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भारत का स्वतंत्रता संग्राम

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– सारांश कनौजिया

1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले अग्रेजों से हुए संघर्ष  

ऐसा माना जाता है कि 1857 में भारतीय स्वतंत्रता के लिए पहला संग्राम हुआ था। लगभग पूरे देश में एक साथ इतना बड़ा विद्रोह संभवतः पहली बार हुआ हो लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है। अंग्रेजों ने इस ऐतिहासिक घटना से लगभग 100 वर्ष पूर्व 1757 में पलासी का युद्ध जीता था। जिस कारण हम सभी यह मानते हैं कि अग्रेजों ने भारत पर लगभग 200 वर्षों तक शासन किया। किन्तु कई बार हम यह भूल जाते हैं कि अंग्रेज एक साथ कभी भी पूरे भारत पर शासन नहीं कर पाए। इसके पीछे का प्रमुख कारण यह है कि हमारे वीर पूर्वज अपने शस्त्रों से हमेशा ही अंग्रेजों के सपनों पर प्रहार करते रहे। बाद के कालखंड में क्रांतिकारियों के प्रहार से अंग्रेजों के लिए अपनी सत्ता को बचाए रखना मुश्किल बनता चला गया। कांग्रेस ने कभी अंग्रेजों को इतना परेशान नहीं किया कि उन्हें भारत को छोड़के जाना पड़े, लेकिन स्वतंत्रता के लिए हो रहे सशस्त्र प्रयासों से अंग्रेज  हमेशा डरे-सहमे रहे और बाद में इसी डर ने उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।

वैसे तो मैंने इस पुस्तक को लिखने के लिए प्रारंभिक वर्ष 1857 रखा है, किन्तु ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों के भारत आगमन के बाद देश को स्वतंत्र कराने के लिए यह पहला बड़ा प्रयास था। यह अवश्य है कि इससे पहले हुए सशस्त्र प्रयासों के बारे में लिखा कम गया है। इसलिए भारत मां के उन वीर सपूतों को श्रद्धांजलि देने के लिए मैं इनमें से कुछ आंदोलनों की चर्चा अवश्य करना चाहता हूं। क्योंकि इन आंदोलनों ने ही बाद में हमें संघर्ष की प्रेरणा दी है। झारखण्ड के आदिवासियों ने 1769 में अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए रघुनाथ महतो के नेतृत्व में संघर्ष प्रारंभ किया। यह आंदोलन 1805 तक चला। इस आंदोलन का असर बंगाल सहित आस-पास के क्षेत्रों में भी देखने को मिला। अंग्रेज भक्तों ने इन आदिवासियों को लुटेरा बताया और इन्हें चुआड़ या चुहाड़ नाम दिया। लगभग इसी क्षेत्र में उस समय 1770 में सन्यासियों ने भी संघर्ष प्रारंभ किया था। अंग्रेजों से लोहा लेने का यह प्रयास 1820 तक चला।

ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों को सिर्फ इसी क्षेत्र से चुनौती मिल रही थी। भारत के अन्य क्षेत्र जहां तक अंग्रेज पहुंच सके थे, वहां भी अंग्रेजों को विरोध का सामना करना पड़ रहा था। ओडिशा में पाइक जाति के लोगों ने बक्शी जगबंधु विद्याधर के नेतृत्व में 1817 में सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत कर दी। जगबंधु को अंग्रेजों ने 1825 में फांसी दे दी थी। इसके पहले 1805 में जब अंग्रेजों ने ओडिशा पर आक्रमण किया था, तब वहां के राजा मुकुंद देव द्वितीय अवयस्क थे। उनके संरक्षक जय राजगुरु ने अपने राज्य को स्वतंत्र बनाए रखने के लिए संघर्ष किया था। अंग्रेजों को उन्हें हराने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। इसी प्रकार 1855 में हुए संथाल या पहाड़ी संघर्ष सहित स्वतंत्रता के लिए हुए कई सशस्त्र प्रयासों का इतिहास के कुछ पन्नों में विवरण आज भी खोजने पर मिल जाता है।

उपरोक्त सभी प्रयासों का अंग्रेज दमन करते हुए आगे बढ़ रहे थे। अभी तक दो बाते विशेष थीं। पहली अंग्रेजों से जितने भी संघर्ष हुए थे, वो एक क्षेत्र विशेष तक सीमित थे। कोई भी संयुक्त प्रयास नहीं था। दूसरा इनका दमन करने के लिए वो जिस सेना का प्रयोग कर रहे थे, उसमें सैनिक के रूप में अधिकांश भारतीय ही थे।

 

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पीछे के कारण

जब हम 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बात करते हैं, तो सबसे पहले मंगल पाण्डेय और अंग्रेजों की सेना में कार्य कर रहे भारतीय सैनिकों का संघर्ष हमारे ध्यान में आता है। किन्तु इसके पीछे के दो प्रमुख कारणों की तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। कई इतिहासकारों ने इनके बारे में भी लिखा है, लेकिन कुछ कारणों से इनकी चर्चा कम होती है या इस संदर्भ में नहीं होती है। इसमें पहला कारण था लार्ड वेलेजली की सहायक संधि। इस संधि पर सबसे पहले 1778 में हैदराबाद के निजाम ने हस्ताक्षर किये थे, इसके बाद 1801 में अवध के नवाब ने संधि पर अपनी सहमति दी थी। इससे उत्साहित अंग्रेजों ने बाद में अन्य कई शासकों को संधि के लिए मजबूर कर दिया। उनकी इस संधि के दायरे में भारत का एक बड़ा भूभाग आ गया। रही बची कसर लार्ड डलहौजी के व्यपगत के सिद्धांत ने पूरी कर दी। इस सिद्धांत के आधार पर अंग्रेजों ने उन शासकों को अपना निशाना बनाया जिनकी कोई संतान उत्तराधिकारी के लिए नहीं थीं।

यदि सहायक संधि की बात करें, तो इसके अनुसार भारतीय शासकों को अपने सशस्त्र बलों को भंग करना पड़ेगा। अर्थात वो पूरी तरह से सुरक्षा के लिए अंग्रेज सरकार पर निर्भर होंगे। इस सुरक्षा के लिए भारतीय शासकों को अंग्रेजों को भारी-भरकम रकम चुकानी होगी। ऐसा न कर पाने की स्थिति में अंग्रेज उस रियासत का कुछ भाग हथिया लेते थे। यह बहुत हद तक आज के माफियाओं द्वारा पैसा लेकर सुरक्षा का वादा करने जैसा ही था। भारतीय शासक इस संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद न तो किसी अन्य से कोई दूसरी संधि कर सकते थे और न ही राजनीतिक संपर्क तक बना सकते थे। अंग्रेजों ने वादा तो किया था कि वो सहायक संधि होने के बाद किसी रियासत के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन उपरोक्त नियमों का हवाला देते हुए अंग्रेज हस्तक्षेप करने का कोई न कोई कारण खोज ही लेते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के कई हिस्सों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया।

अंग्रेज सहायक संधि की सफलता से बहुत उत्साहित थे और अब वो इसी प्रकार के षड्यंत्रों की सहायता से भारत के और भूभागों पर अपना अधिकार जमाना चाहते थे, इसलिए 1848 में व्यपगत का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया। इसे सीधे शब्दों में समझे तो जिस भी राजा के कोई संतान नहीं होगी, वह राज्य अंग्रेजों के आधीन हो जायेगा। डलहौजी के इस सिद्धांत ने अंग्रेजों को भारत में सत्ता विस्तार करने के कई अवसर प्रदान किये। इस सिद्धांत का सबसे पहला शिकार 1848 में सतारा रियासत बनी। इसके बाद यह क्रम 1856 तक चलता रहा। इन 2 संधियों के कारण देश के कई हिन्दू और मुस्लिम शासक भी अंग्रेजों से परेशान थे। उनमें से कई ने एक साथ आकर अंग्रेजों से मुकाबला करने का निर्णय लिया। अभी इनकी योजना बन ही रही थी कि अंग्रेजों के कारतूस में गाय और सूअर का मांस होने की खबर चारों ओर फैल गई, इससे अंग्रेजों की सेना में कार्यरत हिन्दू और मुस्लिमों दोनों में भारी रोष था। अभी तक अंग्रेज इसी सेना के बल पर भारतीय शासकों को डराते थे, इसलिए भारतीय शासकों को लगा कि यही अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलने का सही समय है।

1857 का स्वतंत्रता संग्राम योजना के अनुसार नहीं हो सका, मंगल पाण्डेय के कारण इसे थोड़ा पहले शुरू करना पड़ा, किन्तु कुछ इतिहासकारों ने इस आंदोलन को सिर्फ सैनिक विद्रोह से जोड़ा है, यह भी गलत है। सैनिक आंदोलन के साथ ही तत्कालीन योद्धाओं ने भी अंग्रेजों से जगह-जगह मोर्चा लिया।

 

बाबू कुंवर सिंह

इतिहास में इनमें से कुछ नामों का उल्लेख मिलता है। ऐसा ही एक नाम है बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे बाबू कुंवर सिंह का। उनका जन्म 1777 में हुआ था, इस अनुसार 1857 में उनकी आयु 80 वर्ष थी। इसके बाद भी जिस वीरता के साथ उन्होंने अंग्रेजों से मुकाबला किया, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी कम है। यहां एक बात और है, जिस पर हमें ध्यान देना चाहिए। 1857 से पहले तक बाबू कुंवर सिंह के अंग्रेज अधिकारियों से अच्छे संबंध थे, लेकिन जब बात भारत की स्वतंत्रता की आई, तो इस देश के लाल ने कुछ विचार नहीं किया। 27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, बिहार के अन्य जवानों व अपने कुछ साथियों को साथ लेकर इनके द्वारा आरा नगर पर अधिकार स्थापित कर लिया गया। उनके द्वारा आरा जेल से कैदियों को स्वतंत्र कर दिया गया और अंग्रेजों के खजाने पर भी कुंवर सिंह का कब्जा हो गया। इससे उत्साहित बाबू कुंवर सिंह ने बीबीगंज में अंग्रेजों के खिलाफ 2 अगस्त 1857 को मोर्चा खोल दिया। इसके बाद अंग्रेजों से उनका बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में भीषण संघर्ष हुआ। सितंबर 1857 में कुंवर सिंह की भेंट नानासाहब से हुई। यह वह समय था जब कुंवर सिंह बिहार से होते हुए उत्तर प्रदेश पहुंचे थे। यहां वो रामगढ़ के सिपाहियों के साथ बाँदा, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर व गोरखपुर में लोगों के बीच जनजाग्रति का संचार कर रहे थे। लेकिन यहां भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया, तात्या टोपे की हार के बाद उन्होंने बिहार वापस लौटने का निर्णय लिया। जब वे बिहार के जगदीशपुर की ओर वापस लौटने के लिए नदी पार कर रहे थे, तो एक अंग्रेज की गोली उनके हाथ में लग गई। इस गोली के कारण शरीर के अन्य भागों में असर न हो जाये, इसलिए इस वीर नायक ने अपने हाथ का वो भाग ही काट कर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहां अंग्रेजों से उनके संघर्ष में वो विजयी रहे लेकिन इस घायल अवस्था ने उन्हें बहुत कमजोर कर दिया। वो किसी तरह 23 अप्रैल 1858 को वापस बिहार तो पहुंच गए, लेकिन 26 अप्रैल 1858 को उनकी मृत्यु हो गई।

