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महज राम की जीत नहीं विजयदशमी

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– डा0 घनश्याम बादल

भारतीय रक्तपात में यकीन नहीं करते पर , यदि कोई सताता है तो हम चुप भी नहीं रहते। ऐसा आज से नहीं सनातनी परंपरा से होता रहा है। हम अच्छाई के प्रतीक राम को भगवान मानकर पूजते हैं तो बुराई के प्रतीक रावण को राक्षस कहकर जलाते हैं। अच्छाई के पराक्रम व बुराई नाश के रूप में दशहरे का पर्व मनता है।

 शाश्वत हैं राम और रावण :

हर युग में अच्छाई के प्रतीक राम व दहशत के पर्याय रावण विद्यमान रहे हैं। एक ओर राम थे जो पिता की आज्ञा मान, सारे सुख त्याग, राज छोड़ वनगमन कर गए और वहां जाकर भी आसुरी ताकतों से बिना संसाधनों के भी केवल आत्मबल और अपनी संगठन शक्ति के दम पर रावण जैसे बाहुबली से भिड़ गए और तब तक लड़े जब तक कि उसका संपूर्ण वंश के साथ नाश नहीं कर दिया। दूसरी ओर रावण था जो अन्याय, छल व दहशत का पैरोकार था, साधनसंपन्न व ताकतवर था मगर फिर भी हारा।

यह राम का पराक्रम भी था और अपने आत्म सम्मान की लड़ाई के लिए पूरी ताकत झोंक देने का माद्दा भी। चाहे कुछ भी हो , जान जाए या रहे , भाई बचे या मरे , पर जिस पत्नी का हाथ सारे समाज के सामने थामा है उसके सम्मान की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने का संदेश दे जाता है राम – रावण से युद्ध के बहाने दशहरा।

 रामरावण का फर्क :

आज भी रावण वह है जिसे अपने संसाधनों, ताकत व सत्ता और बल का अहंकार है। जिसे अपनी अकूत संपत्ति व अजेय दुर्ग में रह कर कुछ भी कर लेने व किसी को भी अपमानित , लांछित करने , मारने, भगा देने का घमंड है यही घमंड उसे विनाश के कगार पर ले जाता है। रामायण का अहंकारी रावण सही सलाह देने वाले भाई को अलग कर देता है , तो अपराध में साथ देने वले कुंभकर्ण जैसे भाई व देवों तक को हरा देने वाले मेघनाद जैसे बेटों को भी वह मरवा डालता है। उसके काम न मायावी बेटे अहिरावण की माया व षड़यंत्र आते हैं न ही सुरसा या कालनेमि जैसे मायावी उसे बचा पाते हैं। जबकि राम बंदर भालुओं को एकत्र कर उसे न केवल परास्त कर देते हें अपितु उस समुद्र पर भी पुल बांध देते हैं जिसे कभी कोई पार ही नहीं कर पाया था तब तक। जानते हें हैं ऐसा क्यों हुआ ? उस सारे पराक्रम व पतन के पीछे है नीयत का खेल। प्रवृत्ति व चिंतन का फर्क, अच्छे और बुरे के भेद का ज्ञान, अहंकार और चुनौती का सामना करने का जज़्बा। सत् और तम का फर्क। इन्हीं सब बातों को को रेखांकित करता है दशहरे का महा-उत्सव।

क्या संदेश लाता है दशहरा ? :

एक कुत्सित प्रवृत्ति के रूप में रावण को मारने व भोलेपन और सद्प्रवृत्ति की प्रतीक सीता की रक्षा के लिए किसी भी तरह से संसाधन जुटाने व व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता का संचार करने का दूसरा नाम भी है दशहरा। यह दशहरा भी है, दंशहरा भी और दशहारा भी। दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। किसी भी युग में और किसी भी रूप में जन्मे और बढ़ रहे रावणों के वध के उद्घोष का दूसरा नाम ही है दशहरा जो रावण के दस शीशों के प्रतीक दसों दिशाओं में फैले उसके अहकांर और मायाजाल को काटने तोड़ने भेदने का सीधा सीधा संदेश लेकर आता है।

महज राम की जीत नहीं विजयदशमी:

अश्विन मास की शुक्लपक्ष की दशमी को ‘विजय’ नक्षत्र के उदय के दिन हर साल आश्विन शुक्ल दशमी को आसुरी ताकतों पर देवत्व की विजय दशहरे के रूप में याद की जाती हैं। सत्य के लिए लड़ने की प्रेरणा देने वाला यह पर्व राम नहीं वरन रामत्व की विजय का उद्घोष है।

आरंभ में इस पर्व का संबंध देव और दानवों के युद्ध से रहा। पर बाद में यह राम की रावण पर विजय से जुड़ गया। विजयदशमी को ही इंद्र ने वृत्तासुर को मारा था। महाभारत में भी पांडवों ने अपना अज्ञातवास पूर्ण कर द्रोपदी का विजयदशमी के दिन ही वरण किया था और महाभारत युद्ध भी विजयदशमी के दिन ही आरंभ हुआ कहा जाता है। इस पर्व को मां भगवती के ‘विजया’ नाम पर ही ‘विजयादशमी ’ कहते हैं। अंत: दशहरा केवल राम की विजय मात्र का पर्व नहीं है।

नए रावण, नए वेश :

अब कैसे भी मने दशहरा, पर भाव एक ही है सद्प्रवृत्तियों की विजय की कामना और कुत्सित भावों का नाश। आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो राम भले ही कम हों पर नानारूप धरे रावण अंसंख्य घूम रहे हैं।। आतंकवाद अपने आप में एक रावणीय प्रवृत्ति है तो उसे पालते पोसते आतंकी और उनके संगठन रावण के कलयुगी रूप कहे जा सकते हें जिनके नाश के लिए हर देश की सरकारें राम बन उनके नाश को जुटी है उसे गुप्तचर विभीषण भी मिल रहे हैं पर इस रावण की नाभि नहीं वरन दिमाग में जहरीला अमृत है और उसके दिमाग के नष्ट होते ही सैंकड़ों दिमाग कोलोन रूप में आ जाते हैं। उन्हे कभी अंधभक्तों से , कभी धर्म से तो कभी क्षेत्रवाद से यह अमृत मिलता रहता है देखें कब तब इसे सोखने का ब्रहमास्त्र आज का राम खोज पाता है।

लाने होंगे नए राम :

 हमें अंदर बाहर के सारे रावण मारने हैं और संस्कारवान राम गढ़ने होगें। जान लें जब तक राम नहीं होगें तब तक रावण मरने वाला नहीं हैं। आज दृढ़ संकल्प , और देश की समुद्धि के लिये सब त्याग देने वाले , अपने सुख कम और अपनों के सुख के लिए ज्यादा खटने वाले राम चाहिएं आज। जो सुख भोग के लिए नहीं अपितु जन्मभूमि को स्वर्ग बनाने के लिए आएं। जिनके राज्य में घोटाले हों न अन्याय, न भेदभाव हो न जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रवाद व भ्रष्टाचार।

आज ऐसे राम चाहिएं जिनके आने से देश में सम्पन्नता व समद्धि आए। न्याय की यश पताका फहराए और अन्याय समूल खत्म हो। प्रतीक रूप में यही तो है रामराज्य की अवधारणा। अब देखें यह दशहरा भी यूं ही पुतले फूंक कर चला जाता है सच में परिवर्तन लाता है।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं.

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