है , कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और कितने देश नष्ट हुए हैं । अगर यह भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता लेकिन अब मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मितओं , हर तरह के क्लेश ,चाहे वो तलवार से हों या कलम से, और हर एक मनुष्य, जो एक ही लक्ष्य की तरफ बढ़ रहे हैं उनके बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा…… ।”
विवेकानंद ने सर्व धर्म समभाव के साथ हिंदू धर्म का उन्नयन करते हुए वैश्विक भ्रातृत्व का संदेश दिया विवेकानंद शांति के हामी थे लेकिन उनका कहना था कि यदि कोई प्रताड़ना पर उतरे तो उसका प्रतिरोध करना भी शांति की स्थापना करने का ही काम है । विवेकानंद स्वतंत्रता-संग्राम में भी प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है । विवेकानंद ने कहा ‘‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’’ भारत की आत्मा को जगाने का लक्ष्य ले कर चले, कर्म योगी विवेकानंद को जीवन के अंतिम दिन 4 जुलाई, 1902 को बेलूर में षड़यंत्र पूर्वक जिस वेश्या के हाथों जहर दिलवाया गया था उसके लिए भी उन्होंने मरते मरते प्रार्थना की थी ।
आज नैतिक मूल्यों के पतन के इस दौर में विवेकानंद जैसे चरित्रवान तेजस्वी एवं प्रखर व्यक्तित्व वाले युवाओं की आवश्यकता है यदि देश को फिर से चारित्रिक मूल्यों एवं संस्कारों की ऊंचाइयों पर ले जाना है तो विवेकानंद के मूल्यों को अपने जीवन में उतार कर हम यह सपना पूरा कर सकते हैं।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.
नोट – लेखक विचारों से मातृभूमि समाचार का सहमत होना आवश्यक नहीं है.
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