रानी लक्ष्मीबाई

कहा जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई एक मर्दानी की तरह अंग्रेजों से 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में लड़ी थीं। यह बोलने वाले लोगों के भाव का मैं सम्मान करता हूं, लेकिन यदि हम कहें कि लक्ष्मीबाई देवी दुर्गा और देवी काली की तरह लड़ी, तो मुझे लगता है कि यह और भी उपयुक्त होगा। उन्होंने हर उस शौर्य का परिचय दिया जो किसी योद्धा की पहचान होता है। उनको इसके संस्कार तो बचपन में ही मिल गए थे। मणिकर्णिका या मनु जो बाद में लक्ष्मीबाई बनी, उनका जन्म 19 नवम्बर 1828 को वाराणसी में हुआ था। उनके पिता वीर मराठा बाजीराव द्वितीय के दरबार में कार्यरत थे। उनकी माता भागीरथीबाई धर्मनिष्ठ महिला थीं। इसलिए माता-पिता ने मनु को भी बचपन से शास्त्रों की शिक्षा दी। हमारे यहां महिलाओं को विदुषी बनाने का प्रचलन हमेशा से रहा है। बीच के कुछ कालखंड को छोड़ दे तो हिन्दू समाज में महिलाओं को भी वही स्थान प्राप्त रहा है, जो पुरुषों को मिला। यह अलग बात है कि महिलाओं और पुरुषों ने आपसी समझ से अपने-अपने काम बांट लिए। इसका उदहारण मनु के जीवन से भी हमें मिलता है। बचपन से स्वाभाव में चंचल मनु को उनके पिता दरबार भी ले जाते थे, यहां उन्हें उनकी चंचलता के कारण एक और नाम मिला ‘छबीली’। किन्तु ऐसा नहीं था कि मनु की चंचलता ने उनकी प्रतिभा को प्रभावित किया हो। इसी का परिणाम था कि 1842 में उनका विवाह झांसी के मराठा शासक राजा गंगाधर राव नेवालकर से हुआ और वो रानी लक्ष्मीबाई बन गई। लेकिन इसके बाद उनके जीवन का अच्छा समय शुरू होने के स्थान पर चुनौतियों की श्रृंखला शुरू हो गई । विवाह के उपरांत प्रारंभ के कुछ वर्ष का समय सुखद गुजरा। उसके बाद उन्होंने 1851 में एक पुत्र को जन्म दिया, किन्तु मात्र 4 माह की आयु में ही उसका देहांत हो गया। इसके लगभग 2 वर्ष बाद उनके पति गंगाधर राव गंभीर रूप से बीमार हो गए। उनको वंश आगे चलाने के लिए पुत्र गोद लेने की सलाह दी गयी, जिसे उन्होंने मान लिया। इससे पहले की वो अपने पुत्र दामोदर राव को ठीक से तैयार कर पाते, उनका निधन 21 नवम्बर 1853 को हो गया। अंग्रेजों ने उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इनकार करते हुए साजिश रच कर रानी लक्ष्मीबाई को झांसी का किला छोड़कर रानीमहल जाने के लिए विवश कर दिया। इस अत्याचार से लक्ष्मीबाई कमजोर नहीं हुईं, बल्कि उन्होंने इसका प्रतिशोध लेने का निर्णय लिया। 1857 के पहले स्वतंत्रता समर में इसी कारण झांसी भी क्रांति का एक प्रमुख केंद्र था। चंचल मनु को अब समय ने एक गंभीर योद्धा बना दिया था। एक ऐसी वीरांगना, जिसने प्रण लिया था कि वो अपनी झांसी किसी भी कीमत पर अंग्रेजों को नहीं देगीं। अंग्रेजों की सेना से मुकाबला करने के लिए उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं को भी प्रशिक्षण दिया। संभव था कि वो जौहर के स्थान पर रणभूमि में बलिदान होने को उस समय अधिक उपयुक्त समझती होंगी, क्योंकि वो स्वयं भी तो एक महिला थीं, जो अंग्रेजों से अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही थीं। उनके लिए समस्या सिर्फ अंग्रेज ही नहीं थे, पड़ोसी राज्य भी इस मुश्किल घड़ी में साथ देने की जगह साम्राज्य हड़पने में अधिक रूचि रखते थे। ओरछा और दतिया के राजाओं ने लक्ष्मीबाई को अबला और असहाय मानकर झांसी पर सितम्बर और अक्टूबर 1857 के दौरान आक्रमण कर दिया। बड़ी ही वीरता के साथ इस वीरांगना ने उनके हमलों को नाकाम कर दिया। जनवरी 1858 में अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण के लिए आगे बढ़ाना शुरू किया और मार्च में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। रानी लक्ष्मीबाई की सेना अपेक्षाकृत कम थी। ऐसे में वो अपने पुत्र दामोदर को लेकर बचे हुए सैनिकों के साथ कालपी के लिए निकल गई। यहां उन्हें तात्या टोपे का साथ मिला। दोनों सेनाओं ने संयुक्त रूप से ग्वालियर के एक किले पर हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया। जून 1858 में अंग्रेज जनरल ह्यूरोज ने लक्ष्मीबाई से आत्मसमर्पण करने के लिए कहा, लेकिन रानी को अपनी स्वतंत्रता प्यारी थी। उन्होंने आत्मसमर्पण के स्थान पर संघर्ष का रास्ता चुना। 18 जून 1858 में जनरल ह्यूरोज ने लक्ष्मीबाई को चारों ओर से घेर लिया। रानी लक्ष्मीबाई लड़ते-लड़ते बुरी तरह से घायल हो चुकी थीं। ऐसे में रामबाग तिराहे से नौगजा रोड की तरफ बढ़ते समय अपने घोड़े के कारण वो आगे नहीं बढ़ सकी। उनकी मृत्यु हो गई। कोई व्यक्ति कितना वीर है, यह बात जाननी है, तो उसके विरोधियों से उनके बारे में जानना चाहिए। अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई को रोकने की जिम्मेदारी जनरल ह्यूरोज को दी थी। इस अंग्रेज अधिकारी ने स्वयं अपनी ऑफिसियल डायरी में रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और रणकौशल को सैल्यूट किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसने भी माना की वीरता के मामले में रानी लक्ष्मीबाई हार कर भी जीत गईं।

झलकारी बाई

झांसी की प्रमुख बात यह थी कि यहां रणभूमि में पुरुषों के साथ ही हर मोर्चे पर महिलाएं बढ़-चढ़ कर भाग ले रही थीं। वैसे तो रानी लक्ष्मीबाई की सेना में बहुत सी वीरांगनाएं थीं, लेकिन उनमें से एक झलकारी बाई के बारे में बात करना अत्यंत आवश्यक है। मेरा मानना है कि उनके बिना रानी लक्ष्मीबाई का वर्णन अधूरा रहेगा।

झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को झांसी के निकट भोजला गांव में एक साधारण कोली परिवार में हुआ था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं, तभी उनकी मां जमुना देवी का देहांत हो गया था। उनके पिता सदोवर सिंह ने कभी भी झलकारी बाई को लड़कों से कम नहीं माना। इसी का परिणाम था कि झलकारी बाई को वो सब कुछ करने को मिला, जो उस समय लड़के कर सकते थे। झलकारी बाई को घुड़सवारी और हथियारों का प्रशिक्षण दिया गया। उस समय तक समाज में लड़कियों को अधिक छूट न देने की भावना आ गई थी, इसलिए झलकारी बाई को उनके पिता शिक्षा तो नहीं दिला सके, लेकिन उन्होंने उन्हें अपनी तरह एक बहुत अच्छा योद्धा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। झलकारी बाई की वीरता को समझने के लिए उनके जीवन की दो घटनाओं को उदहारण के रूप में लिया जा सकता है। एक बार जब वो अपने घर के लिए लकड़ियाँ एकत्रित करने जंगल में गई थीं, तो वहां उनका मुकाबला एक तेंदुए से हो गया, उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से तेंदुए को मार गिराया। इसी प्रकार जब गांव के व्यापारी के घर पर डकैतों ने हमला कर दिया, तो झलकारी बाई ने इन डकैतों से लोहा लेकर उनको भागने पर विवश कर दिया। हमारे गरीब पूर्वज भी बेटियों को किस प्रकार रखते थे, यह उसका अनुपम उदाहरण था।

उनके ऐसे ही किस्सों से प्रभावित गांव वालों की सहायता से उनका विवाह झांसी की सेना के महान सिपाही पूरन कोरी से करवा दिया गया। झलकारी बाई एक बार जब झांसी के महल में गईं तो लक्ष्मीबाई की नजर उन पर पड़ी, वो दोनों लगभग एक जैसी ही लगती थीं। लक्ष्मीबाई ने जब उनके बारे में पता किया, तो वो भी उनकी बहादुरी से बहुत अधिक प्रभावित हुईं और उन्होंने झलकारी बाई को अपनी महिला सेना में शामिल कर लिया। यहां झलकारीबाई ने तलवारबाजी के साथ ही बंदूक और तोप चलाना भी सीखा। झलकारी बाई बचपन से ही एक योद्धा थीं, इसलिए उन्हें यह सब सीखने में अधिक समय नहीं लगा। इसी का परिणाम था कि लक्ष्मीबाई ने उन्हें अपनी महिला सेना ‘दुर्गा’ का सेनापति बना दिया। देवी चंडी की तरह ही दोनों वीरांगनाओं ने कई युद्ध मिलकर जीते। झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई की मदद के लिए पूरे झाँसी दुर्ग को अभेद्य बना दिया था, लेकिन रानी के एक सेनानायक ने धोखा दे दिया और अंग्रेजों के लिए किले का एक दरवाजा खोल दिया। अभेद्य लगने वाले किले में अब दुश्मन घुस चुका था। यदि यह विश्वासघात न हुआ होता, तो अंग्रेजों को वो सबक मिलता, जिसे उनके लिए भूल पाना कभी भी संभव न होता। जब दुश्मन ने किले में प्रवेश कर लिया, तो झलकारी बाई के पति पूरन सहित अन्य सभी सैनिकों ने मोर्चा संभाल लिया, लेकिन दुश्मन की संख्या अधिक थी। पूरन सिंह ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण दे दिए। ऐसे में जब हार निश्चित हो गई, तो लक्ष्मीबाई को झलकारीबाई ने किला छोड़कर सुरक्षित स्थान पर जाने का अनुरोध किया। बहुत समझाने पर लक्ष्मीबाई अपने कुछ विश्वासपात्र सैनिकों को लेकर निकलने के लिए तैयार हो गईं। झलकारी बाई ने उनकी वेशभूषा धारण कर ली, क्योंकि झलकारी बाई दिखने में भी लक्ष्मीबाई की तरह ही थीं और युद्ध कौशल में भी श्रेष्ठ, इसलिए अंग्रेज सेना को धोखा हो गया। पति की मृत्यु का शोक मनाने के स्थान पर यह वीरांगना अंग्रेज सेना के नरमुंडों को काटती चली जा रही थी। इस कारण रानी लक्ष्मीबाई अपेक्षाकृत आसानी से दुर्ग छोड़कर निकलने में सफल रही। वीरता के साथ लड़ते-लड़ते झलकारी बाई 4 अप्रैल 1857 को हुए इस हमले में वीरगति को प्राप्त हुईं। उस समय उनकी आयु 27 वर्ष भी नहीं थी। झलकारी बाई की तरह ही पूरी दुर्गा सेना देवी दुर्गा की तरह काल बनकर अंग्रेजों के सामने लड़ी। दुर्गा सेना की अन्य वीरांगनाओं में से कुछ के नाम मंदर, सुंदर बाई, मुंदरी बाई और मोती बाई आदि हैं, लेकिन इनके बारे में अधिक जानकारी इतिहास में नहीं मिलती है।

नानासाहब पेशवा

नानासाहब का जन्म सन 1824 को महाराष्ट्र में माधवनारायण के घर हुआ था। उनके बचपन का नाम नानाराव धोंडूपंत था। पेशवा बाजीराव द्वितीय की कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने नानासाहब को गोद ले लिया था। बाजीराव द्वितीय ने नानासाहब को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दिलायी और उन्हें एक वीर योद्धा बनाया। नानासाहब कई भाषाओं के जानकार भी थे। 28 जनवरी 1851 को पेशवा का देहांत हो गया। अंग्रेजों ने नानासाहब को अपने पिता की संपत्ति का अधिकारी तो माना, लेकिन उत्तराधिकारी न मानते हुए पेशवा की उपाधि का प्रयोग करने से मना कर दिया। इस समय नानासाहब महाराष्ट्र से निकलकर कानपुर, उत्तर प्रदेश के बिठूर नामक स्थान पर आ चुके थे। नानासाहब ने उनके पिता के समय से चली आ रही अंग्रेजों से मिल रही पेशवाई की पेंशन शुरू करवाने का प्रयास किया, क्योंकि पिता की संपत्ति से वे अपने खर्चे तो निकाल सकते थे, लेकिन अपनी प्रजा को सहयोग नहीं कर सकते थे। अंग्रेजों का राज्य पर पूर्ण नियंत्रण होने के बाद वो यहां की जनता पर और खुलकर अत्याचार करते, इसे भी नानासाहब समझ चुके थे। अंग्रेजों ने उन्हें पेशवा मानने से ही इनकार कर दिया था, इसलिए उनको पेंशन देने का अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद नानासाहब ने अपने प्रतिनिधि के माध्यम से ब्रिटेन की महारानी तक भी अपनी बात पहुंचाई, लेकिन अंग्रेज उनका राज्य हड़पने की पूरी योजना बना चुके थे, इसलिए नानासाहब के पास अंग्रेजों से सीधे संघर्ष के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। यह सभी प्रयास करते-करते 1857 आ गया। नानासाहब बिठूर से बाहर निकले और उन्होंने कालपी, लखनऊ व दिल्ली का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने क्रांतिकारियों की एक टुकड़ी भी तैयार कर ली थी। यह टुकड़ी छापामार युद्ध को प्रथमिकता देती थी। जब मेरठ से स्वतंत्रता आंदोलन का बिगुल बजा, तो उनके कई क्रन्तिकारी साथी दिल्ली पर धावा बोलना चाहते थे, लेकिन नानासाहब ने उन्हें रोक दिया। संभवतः नानासाहब  चाहते थे कि वो सभी जिस भू क्षेत्र पर हैं, उसे सबसे पहले स्वतंत्र कराएं। उन्होंने योजना बनाकर शस्त्रागार पर अधिकार कर लिया और स्वयं को पेशवा भी घोषित कर दिया।

अंग्रेज जान बचाकर प्रयागराज (इलाहबाद) भागना चाहते थे । अंग्रेजों के साथ परिवार थे, इसलिए नानासाहब ने इसकी अनुमति दे दी। लेकिन अंग्रेज जनरल टू व्हीलर और नानासाहब का यह समझौता पूरा नहीं हो सका। 27 जून 1857 को सतिचौरा घाट पर नांव से इन परिवारों के साथ जा रहे अंग्रेजों और कुछ क्रांतिकारियों के बीच संघर्ष हो गया, जिसमें अंग्रेजों के कई परिवार वाले भी मारे गए। ऐसा विवरण मिलता है कि क्रांतिकारियों की मौजूदगी देख अंग्रेजों ने फायरिंग कर दी, जिसमें कई क्रन्तिकारी बुरी तरह से घायल हो गए, जिसका उत्तर इन क्रांतिकारियों ने भी दिया और यह दुखद घटना हो गई। इसे दुखद इसलिए कहा जाना चाहिए क्योंकि क्रन्तिकारी कभी नहीं चाहते थे कि निर्दोष महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को कोई नुकसान हो। कुछ इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेज जहां पर भी सशक्त होते थे, वो बड़ी ही निर्दयता से कत्लेआम करते थे। ऐसा ही मंजर देख चुके कुछ क्रन्तिकारी जो उस समय कानपुर में उपस्थित थे, वो नानासाहब के अंग्रेजों को निकलने के लिए सुरक्षित मार्ग देने से सहमत नहीं थे। इसी कारण इन लोगों ने निशाना तो अंग्रेज अधिकारियों को ही बनाया था, लेकिन नांव में उनके परिवार भी थे, इनमें से कई डर के कारण नदी में कूद गए, जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गई, कुछ को इस गोलीबारी में गोली भी लगी। नानासाहब को जब इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने तुरंत सहायता करने का निर्णय लिया और वो जितने परिवारों को बचा सकते थे, उन्हें बचाया गया। किसी भी क्रांतिकारी के द्वारा इस बचाव कार्य को रोकने के प्रयास का विवरण नहीं मिलता है, इससे भी स्पष्ट होता है कि इन देशभक्तों के निशाने पर कौन था?

अंग्रेजों के पास इस बात के कोई प्रमाण नहीं थे कि ये हत्याएं नानासाहब के कहने पर की गईं, इसके बाद भी बदले में अंग्रेजों ने क्या किया? यह भी ध्यान देना चाहिए। नाराज जनरल हैवलॉक ने 19 जुलाई 1857 को बिठूर पर कब्ज़ा करते हुए घाटों और मंदिरों को आग लगा दी। अंग्रेजों ने नानासाहब की 14 वर्षीय बेटी मैनावती को भी जलाकर मार दिया। आज भी उनकी याद में कानपुर की एक सड़क का नाम मैनावती मार्ग है। अंग्रेज जहां से भी गुजरे उन्होंने कत्लेआम किया। पुरुषों के साथ ही महिलाओं और बच्चों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। लगभग 25,000 निर्दोष लोगों का निर्दयता से नरसंहार हुआ। नानासाहब अंग्रेजों के द्वारा ईनाम रखे जाने के बाद भी नहीं पकड़ में आये। वो अंग्रेजों से बचते-बचाते नेपाल आ गए। 1970 के दशक में नानासाहब के पोते केशवलाल मेहता के घर से प्राप्त दस्तावेजों में दो पत्र प्राप्त हुए, जिनमें नानासाहब के हस्ताक्षर थे। इनमें से एक उन्होंने कल्याणजी मेहता को लिखा था। कल्याणजी मेहता के अनुसार नानासाहब गुजरात भी आये थे और उनकी मृत्यु 1903 में हुई थी। यद्यपि नानासाहब के निधन पर कई बाते समय-समय पर सामने आती रही हैं, कुछ जगह उंनके 1926 तक जीवित होने का दावा भी किया जाता रहा है।

 

महारानी तपस्विनी

महारानी तपस्विनी का जन्म 1842 में हुआ था। वो महारानी लक्ष्मीबाई की भतीजी और बेलुरु के जमींदार नारायण राव की बेटी थीं। उनके बचपन का नाम सुनंदा था। बचपन में ही उनके पति की मृत्यु हो गई थी। उसके बाद उन्होंने अपना ध्यान ईश्वर की पूजा में लगा लिया था, लेकिन साथ ही वो शस्त्रों का अभ्यास भी नियमित रूप से करती थीं। अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त उनका सारा कार्यभार महारानी तपस्विनी ने ही संभाला था। वीरता के साथ ही ईश्वर के प्रति समर्पण ने उन्हें माता जी के नाम से प्रसिद्ध कर दिया था। जब रानी लक्ष्मीबाई ने स्वतंत्रता का बिगुल फूंका, तो वो भी उनके साथ सक्रिय होकर अंग्रेजों से लोहा लेने लगी। 1857 की क्रांति के असफल हो जाने के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तिरुचिरापल्ली की जेल में रखा गया था। यहां उन्होंने अपने आध्यात्म ज्ञान से ऐसे अलौकिक वातावरण का निर्माण किया कि सभी उन्हें एक सन्यासिन की तरह ही देखने लगे। बाल विधवा होने के कारण उनका अधिकांश समय बचपन से ही चंडी पाठ और धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में ही व्यतीत होता था। अपने कारावास के समय उन्होंने इसी ज्ञान की वर्षा की। सभी उनकी सन्यासी प्रवृत्ति को देखकर उन्हें माता तपस्विनी बुलाने लगे। वो किसी सन्यासिनी की तरह ही धार्मिक प्रवचन भी देती थीं। इसी कारण अंग्रेजों ने तपस्विनी को कुछ समय बाद रिहा कर दिया। यहां से निकलने के बाद उन्होंने दो कार्य किये। पहला संस्कृत और योग की शिक्षा प्राप्त की और दूसरा वो भी नानासाहब पेशवा के साथ नेपाल चली गईं। किन्तु जिसके मन में देशभक्ति भरी हो, वो कहीं भी रहे उसे चिंता अपनी मातृभूमि की ही रहती है। यहां उन्होंने नेपाल के शासकों की सहायता से नाम बदलकर क्रांतिकारियों के लिए गोला-बारूद बनाना शुरू कर दिया। धन के प्रलोभन में आकर एक व्यक्ति ने माताजी के बारे में सभी जानकारी अंग्रेजों को दे दी। इस कारण उन्हें नेपाल छोड़ना पड़ा। वो कोलकाता आ गईं। यहां उन्होंने ‘महाकाली पाठशाला’ खोलकर बालिकाओं को देश के लिए तैयार करने का कार्य शुरू कर दिया। उनके इसी कार्य से प्रभावित होकर 1902 में बाल गंगाधर तिलक ने कोलकाता में माताजी से भेंट की थी। तिलक के संपर्क में आने के बाद 1905 में माताजी ने बंग-भंग के विरुद्ध आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। 1907 में कोलकाता में ही माताजी ने अंतिम सांस ली।

 

तात्या टोपे

नानासाहब की बात बिना तात्या टोपे के अधूरी है। नासिक के निकट एक गांव में 1814 को जन्मे तात्या के बचपन का नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था। उन्हें प्यार से तात्या भी कहा जाता था। तात्या के पिता बाजीराव द्वितीय के यहां कर्मचारी थे, लेकिन तात्या ने प्रारंभ में अंग्रेजों के तोपखाना रेजीमेंट में काम किया था। इसके बाद उनकी देशभक्ति ने उनसे यह कार्य छुड़वा दिया और वो भी बाजीराव द्वितीय के पास वापस आकर नौकरी करने लगे। रामचंद्र पांडुरंग राव तात्या कैसे बने, इसके पीछे का एक कारण यह मिलता है कि पेशवा के द्वारा उन्हें एक टोपी दी गई थी, जिसे वे अपना सम्मान मानते थे, इसीलिए उनका नाम तात्या टोपे पड़ा। बाद में वो भी नानासाहब पेशवा के साथ बिठूर आ गए। यहां 1857 के संग्राम के समय नानासाहब ने उन्हें अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया था। जब अंग्रेज सेना से नानासाहब पेशवा की हार निश्चित हो गई तो वो उनके साथ नहीं गए, बल्कि अपनी देश भक्ति का परिचय देते हुए अंत तक संघर्ष करते रहे। इस संघर्ष में कई बार उन्होंने अंग्रेजों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। यदि तात्या टोपे के साथ विश्वासघात न हुआ होता, तो शायद अंग्रेज उन्हें कभी नहीं पकड़ पाते। अंग्रेजों ने उन्हें सोते समय पकड़ा और अप्रैल 1859 को फांसी पर चढ़ा दिया। 1857 से लेकर 1859 तक तात्या शांत नहीं बैठे थे। वे कभी रानी लक्ष्मीबाई का सहयोग करने आ गए, तो कभी उन्होंने ग्वालियर से तत्कालीन राजा से सहायता ले सेना तैयार की और फिर रणभूमि में उतर गए। तात्या टोपे से जब अंग्रेजों ने उनकी अंतिम इच्छा बताने को कहा, तो तात्या ने अपने परिवार को परेशान न करने के लिए कहा, लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा नहीं किया। अंग्रेजों के द्वारा उनके कई परिजनों को गिरफ्तार कर लिया गया। तात्या टोपे के बारे में अंग्रेज कर्नल मालेसन ने लिखा है कि तात्या टोपे पूरे भारत के हीरो बन गए हैं। अंग्रेज लेखक पारसी के अनुसार यदि तात्या टोपे जैसे कुछ और लोग होते तो उसी समय अंग्रेजों के हाथ से भारत निकल जाता। कुछ और विदेशी इतिहासकारों ने उन्हें समकालीन इटली के प्रसिद्ध योद्धा गैरीववाल्डी की तरह बताया है।

1857 के संघर्ष में शामिल महिला क्रांतिकारी

रानी लक्ष्मीबाई और उनकी सहयोगी झलकारी बाई के आलावा भी 1857 के संघर्ष में शामिल महिलाओं की लम्बी सूची है। इनमें से कुछ की जानकारी उपलब्ध है, लेकिन इनकी वीरता को देखते हुए ऐसा लगता है कि उस समय हमारी वीरांगनाओं ने पुरुषों के बराबर संघर्ष किया होगा। अतः यह संख्या बहुत अधिक रही होगी। इनमें रानी द्रौपदी, महारानी तपस्विनी, चौहान रानी, रानी अवंतिका बाई, रानी हिन्डोरिया के अलावा आशादेवी गूजर, ऊदा देवी, भगवती देवी, इंद्र कौर, मन कौर, राज कौर, शोभना देवी आदि हैं। सभी के बारे में अधिक जानकारी तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन फिर भी हमने इनमें से कुछ नामों को सामने रखने का प्रयास किया है और कुछ के बारे में जानकारी देने की एक छोटी सी कोशिश कर रहे हैं।

आशा देवी

मुजफ्फरनगर में सन 1829 को जन्मी आशादेवी ने आस-पास के गुर्जरों के 84 गांवों से लोगों को एकत्रित कर 1857 की क्रांति से जोड़ा। आशा देवी की इस फौज में बड़ी संख्या में महिला वीरांगनाएं शामिल थीं। इसका एक उदाहरण तब मिलता है, जब अंग्रेज सेना आशादेवी को जिंदा पकड़ने की कोशिश करती है। उस समय अंग्रेज सेना 250 महिला सैनिकों का नरसंहार करने के बाद आशा देवी तक पहुंच सकी थी। इसके बाद भी आशा देवी को पकड़ने के लिए 11 अन्य महिलाओं को भी गिरफ्तार किया गया और उन्हें भी फांसी दे दी गई।

रानी द्रौपदी

भारत का एक छोटा सा राज्य धार था। 22 मई 1857 को धार के राजा का देहांत हो गया था। ऐसे में राजा की बड़ी रानी द्रौपदीबाई ने सत्ता संभाल ली। इसका कारण यह था की राज्य का उत्तराधिकारी आनंदराव बालासाहब नाबालिग था। अंग्रेजों ने अपने ही बनाए नियमों को दरकिनार करते हुए नाबालिग उत्तराधिकारी को मान्यता दे दी। चारों तरफ क्रांति की लहर थी, अंग्रेजों का विचार था कि यदि हम नाबालिग उत्तराधिकारी को मान्यता दे देंगे, तो द्रौपदीबाई, लक्ष्मीबाई की तरह विद्रोह नहीं करेंगी। इसके विपरीत जैसे ही रानी द्रौपदीबाई ने सत्ता संभाली, वैसे ही उन्होंने रामचंद्र बापूजी को अपना दीवान नियुक्त कर दिया। इसके बाद रामचंद्र बापूजी, रानी द्रौपदीबाई और उनके भाई भीमराव भोंसले तीनों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। 22 अक्टूबर 1857 को जब अंग्रेजों ने कर्नल डूरेंड ने धार का किला घेर लिया, दोनों सेनाओं के बीच युद्ध 30 अक्टूबर तक चला। इसके बाद किले की दीवार में दरार पड़ गई, जिसके कारण रानी द्रौपदी को अपने विश्वासपात्र सैनिकों को साथ लेकर वहां से निकलना पड़ा। इसके बाद अंग्रेज कर्नल ने किला ही ध्वस्त करवा दिया, लेकिन तब भी वो द्रौपदी को नहीं पकड़ पाया।

रानी अवंतीबाई

रामगढ़ राज्य के राजा विक्रमजीत सिंह ने अपने पिता लक्ष्मण सिंह की मृत्यु के बाद सत्ता प्राप्त की, लेकिन प्रारंभ से ही उनकी रूचि सत्ता चलाने में नहीं थी। उन्होंने अपनी पूरी जिम्मेदारी रानी अवंतीबाई को दे दी। रानी अवंतीबाई जमींदार राव जुझार सिंह की पुत्री थीं। उनका विवाह बाल्यावस्था में ही विक्रमजीत सिंह से हो गया था। उन्होंने दो पुत्रों अमान सिंह और शेर सिंह को जन्म दिया। अंग्रेजों ने रामगढ़ की सत्ता पर कब्जा करने के लिए एक दिखावटी पालक न्यायालय (कोर्ट ऑफ वार्ड्स) की कार्रवाई आयोजित की। इस न्यायालय ने राजा विक्रमजीत सिंह को विक्षिप्त घोषित कर दिया। उनके पुत्र अमान सिंह और शेर सिंह नाबालिग थे। इसको कारण बनाकर रामगढ़ की सत्ता हथियाने के लिए दो सरबराहकार (प्रशासक) शेख मोहम्मद और मोहम्मद अब्दुल्ला को नियुक्त कर दिया। रानी ने इन दोनों प्रशासकों को अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। रानी अवंतीबाई जानती थीं कि अंग्रेजों का मुकाबला करना किसी एक राज्य के लिए संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने आस-पास के प्रभावी राजाओं और जमींदारों सहित अन्य को एकत्रित करना शुरू कर दिया। एक क्षेत्रीय सम्मलेन आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता शंकरशाह ने की। यह सम्मेलन इतनी गोपनियता के साथ किया गया था कि इसकी जानकारी जबलपुर के कमिश्नर मेजर इस्काइन और मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन को नहीं लग सकी। अंग्रेजों के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए अनोखी रणनीति बनाई गयी, जिसकी जिम्मेदारी रानी के पास थी। प्रसाद के रूप में एक पुड़िया बनाकर वितरित की गई। इस पुड़िया में दो काली चूड़ियां और एक पत्र था। इस पत्र में लिखा था कि या तो अंग्रेज सरकार का विरोध करने के लिए तैयार हो जाओ या फिर चूड़ियाँ पहन लो और घर पर बैठ जाओ। इस पुड़िया को लेने का अर्थ समर्थन देना माना गया।

रानी ईश्वरी कुमारी

गोरखपुर के निकट एक बहुत ही छोटा सा साम्राज्य था तुलसीपुर। क्षेत्रफल और जनसंख्या के अनुसार भले ही इसका महत्त्व उतना न हो, लेकिन वीरता इतनी कि अंग्रेज भी टकराने से बचते थे। इस साम्राज्य के शासक दृगनाथ सिंह अंग्रेजों से लगातार लोहा ले रहे थे, उनका विरोध कर उनकी सत्ता के लिए चुनौती बने हुए थे। वो उन राजाओं से भी सम्बन्ध नहीं रखते थे, जिनकी मित्रता अंग्रेजों से होती थी। इस कारण कई भारतीय राजाओं को भी उनसे परेशानी थी। अंग्रेजों ने 1857 से पहले ही किसी तरह से उन्हें गिरफ्तार करने में सफलता प्राप्त कर ली। किन्तु फिर भी साम्राज्य बिना राजा के नहीं हुआ। उनकी पत्नी रानी ईश्वरी कुमारी ने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली। अंग्रेजों ने बहुत प्रयास किया कि वो रानी को किसी प्रकार मानसिक आघात पहुंचाकर, डराकर या लालच देकर झुकने के लिए मजबूर कर दें। लेकिन राजा दृगनाथ और रानी ईश्वरी कुमारी दोनों में से किसी ने हार नहीं मानी। अंग्रेजों की प्रताड़नाओं के कारण राजा का बलिदान हो गया, लेकिन रानी ईश्वरी कुमारी ने तब भी अपनी प्रजा को अंग्रेजों के हवाले नहीं किया। छोटा सा साम्राज्य और सिमित संसाधनों के बाद भी वो अंग्रेजों से मुकाबला करती रहीं। अंग्रेजों ने कई बार उन पर आक्रमण किये लेकिन वो कभी रानी ईश्वरी कुमारी को गिरफ्तार नहीं कर पाए। अंग्रेज कमिश्नर मेजर बैरव के अनुसार छः अंग्रेजी फरमानों के बाद भी जब रानी ईश्वरी कुमारी ने अंग्रेज सत्ता स्वीकार नहीं की, तो अंग्रेजों ने उनका साम्राज्य बलरामपुर राज्य के साथ मिला दिया और उन्हें निर्वासन के लिए मजबूर कर दिया। अंग्रेजों ने एक बार फिर रानी ईश्वरी कुमारी को प्रस्ताव भेजा कि वो गुलामी स्वीकार कर लें, तो उनका साम्राज्य उन्हें वापस कर दिया जाएगा, लेकिन रानी ने इसे भी अस्वीकार कर दिया। अंग्रेज क्यों चाहते थे कि ईश्वरी कुमारी उनकी गुलामी स्वीकार कर लें, इसको समझने के लिए उनके और अंग्रेजों के बीच हुए एक संघर्ष को उदहारण के रूप में लिया जा सकता है। बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों के द्वारा उन्हें उनकी रियासत से बेदखल कर देने के बाद निर्वासन का जीवन चुना था। किन्तु अंग्रेज इससे भी संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि यदि बेगम जीवित रहीं, तो वो उनके लिए सिरदर्द बनी रहेंगी। जब बेगम ने रानी ईश्वरी कुमारी के साम्राज्य के अचवागढ़ी नामक स्थान पर शरण ली, तो अंग्रेज उनका पीछा करते हुए वहां भी पहुंच गये। अंग्रेज अधिकारी जनरल होपग्रांट और ब्रिगेडियर रोक्राफ्ट ने रानी ईश्वरी कुमारी को प्रस्ताव दिया कि वो बेगम को उन्हें सौप दे, तो रानी को अंग्रेज कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। रानी ने खुली घोषणा कर दी, ‘जब तक बेगम हजरत महल यहां से सुरक्षित निकल नहीं जाती, अंग्रेज आगे नहीं बढ़ पायेंगे’। हुआ भी ऐसा ही, सिर्फ कुछ मुट्ठी भर सैनिकों की सहायता से रानी ईश्वरी कुमारी ने अंग्रेजों को तब तक रोके रखा, जब तक की बेगम अपने विश्वासपात्रों के साथ वहां से सुरक्षित नहीं निकल गईं। रानी को पता था कि वो अंग्रेजों को रोक सकती हैं, लेकिन हरा नहीं सकती। इसलिए जैसे ही उनको बेगम के निकलने की जानकारी मिली, उन्होंने भी वहां से निकलना ही ठीक समझा। रानी ईश्वरी कुमारी का निर्वासन के बाद अंतिम समय नेपाल में बीता। उनकी मृत्यु भले ही गुमनामी में हुई हो, लेकिन उनकी वीरता के कारण वो तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियो को भी बहुत याद आती थीं। यह बातें उस समय के अंग्रेज अधिकारीयों द्वारा लिखे गए दस्तावेजों से सिद्ध होती है।

चौहान रानी

अनूपनगर साम्राज्य के राजा प्रताप चंडी सिंह और चौहान रानी की कोई संतान नहीं थी। अंग्रेजों के नए नियम के अनुसार जिन भारतीय शासकों के कोई संतान नहीं थी, उन्हें गुलामी स्वीकार करनी होती थी। जैसे ही राजा की मृत्यु हुई, चौहान रानी ने साम्राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली। किन्तु अंग्रेजों ने इस राज्य को गुलाम बनाने का फरमान निकाल दिया था। अंग्रेजों को अनूपनगर का साम्राज्य तो मिल गया, लेकिन चौहान रानी नहीं मिलीं। वो तो अपने साम्राज्य को फिर से स्वतंत्र कराने का स्वप्न लिए निकल चुकी थीं। चौहान रानी अवसर की तलाश में थीं। उन्हें यह अवसर 1857 की क्रांति के समय मिला। अंग्रेज कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रहे थे। इस कारण उनके लिए एक जगह सारी शक्ति लगा पाना संभव नहीं था। इसका लाभ उठाकर चौहान रानी ने अपने विश्वासपात्र लोगों की सहायता से सेना का गठन किया और अनूपनगर को स्वतंत्र कराने के लिए धावा बोल दिया। अंग्रेज सेना के सभी सैनिकों को चौहान रानी ने मौत के घाट उतार दिया और अनूपनगर फिर स्वतंत्र हो गया। रानी का अनूपनगर के खजाने और वहां रखे अंग्रेजों से शस्त्रों पर भी अधिकार हो गया। जब तक अंग्रेजों को 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष को दबाने में सफलता नहीं मिली, अनूपनगर स्वतंत्र साम्राज्य बना रहा। यह स्वतंत्रता लगभग 15 महीने तक रही। अंग्रेज धीरे-धीरे अपने खोये हुए साम्राज्य को वापस लेने में सफलता प्राप्त कर रहे थे और 1858 के अंत तक लगभग सभी जगह उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को क्रूरतापूर्वक दबा दिया था। इसका असर अनूपनगर पर भी पड़ा। राज्य एक बार फिर अंग्रेजों के आधीन हो गया, लेकिन इस बार भी चौहान रानी को अंग्रेज पकड़ने में सफल नहीं हो सके। अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव के कारण चौहान रानी गुमनामी में चली गईं। कुछ स्थानों पर ऐसा उल्लेख मिलता है कि चौहान रानी को आजीवन स्वतंत्रता से प्रेम था, इसलिए वो जंगल में चली गईं और वहीं उन्होंने स्वयं को समाप्त कर लिया, जिससे अंग्रेजों को उनका शरीर भी न मिले।

ऊदा देवी

भारतीय वीरांगनाओं ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल पुरुषों के साथ हर मोर्चे पर कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। यदि सिर्फ इनके शौर्य के बारे में बात की जाए तो किसी भी दृष्टि से इन्हें पुरुषों से कम नहीं कहा जा सकता है। ऐसी ही एक वीरांगना थीं ऊदा देवी। लखनऊ के सिकंदर बाग को लगभग 2000 भारतीय सैनिकों ने अपनी शरणस्थली बनाया हुआ था। 16 नवंबर 1857 को जब अंग्रेजों ने इस स्थान पर हमला बोला, तो पुरुष वेश में एक स्त्री ने पेड़ पर चढ़ कर अंग्रेजों को तब तक रोके रखा जब तक की उनंकी मृत्यु नहीं हो गई। यह वीरांगना थीं ऊदा देवी। अंग्रेज अधिकारी सार्जेंट फ़ोर्ब्स मिशेल ने रेमिनिसेंसेज ऑफ द ग्रेट म्यूटिनी में लिखा है कि सिकंदर बाग में पीपल के पेड़ पर बैठे एक व्यक्ति ने अंग्रेजों के कई सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। जब उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को देखा गया, तब पता चला की वो एक स्त्री हैं। उनके पास पुराने पैटर्न की भारी कैवलरी पिस्तौल थीं, गोलियों से भरी एक पिस्तौल उनके अंतिम समय तक उनकी बेल्ट से बंधी हुई थी। ऊदा देवी के पास उपलब्ध थैली में अभी भी आधा गोला-बारूद था। संभव है कि ऐसी अन्य वीरांगनाएं भी वहां हो, ऊदा देवी सबसे आगे अंग्रेजों को रोकने का प्रयास कर रही थीं, इसलिए उनके बारे में तो फिर भी उल्लेख मिलता है, लेकिन अन्य एक भी नाम उपलब्ध नहीं हैं। ऊदा देवी की वीरता के बारे में उस समय लंदन टाइम्स के तत्कालीन संवाददाता विलियम हावर्ड रसेल ने लिखा था कि एक पुरुष वेश वाली स्त्री ने पीपल के पेड़ से अंग्रेजों पर फायरिंग कर अंग्रेजी सेना को भारी नुकसान पहुंचाया है। ऊदा देवी के पति मक्का पासी भी एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनकी मृत्यु अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए हुई थी। इसके बाद ऊदा देवी का यह अद्भुद शौर्य उनके पति के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में भी देखा जाता है। सिकंदर बाग में भारतीय सैनिकों से मुकाबला करने के लिए अंग्रेज अधिकारी काल्विन कैम्बेल के नेतृत्व में कानपुर से सेना भेजी गई थी। काल्विन ऊदा देवी की इस वीरता से इतना अधिक प्रभावित हुआ था कि उसने ऊदा देवी की मृत्यु के बाद उन्हें अपनी हैट (टोपी) उतारकर श्रद्धांजलि दी थी।

मंगल पाण्डेय की फांसी के बाद तेज हुआ संघर्ष

अंग्रेज जिस प्रकार भारतीय राजाओं से सत्ता छीन रहे थे। कहीं उत्तराधिकारी विवाद को पैदा कर, तो कहीं कोई अन्य कारण बता कर। इस कारण इन सभी में अंग्रेजों के खिलाफ भारी असंतोष था। कुछ स्थानों पर संघर्ष भी देखने को मिला। अभी तक हमने जिन भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बारे में पढ़ा, उनका सीधा सम्बन्ध मंगल पाण्डेय के बलिदान के बाद शुरू हुए सशस्त्र संघर्ष से नहीं था। यद्यपि उनके प्रमुख संघर्ष का कालखंड यही था। इसके बाद भी यह बात ध्यान देने वाली है कि अंग्रेज सरकार और भारतियों के बीच होने वाले इन संघर्षों में तेजी मंगल पाण्डेय को फांसी देने के बाद ही आई। अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय को 10 दिन पहले फांसी दी, इससे स्पष्ट हैं कि उन्हें भी इस बात की भनक लग गई थी की अब माहौल उनके विरुद्ध है। मंगल पाण्डेय के द्वारा विद्रोह की घोषणा करने के बाद पैदा हुए माहौल से अंग्रेजों को डर लगने लगा था।

29 मार्च 1857 को जब गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूसों को बांटा जा रहा था, तो मंगल पाण्डेय ने इसका विरोध किया। अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय की वर्दी और हथियार छीन लेने का आदेश दे दिया। जब अंग्रेज अधिकारी मेजर ह्यूसन आगे बढ़ा, तो मंगल पाण्डेय ने उसे मौत के घाट उतार दिया। इसमें उनकी सहायता ईश्वरी प्रसाद ने की। इसके बाद मंगल पाण्डेय ने एक दूसरे अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट बॉब को भी मार डाला। जनरल जान हेएरसेये के अनुसार जब अंग्रेजों ने जमीदार ईश्वरी प्रसाद से मंगल पाण्डेय को गिरफ्तार करने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया। वहां उपस्थित भारतीय सैनिकों ने भी ऐसा करने से मना कर दिया, सिर्फ एक सैनिक शेख पलटु सामने आया। इस कारण अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय के साथ ही ईश्वरी प्रसाद को भी गिरफ्तार कर लिया। 6 अप्रैल 1857 को कोर्ट मार्शल कर मंगल पाण्डेय को 18 अप्रैल 1857 को फांसी देने का निर्णय सुनाया गया। इसके बाद अंग्रेजों को एक और झटका तब लगा, जब बैरकपुर छावनी में तैनात जल्लादों ने मंगल पाण्डेय को फांसी देने से ही मना कर दिया, इसके बाद अंग्रेजों को कोलकाता से जल्लाद बुलाने पड़े। इससे डरे अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय को 10 दिन पहले 8 अप्रैल 1857 को ही फांसी दे दी। इसके कुछ दिन बाद ही 21 अप्रैल 1857 को उनका सहयोग करने के आरोप में ईश्वरी प्रसाद को भी अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया। इन दोनों क्रांतिकारियों के संघर्ष का समय भले ही कुछ घंटे या कुछ दिन रहा हो, लेकिन इस बलिदान की चर्चा किसी आग की तरह पूरे देश में फैल गई। परिणाम यह हुआ कि जगह-जगह अंग्रेज सरकार से संघर्ष शुरू हो गया। सभी अपने-अपने स्तर पर इस लड़ाई को आगे बढ़ा रहे थे, लेकिन कोई एक सक्षम नेतृत्वकर्ता न होने के कारण यह प्रयास लगभग एक वर्ष तक चलने के बाद अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया।

राव कदम सिंह

मेरठ से क्रांति के अग्रिम ध्वज वाहक मंगल पाण्डेय थे। भले ही उनके विद्रोह के समय उन्हें पर्याप्त समर्थन नहीं मिला, जिसके कारण उनका बलिदान हो गया, किन्तु इस चिंगारी ने इसी शहर के एक और क्रांतिकारी राव कदम सिंह को और अधिक क्रियाशील बना दिया। राव का प्रमुख प्रभाव मवाना, हिस्तानपुर और बहसूमा क्षेत्र में था। यह मेरठ शहर के पास का क्षेत्र था। इनकी प्रमुख पहचान सफेद पगड़ी थी। यह इस बात का प्रतीक थी कि वो अपना कफन साथ रखते हैं अर्थात मृत्यु के लिए सदैव तैयार रहते हैं। वे परीक्षतगढ़ के अंतिम राजा नैनसिंह के भाई के पौत्र थे। उनके साम्राज्य में 349 गांव थे। 1818 में नैनसिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने इस साम्राज्य को हथिया लिया था। राव सहित मेरठ के क्रांतिकारियों को जैसे ही मंगल पाण्डेय के विद्रोह की सूचना मिली। इन लोगों ने अंग्रेजों की संचार और यातायात व्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया। संभव है कि ऐसी ही प्रतिक्रियाओं से डरकर अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय को 10 दिन पूर्व ही फांसी दी हो। राव कदम सिंह की वीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन मेरठ के कलक्टर आर.एच. डनलप ने अपने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को बताया कि क्षेत्र के क्रांतिकारियों ने राव कदम सिंह को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया है। उन्होंने अपने क्रन्तिकारी भाई दलेल सिंह के साथ मिलकर अंग्रेज पुलिस को परीक्षतगढ़ से हटने के लिए मजबूर कर दिया। इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के मददगारों पर हमला बोल दिया। कुछ गद्दारों को छोड़ दें, तो लोग राजपरिवार से होने के कारण राव कदम सिंह को  अपना राजा मानते लगे थे। कदम सिंह के रूप में उन्हें अपने बीच का एक राजा मिल गया था। राव को पता था कि अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए उन्हें अधिक से अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए उन्होंने अपने भाईयों दलेल सिंह, पिर्थी सिंह और देवी सिंह के साथ मिलकर बिजनौर में संघर्ष कर रहे देशभक्तों से हाथ मिला लिया। इस संयुक्त दल ने बिजनौर के मंडावर, दारानगर और धनौरा क्षेत्रों पर हमला बोलकर वहां से अंग्रेजों को मारकर भगा दिया। अंग्रेजों राव कदम सिंह के बढ़ते प्रभाव से भयभीत थे, इसलिए उन्होंने मेजर विलयम्स को जिम्मेदारी दी। उसने 4 जुलाई 1857 को हमला बोल राव कदम सिंह को परीक्षतगढ़ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और बहसूमा से अंग्रेजों के विरुद्ध नया मोर्चा खोल दिया। राव कदम सिंह के समर्थक क्रांतिकारियों ने 18 सितंबर को मवाना पर बड़ा हमला बोला लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद राव ने बिजनौर जाकर संघर्ध जारी रखा। उन्होंने बिजनौर के साथ ही मुजफ्फरनगर और हरिद्वार तक अंग्रेजों को जगह-जगह उलझाए रखा। लेकिन दूसरी ओर बिजनौर और बरेली सहित विभिन्न स्थानों पर क्रांतिकारियों की हार के कारण उनको मिलने वाला समर्थन लगातार कम हो रहा था। इस कारण यह वीर सपूत गुमनामी की चादर में कहीं खो गया। अंग्रेजों द्वारा उन्हें पकड़ने के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। अतः यह तो निश्चित है कि राव कदम सिंह अंत तक स्वतंत्र ही रहे।

कोतवाल धन सिंह

8 अप्रैल को मंगल पाण्डेय को फांसी दी जा चुकी थी। इससे अंग्रेजों की मुश्किल कम होने की जगह बढती चली गई। बैरकपुर से शुरू हुई यह क्रांति सबसे पहले आस-पास के क्षेत्रों में फैली। धन सिंह उस समय मेरठ की सदर कोतवाली के प्रमुख थे। मेरठ से कोतवाल धन सिंह ने 10 मई 1857 को एक बड़ा विद्रोह किया। उन्होंने सबसे पहले अंग्रेज सरकार के विश्वासपात्र सैनिकों को कोतवाली के भीतर ही रहने का आदेश दिया। इसके बाद रात 2 बजे जेल से 836 कैदियों को छोड़ दिया और जेल में आग लगा दी। ये कैदी भी अंग्रेजों से संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों के साथ मिल गए। इनमें से कई क्रन्तिकारी मेरठ के आस-पास अंग्रेजों से होने वाले संघर्षों में शामिल रहे। लेकिन अंग्रेजों ने इस घटना के लिए कोतवाल होने के कारण धन सिंह को जिम्मेदार मानते हुए 4 जुलाई 1857 को फांसी दे दी। मेरठ गजेटियर के अनुसार 4 जुलाई को ही पांचली में विद्रोह को दबाने के लिए 56 घुड़सवार, 38 पैदल सैनिक और 10 तोपों के साथ अंग्रेजों ने हमला कर सैकड़ों किसानों को मौत के घाट उतार दिया। यह नरसंहार दशहरे तक निरंतर चलता रहा। एक उल्लेख से पता चलता है कि अंग्रेजों ने दशहरे के दिन ग्राम गगोल को पूरी तरह से नष्ट कर दिया और उसी दिन 9 ग्रामीणों को पकड़कर फांसी दे दी। पहले मंगल पाण्डेय और फिर कोतवाल धन सिंह इन दोनों के बलिदान ने उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में स्वतंत्रता आंदोलन में नई ऊर्जा का संचार किया। धन सिंह गुर्जर समाज से आते थे, इसलिए उनका दमन करने के चक्कर में अंग्रेजों ने बड़े स्तर पर इस समाज को नाराज कर दिया। इसके बाद यह भी देखने को मिला कि 1857 में जहां भी गुर्जर समाज सशक्त हुआ, उसने वहां अंग्रेजों से लोहा लिया।

 

राव उमरावसिंह

राव उमरावसिंह उत्तर प्रदेश के दादरी भटनेर साम्राज्य के राजा थे। उनके पूरे परिवार ने 1857 की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण योगदान दिया। राव उमरावसिंह का सहयोग उनके पिता किशनसिंह के भाई राव रोशनसिंह और उनके बेटे राव बिशनसिंह ने दिया। 1857 के विद्रोह से प्रेरणा लेकर इस परिवार ने आस-पास के ग्रामीणों को साथ लेकर 12 मई 1857 को सिकंदराबाद तहसील पर हमला कर दिया और यहाँ के हथियारों व खाजाने पर इनका अधिकार हो गया। बुलंदशहर से अंग्रेज सेना ने हमला कर दिया। एक सप्ताह तक दोनों में संघर्ष होता रहा, किन्तु अंत में 46 क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी से इस प्रयास में राव उमरावसिंह को हार का सामना करना पड़ा, लेकिन वो वहां से निकलने में सफल रहे। उमरावसिंह ने इसके जवाब में 21 मई को बुलंदशहर जिला कारागार पर हमला बोलकर अपने सभी साथियों को छुड़ा लिया। बाहर से सेना पहुंचने के कारण अंग्रेज मजबूत हो गए, 30 मई को दो दिन तक उमरावसिंह व अंग्रेजी सेना में हिंडन नदी के तट पर संघर्ष हुआ, इसमें अग्रेजों को हार का सामना करना पड़ा। 26 सितम्बर 1857 को कासना-सूरजपुर के मध्य उमरावसिंह और अंग्रेजों के बीच संघर्ष हुआ। तब तक अंग्रेज कई स्थानों पर क्रांति को दबा चुके थे। इसका असर उमरावसिंह और अंग्रेजों की सेना पर भी पड़ा। राव की हार हुई, उन्हें गिरफ्तार कर साथियों के साथ फांसी पर लटका दिया गया। इसी प्रकार सहारनपुर के फतुआसिंह, सीकरी खुर्द के शिब्बासिंह, मेरठ के निकट गगोल गांव के नम्बरदार झुंडसिंह, गुरुग्राम (गुडगाँव) के हिम्मत सिंह खटाणा, भजन सिंह, दिल्ली के दयाराम, बिजरोल के बाबा शाहमल सिंह, धौलपुर की देवहंस कषाणा (देवा), हापुड़ के चौधरी कन्हैया सिंह व चौधरी फूल सिंह, राव दरगाही सहित विभिन्न अन्य नाम हैं, जिनका उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक है।

मेरठ से निकलकर पूरे देश में पहुंचा आंदोलन

1857 में पहले मंगल पाण्डेय और फिर कोतवाल धनसिंह दोनों ने सैन्य विद्रोह की जो शुरुआत की, उसके बाद देश के विभिन्न स्थानों से संघर्षों के समाचार आने लगे। उस समय भारत छोटे-छोटे हजारों साम्राज्यों में बंटा हुआ था। लार्ड डलहौजी की हड़प नीति के कारण 1848 से 1857 तक सैकड़ों राजाओं के साम्राज्य और जमीदारों की जमीदारी चली गई थी। इसलिए सभी में असंतोष था। ये सभी पूरे देश में फैले थे। इसके आलावा विभिन्न स्थानों पर आम जनता अपने स्थानीय नेतृत्वकर्ताओं के साथ अंग्रेजों से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही थी। जिसको भी मेरठ विद्रोह की सूचना मिली, वो इस संघर्ष में जुड़ता चला गया। जैसे-जैसे लोग जुड़ रहे थे, यह समाचार भी तेजी से पूरे देश में फ़ैल रहा था। इस कारण अंग्रेजों को देश के हर भाग में भारी विद्रोह का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश में बैरकपुर, मेरठ, कानपुर, लखनऊ, झाँसी, बुंदेलखंड के अन्य क्षेत्र, बरेली, बनारस व प्रयागराज (इलाहबाद) आदि क्षेत्र प्रमुख थे। दिल्ली, बंगाल (उस समय असम, जो बाद में पूर्वोत्तर के कई अन्य राज्यों में बंट गया इसी रेजीडेंसी में आता था), बिहार (झारखण्ड सहित), पंजाब (भारत और पाकिस्तान दोनों का संयुक्त प्रदेश), हरियाणा, मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़ सहित) , राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश (तेलंगाना सहित), कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल आदि विभिन्न प्रदेश के देशभक्तों ने अंग्रेजों को नर्क के दर्शन करवा दिए थे। भारत का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा, जहाँ से किसी ने भी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष नहीं किया। कुछ भारतीय राजा और जमींदार अंग्रेजों के साथ थे, लेकिन उनके आस-पास कोई न कोई ऐसा क्षेत्र था ही, जो अंग्रेजों से मुक्ति चाहता था। जन आंदोलन बन जाने के कारण इसका प्रभाव नेपाल, अफगानिस्तान, भूटान और तिब्बत आदि एशिया के विभिन्न क्षेत्रों में भी बड़े पैमाने पर देखने को मिला। हम पहले ही पढ़ चुके हैं कि किस प्रकार नेपाल भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के लिए शरण स्थली का काम कर रहा था। मैं इसे जनआन्दोलन इस लिए भी कह रहा हूं क्योंकि इसमें तत्कालीन कई वेश्याओं ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया है। कई स्थानों पर स्वतंत्रता सेनानियों को ऐसे वीरों या वीरांगनाओं का साथ मिला, जिन्होंने इस आंदोलन में साथ देने के लिए ही हथियार उठाये और संघर्ष किया, तो कुछ लोगों ने विभिन्न अन्य रूपों में सहायता प्रदान की। यदि ये लोग ऐसा नहीं करते, तो शायद जीवित रह पाते, लेकिन स्वतंत्रता सेनानियों की सहायता करने के कारण इन्हें मौत मिली, लेकिन इन लोगों ने उसे भी हंसते-हंसते स्वीकार किया।

नील विद्रोह की पृष्ठभूमि

अंग्रेजों ने पहले कोलकाता को अपनी राजधानी बना रखा था। इस कारण पश्चिम बंगाल कई क्रांतिकारी घटनाओं का गवाह बना। इनमें से एक था नील विद्रोह। इसे मैं क्रांतिकारी घटना इस लिए कह रहा हूं क्योंकि गांधी जी के इस आंदोलन में शामिल होने से पहले तक किसानों और उनके समर्थकों ने अंग्रेजों का हर उपलब्ध माध्यम से विरोध किया। इसे सशस्त्र विरोध भी शामिल था। अंग्रेजों भारत से नील ब्रिटेन ले जाकर वहां इसका प्रयोग छपाई में करते थे और उसके बाद हमारे ही कच्चे माल से तैयार कपड़े हमें ही बेचते थे, इसलिए उन्हें भारतीय नील की बहुत आवश्यकता थी। इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि 1810 ईस्वी तक अंग्रेज अपनी आवश्यकता का 95 प्रतिशत तक नील भारत से ले जाने लगे थे। ब्रिटेन में भारतीय नील की मांग को देखते हुए कई अंग्रेज स्वयं अपने शासन का सहयोग लेकर जमींदारों और किसानों से जबरन नील की खेती करवाते थे। इस कारण जमीदारों के आधीन मजदूरों और किसानों को बहुत परेशान किया जाता था। अंग्रेजों के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जबरन भारतीय किसानों व मजदूरों को नील की खेती करने के लिए विवश किया जाता था। ऐसा न करने पर उन्हें यातनायें दी जाती। उनके साथ मारपीट की जाती। किसानों की जमीन छीन कर उन्हें अपनी ही जमीन पर मजदूर बना दिया जाता था। यह क्रम कई दशकों तक चलता रहा। इसके बाद किसानों और मजदूरों ने भी विद्रोह के लिए कमर कस ली।

1858 का नील विद्रोह

1855 आते-आते नील की खेती से जुड़े किसान और मजदूर इन अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष का मन बना चुके थे। पश्चिम बंगाल और बिहार में पहले 1855 का संथाल विद्रोह और बाद में 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज डरे-सहमे थे। वो और कोई बड़ा विर्दोह नहीं चाहते थे, जो उनके लिए नई परेशानी का कारण बने। किन्तु धन की उनकी भूख भी शांत नहीं हुई थी। इस कारण नील की खेती से अधिक लाभ कमाने की उनकी मंशा अभी भी उनसे अत्याचार करवा रही थी। बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गांव में सितंबर 1858 में दिगंबर विश्वास और विष्णु विश्वास के नेतृत्व में नील की खेती बंद कर दी गयी। एक वर्ष के अंदर पूरे बंगाल और फिर बिहार से भी ऐसी ही विभिन्न घटनाओं के समाचार मिलने लगे। 1859 में जब यह आंदोलन व्यापक हुआ, तो इसमें कई पत्रकार और बुद्धीजीवी भी शामिल हो गए। इस कारण अब यह विद्रोह सिर्फ किसानों या मजदूरों का नहीं रहा, यह तो जनआंदोलन बन चुका था। उस समय तक अंग्रेजों के पास ऐसा कोई साधन या व्यक्ति नहीं था, जिससे वो इन उग्र आंदोलनकारियों को अहिंसा के रास्ते पर ला सकें। अतः उन्होंने एक आयोग गठित कर इन अत्याचारों के लिए तत्कालीन जमींदारों को दोषी सिद्ध करते हुए अपना बचाव किया। साथ ही एक आदेश पारित कर दिया कि कोई भी किसी को नील की खेती के लिए बाध्य नहीं कर सकता है। वास्तविकता इसके बिल्कुल उलट थी। अंग्रेज स्वयं जमींदारों को इन किसानों और मजदूरों से नील की खेती करने के लिए विवश करते थे। उधर अंग्रेजों ने 1860 तक 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को पूरी तरह से कुचल दिया था, लेकिन वो फिर से इन सबके लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार नहीं थे। इसलिए कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि अंग्रेजों के अत्याचार किसानों और मजदूरों पर बंद हो गए हैं। लेकिन धीरे-धीरे ये फिर बढ़ने लगे। इसी का परिणाम था कि 1905-08 तक संथाल जैसा ही एक और सशस्त्र विद्रोह मोतिहारी और बेतिया में हुआ। पहले 1855 और फिर 1905 अंग्रेज समझ गए थे कि यदि नील की खेती से लाभ लेते रहना है, तो इन किसानों और मजदूरों के द्वारा किये जाने वाले सशस्त्र विरोध से स्वयं को सुरक्षित रखना होगा। लगभग 8 वर्षों बाद ही अंग्रेजों को यह सुख भी मिला। 1916 में बिहार के नील आंदोलन में किसानों और मजदूरों का नेतृत्व करने के लिए गांधी जी को आमंत्रित किया गया। गांधी जी 1917 में बिहार के चंपारण पहुंचे और उन्होंने आंदोलनकारी किसानों में जोश भरने की जगह उन्हें अहिंसा का पाठ पढ़ाया और शांति से काम लेने की सीख दी। गांधी जी कांग्रेस के बड़े नेता थे। उनके पीछे कांग्रेस के साथ-साथ कई बड़े किसान (एक प्रकार से जमींदार) थे। एक पूरा अधीयान चलाया गया और किसानों व मजदूरों का यह आंदोलन अब राजनीति का विषय बन गया। इसके बाद चर्चा किसानों-मजदूरों और अंग्रेजों की जगह मध्यस्थ कांग्रेस के साथ होने लगी। इसके बाद अपने अधिकारों के लिए नील की खेती करने वाले किसानों ने कभी कोई सशस्त्र आंदोलन नहीं किया। इसकी परिणिति यह हुई कि जहां 1857 के बाद अंग्रेज कई बार झुकते हुए नजर आये थे, वहीं अब वो निश्चिन्त हो गए कि नील विद्रोह के कारण अब उनकी जान को किसी भी प्रकार का खतरा नहीं है। कुछ इतिहासकार नील आंदोलन को 1860 में ही सफल घोषित कर देते हैं। यदि ऐसा है तो फिर 1917 में गांधी जी को चंपारण जा कर वहां किसानों को अंग्रेजों के विरुद्ध हिंसा न करने के लिए मनाने की क्या जरुरत थी? वास्तव में 1917 में नील आन्दोलन बिना बरछी, बिना ढाल के सिर्फ शब्दों के चक्रव्यूह में उलझाकर कुचल दिया गया। भोले-भाले किसान राजनीति नहीं जानते थे, उन्हें तो सिर्फ खेती आती थी। अंग्रेजों ने इसी का लाभ उठाया।

संथाल विद्रोह

इतिहास में संथाल विद्रोह या पहाड़ी विद्रोह का विवरण मिलता है। इस विद्रोह में प्रमुख रूप से बंगाल के मुर्शिदाबाद और बिहार के भागलपुर जिलों की बात सामने आती है। इन लोगों की सहायता से 1855 में संथाल में वहां के लोगों ने सशस्त्र विद्रोह किया। इसके पीछे का एक कारण जहां अंग्रेजों द्वारा इस क्षेत्र पर अतिक्रमण था, तो वहीं दूसरा कारण नील की खेती था। वही नील की खेती जिसके कारण बाद में पूरे बंगाल और बिहार ने अंग्रेजों से लोहा लिया। इस विद्रोह में सैकड़ों संथालवासियों ने अंग्रेजों पर हमला बोलकर उन्हें भारी नुकसान पहुंचाया था। इसलिए यह पूरा आंदोलन असहयोग के साथ-साथ सशस्त्र विरोध से भी भरा हुआ था।

कूका विद्रोह

अंग्रेज ये तो चाहते थे कि उनके विरुद्ध कोई सशस्त्र आंदोलन न हो, लेकिन वो अत्याचार करना भी नहीं छोड़ते थे। जब तक गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत नहीं आये, तब तक अंग्रेजों के पास ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था, जो लोगों को अहिंसात्मक तरीके से आंदोलन करने के लिए प्रेरति करता। जिससे अंग्रेजों का अत्याचार और आंदोलन दोनों के एक साथ चलने पर भी ब्रिटेन की महारानी को कोई समस्या नहीं होती। इसी कारण समय-समय पर अंग्रेजों को इन अत्याचारों की सजा अपनी जान देकर भुगतनी पड़ी। ऐसा ही एक आंदोलन था 1871 में हुआ कूका विद्रोह। इस विद्रोह में सिखों की नामधारी परंपरा के 7 लाख से अधिक सिख वीर शामिल थे। गुरु रामसिंह जी के नेतृत्व में हुए कूका विद्रोह के प्रभाव को इस बात से समझा जा सकता है कि इन क्रांतिकारियों ने उस समय के पंजाब को 22 जिलों में बांटकर अपनी सामानांतर सरकार चलाना शुरू कर दी थी। अंग्रेजों को गाय का मांस बहुत अच्छा लगता था। इस कारण उन्होंने गौ वध के लिए पंजाब में भी कई स्थानों पर बूचड़खाने खुलवा रखे थे। गुरु बालक सिंह और उनके शिष्य गुरु रामसिंह के नेतृत्व में नामधारी परंपरा के सिखों ने इसका विरोध करने का निर्णय लिया। इस कूका दल ने 15 जून को पहले अमृतसर और फिर एक महीने बाद रायकोट में बूचड़खानों पर धावा बोलकर गायों को स्वतंत्र करवा लिया। इसके बाद यह क्रम आगे बढ़ता गया, लेकिन साथ ही अंग्रेजों का दमन चक्र भी शुरू हो गया। अंग्रेज कूका विद्रोह में शामिल सिखों को सरेआम फांसी देते थे। अंग्रेजों को उम्मीद थी कि इससे सिख डर जायेंगे। लेकिन जिनका जन्म ही देश के लिए बलिदान होने के उद्देश्य से हुआ हो, वो मौत से कैसे डर सकते थे। अंग्रेज इस आंदोलन के पंजाब से बाहर निकलने से पहले इसे दबा देना चाहते थे। इसके लिए अंग्रेजों ने किस प्रकार का नरसंहार किया, इसका एक उदहारण मालेरकोटला की घटना से मिलता है। 15 जनवरी 1872 को हीरा सिंह और लहिणा सिंह के जत्थे ने मालेरकोटला पर धावा बोल दिया। यहां के परेड ग्राउंड में अंग्रेजों ने इन वीरों से मुकाबला करने के लिए 9 तोपों को मंगाया था। अंग्रेजों ने किस प्रकार यहां अत्याचारों की हर सीमा को पार कर दिया, इसको समझने के लिए हमें जत्थे के साथ चल रहे 12 वर्षीय बच्चे बिशन सिंह के बलिदान का ध्यान करना होगा। अग्रेजों ने उसके सर को धड़ से अलग कर दिया। उसका दोष सिर्फ इतना था कि उसके अंदर भी वही देशभक्ति थी, जो अन्य सिख वीरों में थी। सिखों में वीरता की कोई कमी नहीं थी। वो किसी भी बलिदान के लिए सदैव आगे रहते थे, इसके बाद भी यह आंदोलन विफल हो गया। इसके पीछे का एक कारण यह समझ में आता है कि अंग्रेजों से लम्बे समय तक संघर्ष कर पूर्ण स्वतंत्रता किस प्रकार प्राप्त की जाए, इस दिशा में विचार नहीं किया गया। जो भी रणनीति बनी, वो तात्कालिक परिस्थित को ही ध्यान में रखकर तय की गई। उसके दूरगामी परिणामों पर मंथन ही नहीं हुआ।

वासुदेव बलवंत फड़के का मुक्ति संग्राम

जैसा कि हम पहले भी यह बता चुके हैं कि समय-समय पर देश के अलग-अलग भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष होते रहे। ऐसा ही एक मुक्ति संग्राम महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में चलाया गया था। वासुदेव का जन्म 4 नवंबर 1845 को हुआ था। बहुत कम आयु में ही अंग्रेजों के किसानों पर हो रहे अत्याचारों से व्यथित होकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। उनका मानना था कि अंग्रेजों को देश से निकालकर यहां स्वराज्य स्थापित करने के बाद ही भारतियों को राहत मिल पायेगी। इसके लिए उन्होंने सशस्त्र आंदोलन को चुना। फड़के छापामार युद्ध के सहारे अंग्रेजों पर हमले करते और उन्हें बड़ी हानि पहुंचा कर फिर गायब हो जाते। उन्होंने इस प्रकार के हमलों के लिए रामोशी के नाम से संगठन बनाकर नाईक, धनगर, कोली और भील आदि जातियों के लोगों को अपने साथ लिया था। इस मुक्ति संग्राम का परिणाम यह हुआ कि कुछ दिनों तक पुणे नगर उनके कब्जे में आ गया था। अंग्रेजों को यह पता चल चुका था कि वासुदेव बलवंत फड़के को युद्ध में हराना संभव नहीं है। इसलिए अंग्रेजों ने 1879 को बीजापुर में सोते समय पकड़कर उन्हें काला पानी की सजा सुना दी। यहां अंग्रेजों ने फड़के को इतने कष्ट दिए कि उन्हें 17 फरवरी 1883 वीरगति प्राप्त हुई।

कांग्रेस स्थापना से बंग भंग आंदोलन के प्रारंभ तक (1885 से 1905 तक)

कांग्रेस स्थापना और उसके प्रारंभिक वर्ष

अंग्रेज भले ही सफल रहे हों, लेकिन उनको भारत में अपना अस्तित्व संकट में नजर आने लगा। इसलिए वो नहीं चाहते थे कि भविष्य में कभी भी ऐसा कोई सशस्त्र आंदोलन खड़ा हो। इसके लिए उन्हें एक ऐसा संगठन चाहिए था, जो भारतियों को अपना सा लगे, लेकिन वो भारत को सशस्त्र आंदोलन से दूर कर दे। अंग्रेज अधिकारी एओ ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना कर ब्रिटिश सरकार को यह अवसर प्रदान किया। इस अंग्रेज अधिकारी ने 28 दिसंबर 1885 को कांग्रेस की स्थापना की। एओ ह्यूम का कांग्रेस स्थापना से पहले ऐसा कोई इतिहास नहीं मिलता है, जिससे यह कहा जा सके कि ह्यूम को भारत की स्वतंत्रता या भारतियों के हितों की कोई चिंता थी। इसको और गहराई से समझने के लिए ह्यूम के बारे में थोड़ा और जानना आवश्यक है क्योंकि इतिहास मान्यताओं पर नहीं बल्कि तथ्यों पर लिखा जाता है। ह्यूम 1849 में इटावा का कलेक्टर बनकर आया। यह उनकी पहली तैनाती थी। उसने अपनी तैनाती के बाद जो काम सबसे पहले किया, उसमें से एक था ह्यूमगंज नामक क्षेत्र की स्थापना कर वहां बाजार का निर्माण। इसका उद्देश्य अंग्रेजों के लिए एक व्यापारिक केंद्र का निर्माण करना था। यह स्थान बाद में होमगंज के नाम से भी जाना गया। विशेष बात यह है कि यह अंग्रेज अधिकारी किसी और के नाम पर भी व्यापारिक क्षेत्र का नामकरण कर सकता था, लेकिन उसने अपना ही उपनाम चुना। इससे उनकी महत्वकांक्षा का पता चलता है। जब 1857 का स्वतंत्रता संग्राम हुआ तो 17 जून 1857 को ह्यूम को साड़ी पहनकर इटावा से भागना पड़ा। ह्यूम अंग्रेजों के वफादार भारतियों के सहयोग से छुपा रहा और इन्हीं भारतियों के सहयोग से वो 1858 में इटावा आया। उसने आते ही सबसे पहले 131 क्रांतिकारियों को फांसी देने का काम किया। इसके बाद वो भारत के विभिन्न हिस्सों में अधिकारी रहा, लेकिन अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा के कारण उसने 1882 में त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उसने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और व्योमेशचन्द्र बनर्जी के साथ मिलकर 1884 में इंडियन नेशनल यूनियन नामक संगठन का निर्माण किया, यही संगठन बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से जाना गया। एओ ह्यूम की मानसिकता को समझने के लिए इन दोनों के बारे में भी समझना होगा। अंग्रेज हेनरी कॉटन कहते हैं कि सुरेंद्रनाथ बनर्जी अपने शब्दों के सहारे किसी आंदोलन को खड़ा भी कर सकते हैं और किसी आंदोलन को दबा भी सकते हैं। उस समय सभी आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध होते थे, फिर सुरेन्द्रनाथ ने किस आंदोलन को दबाया, जिसके बारे में हेनरी ने कहा था। यह एक रहस्य है। अंग्रेजों के द्वारा कई बार सुरेंद्रनाथ को भारत के बारे में ब्रिटिश संसद और अंग्रेजों को जानकारी देने के लिए लंदन भी एक प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में भेजा जाता था। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि उन्हें यह अंग्रेज भक्ति अपने पिता डॉ. दुर्गा चरण बनर्जी से मिली थी। अंग्रेजों ने 1909 में ब्रिटिश सरकार द्वारा लाये गए मार्ले-मिन्टों सुधार का समर्थन करने के लिए उन्हें सर की उपाधि दी थी। यह सुधार मुस्लिमों को सत्ता में अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उन्हें आरक्षण प्रदान करता था। इन विचारों के साथ सुरेन्द्रनाथ दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने। ह्यूम के दूसरे साथी थे व्योमेशचन्द्र बनर्जी। व्योमेश भी वर्ष में कई बार ब्रिटेन जाते-रहते थे। कभी-कभी तो वो वर्ष में छः महीने तक ब्रिटेन में ही रहते थे। यह क्रम वर्षों तक चलता रहा और अंत में वे ब्रिटेन में ही बस गए। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनका नाम भले ही हिन्दू था, लेकिन उन्होंने ईसाई संप्रदाय अपना लिया था। यद्यपि उनकी इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार बिना किसी धार्मिक पद्धति का पालान किये हुआ था। उनकी पत्नी हेमांगिनी के भी ईसाई बनने का विवरण मिलता है। इससे स्पष्ट है कि कांग्रेस की स्थापना की पृष्ठभूमि में जो लोग थे, उनमें से अधिकांश या तो ईसाई थे या अंग्रेज भक्त।

वरिष्ठ इतिहासकार कृष्णानंद सागर के अनुसार कांग्रेस के गठन से पहले ह्यूम ने कई वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों व पूर्व अधिकारियों से इस पर विस्तृत चर्चा की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि ह्यूम कांग्रेस में अंग्रेज अधिकारियों का मार्गदर्शन भी चाहता था, लेकिन बाद में यह तय हुआ कि वार्षिक अधिवेशन एक रूप में भारतीयों को अंग्रेजों पर भड़ास निकालने का कार्यक्रम आयोजित किया जायेगा, इसलिये प्रत्यक्ष रुप से अंग्रेज अधिकारियों का इससे जुड़ना ठीक नहीं है। इसके बाद भी प्रारंभिक कुछ वर्षों तक कांग्रेस को अंग्रेज अधिकारीयों का पूरा खुला समर्थन और सहयोग रहा। इसको समझने के लिए सबसे पहले कांग्रेस स्थापना के दिन कैसा वातावरण था? 27 दिसंबर 1885 को सभी अंग्रेज भक्तों को मुंबई बुलाया गया। यहां ह्यूम का सहयोग करने के लिए विलियम बेडरवर्न, न्यायाधीश जार्डाइन, कर्नल फिलिप्स और प्रोफेसर वर्डस्वर्थ आदि पहले ही पहुंच चुके थे। देश के विभिन्न स्थानों से आये 72 लोग 28 दिसंबर 1885 में गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज में उपस्थित हुए। इनके साथ ही 28 अंग्रेजों की उपस्थिति में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई। क्या कांग्रेस को भारतियों के हितों के संरक्षण के लिए बनाया गया था, जैसा कि उसके समर्थक दावा करते हैं? इस दावे की वास्तविकता को समझने के लिए कांग्रेस की स्थापना के समय उसका सदस्य बनने के लिए जो शर्ते थीं, उन पर ध्यान देना चाहिए। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति निष्ठा, ब्रिटिश महारानी और उनके साम्राज्य की दीर्घायु के लिए कामना करना तथा अंग्रेजी समझने, पढ़ने और लिखने का ज्ञान। जिस दिन कांग्रेस की स्थापना हुई उस दिन ह्यूम ने उस अधिवेशन के प्रारंभ में ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया का जयकारा न लगवाने पर दुःख व्यक्त किया था। इस अपराध बोध से भरे ह्यूम ने सभी से तीन-तीन बार ब्रिटिश महारानी की जय-जयकार करने के लिए कहा। ह्यूम को इस आग्रह से भी संतोष नहीं हुआ, उसने 27 बार सभी से महारानी की जय बुलवाई। इतिहास में ऐसे भी उदहारण मिलते हैं कि प्रारंभिक कुछ वर्षों तक अंग्रेज सरकार ने कांग्रेस को खड़ा करने के लिए हर संभव सहायता दी। एओ ह्यूम ने जिस कांग्रेस की स्थापना की थी, वो सिर्फ वार्षिक अधिवेशन कर अंग्रेजों को कोसती थी और उसके बाद फिर भारत की जनता को अंग्रेज शासन के हवाले छोड़ देती थी। इसके पीछे का एक कारण यह था कि इन अधिवेशनों का खर्च प्रारंभ में अंग्रेज द्वारा ही दिया जाता था। कांग्रेस के मुंबई में हुए प्रथम अधिवेशन में आये लोगों को स्टीमरों पर अरब सागर की सैर करायी गई थी। उन्हें एलिफैन्टा की गुफाओं के भ्रमण की भी व्यवस्था की गई। तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लार्ड डफरिन ने कांग्रेस के कोलकता में हुए दूसरे अधिवेशन में आये प्रतिनिधियों को शाही भोज करवाया था। चेन्नई में हुए कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में आये प्रतिनिधियों को स्थानीय गवर्नर ने सरकारी भवन में शानदार पार्टी दी थी। यदि कांग्रेस एक देशभक्त पार्टी थी, तो अंग्रेज सरकार उसके प्रतिनिधियों को इतना सहयोग क्यों कर रही थी? इससे यह स्पष्ट है कि कांग्रेस की स्थापना अंग्रेजों का सहयोग करने के लिए की गई थी। ऐसे में दो प्रश्न उठते हैं, पहला कांग्रेस ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो अभियान चलाये, उनका क्या? क्या सभी कांग्रेसी अंग्रेज भक्त थे?  तो दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बाद में कांग्रेस के अंदर कुछ देशभक्त भी सदस्य बन गए। इन देशभक्तों के कारण ही कांग्रेस में गरम दल और नरम दल नाम से दो गुट बन गए। कांग्रेस में यह बदलाव एओ ह्यूम के समय ही शुरू हो गया था। ह्यूम ने 1894 में भारत छोड़ दिया था और लंदन वापस आ गया और दक्षिणी लंदन में ही 1912 में उसका देहांत हो गया। यदि ह्यूम को भारत से इतना ही लगाव था, तो वो कांग्रेस स्थापना के कुछ ही वर्ष बाद लंदन क्यों चला गया? यह एक बड़ा प्रश्न है। इसके पीछे का कारण समझने के लिए कांग्रेस ने प्रारंभिक काल में भारत के लिए क्या किया इस पर एक नजर डालनी होगी। 1885 में कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने उमेशचन्द्र बनर्जी, उनके बारे में हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। 1886 में कांग्रेस के दूसरे अध्यक्ष बने दादा भाई नौरोजी, वो बाद में 1892 से 95 तक ब्रिटेन में सांसद रहे। उन्होंने अपना लम्बा समय ब्रिटेन में बड़े सम्मान के साथ बिना किसी कष्ट के बिताया। जो देश भारतियों पर इतने जुल्म कर रहा था, वो दादा भाई को इतनी सुविधाएं क्यों प्रदान कर रहा था, यह समझने की जरुरत है। बदरुद्दीन तैयब कांग्रेस के तीसरे राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। उन्होंने मुस्लिमों की शिक्षा के लिए अंजुमन ए इस्लाम नाम की संस्था बनाई। कांग्रेस के लोग एक मुस्लिम चेहरा खोज रहे थे, उन्हें लगा की उनकी खोज पूरी हो गई, लेकिन वो शायद गलत थे। पेशे से वकील बदरुद्दीन जब जज बने तो उन्होंने जो कुछ फैसले लिए उनमें से एक बाल गंगाधर तिलक को देशद्रोह के आरोप में जमानत देना भी था। जबकि तिलक उस गरम दल से जुड़े थे, जो क्रांतिकारियों का समर्थन करते थे, जबकि कांग्रेस संस्थापक ह्यूम और बाद में गांधी जी क्रांतिकारियों के समर्थन को हिंसा फ़ैलाने वालों का सहयोग मानते थे। यही वह विचार था जिसने धीरे-धीरे कांग्रेस में दो गुट बना दिए। एक गुट जहां यह मानता था कि अंग्रेजों को देश छोड़ने की कोई जरुरत नहीं है, सिर्फ थोड़े से सुधार के लिए प्रयास करना ही पर्याप्त है। सशस्त्र विद्रोह से देश का माहौल खराब होता है। इस हिंसा से अराजकता का वातावरण निर्माण होता है। ह्यूम ने कांग्रेस स्थापना के समय यही विचार भारतियों में भरने का प्रयास किया था, जिसे बाद में गांधी जी ने आगे बढ़ाया। दूसरा विचार यह था कि अंग्रेजों के भारत से जाने पर ही देश का भला हो सकता है, इसके लिए क्रांतिकारियों का मार्ग भी ठीक है। बाद में इस विचार को गरम दल के बाल, लाल और पाल ने कांग्रेस में आगे बढ़ाया, तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस से अलग होकर इसका विस्तार किया। कांग्रेस जैसे-जैसे नए लोगों को जोड़ने का प्रयास कर रही थी। उसके साथ कई ऐसे लोग भी जुड़ने शुरू हो गए, जिनकी शिक्षा या जीवन का कुछ समय तो ब्रिटेन में बीता, लेकिन उनके मन में अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने का स्वप्न था। इसी स्वप्न के बल पकड़ने पर ह्यूम को भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया। ह्यूम कांग्रेस स्थापना के समय स्वयं कांग्रेस का महासचिव मन था और उसने एक भारतीय को अध्यक्ष बनाया, जिससे कांग्रेस की स्वीकार्यता भारत में अधिक हो। किन्तु ऐसा लगता है कि उसका यह प्रयास प्रारंभ में अधिक सफल नहीं हो सका। इसीलिए 1904 तक जार्ज यूल, बिलियम वेडरबर्न, अल्फ्रेड वेब व हेनरी कॉटन कांग्रेस के अध्यक्ष बने। जार्ज यूल लंदन में जार्ज यूल एंड कंपनी का संस्थापक था और वो उन अंग्रेज व्यापारियों में शामिल था, जो भारत अपनी व्यापारिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आये थे। वो भारत आने के बाद कोलकाता में एंड्रयू यूल कंपनी का अश्यक्ष बना। विलियम वेडरबर्न को अंग्रेजों ने सर की उपाधि दी थी। वो 1893 से 1900 तक ब्रिटेन में सांसद रहा। वो वहां की लिबरल पार्टी का नेता था। उसकी मृत्यु भी ब्रिटेन में ही हुई। इससे पहले वह भारत में मुंबई की ब्रिटिश सरकार में मुख्य सचिव भी रहा और उसके बाद कांग्रेस ने उसे 1889 में अपना अध्यक्ष चुना था। अल्फेड वेब भी ब्रिटेन में 1890 में सांसद चुना गया। दादा भाई नौरोजी ने कांग्रेस से जोड़ा और बाद में उसे 1894 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया। उसका देहांत भी ब्रिटेन में ही हुआ। 1904 में कांग्रेस का अध्यक्ष बना हेनरी कॉटन भी ब्रिटेन की लिबरल पार्टी का प्रमुख नेता था। उसे भी अंग्रेजों ने सर की उपाधि दी थी। वह ब्रिटेन का कितना वफादार था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसकी पांच पीढ़ियों ने ब्रिटिश प्रशासन में रहते हुए वहां की सरकार के लिए काम किया था। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस से जुड़े हुए अंग्रेजों में अधिकांश कभी न कभी ब्रिटेन की राजनीति में सक्रिय रहे। इसके अतिरिक्त कुछ पहले ब्रिटिश सरकार में बड़े पदों पर रहे, तो कुछ भारत अपने व्यापारिक हितों को पूरा करने के लिए आये। इनमें से कोई भी ऐसा नहीं था, जिस पर उसके अंग्रेज साथियों ने ही उत्पीड़न किया हो और इस कारण वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ा वास्तव में यह प्रयास कांग्रेस पर अंग्रेजों की ढीली होती पकड़ को फिर से मजबूत करने का था, जिसमें अंग्रेजों के वफादार कांग्रेसियों ने उनका साथ दिया। अंग्रेज कांग्रेस अध्यक्षों की पृष्ठभूमि देख कर तो ऐसा ही लगता है।

कांग्रेस में बना नरम और गरम दल

एओ ह्यूम और कांग्रेस स्थापना के प्रारंभिक वर्षों को देख कर लगता है कि यह राजनितिक दल अंग्रेजों की एक मुखौटा संस्था थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में ह्यूम को क्रंक्तिकारियों के कारण महिलाओं की वेशभूषा पहनकर इटावा से भागना पड़ा था। यदि वह ऐसा नहीं करता तो क्रांतिकारी उसकी जीवनलीला को समाप्त भी कर सकते थे। इसलिए ह्यूम और उसके द्वारा स्थापित कांग्रेस का क्रांतिकारियों के बारे में क्या विचार होगा, इसे समझा जा सकता है। कालांतर में गांधीजी ने पहले गोल मेज सम्मलेन में अंग्रेजों से किये समझौते में तत्कालीन क्रांतिकारियों को हिंसा फैलाने वाला कहकर संबोधित किया गया था। अर्थात गांधीजी ने भी ह्यूम के पदचिन्हों पर चलकर ही कांग्रेस का संचालन हो यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया और वे भारत को खंडित स्वतंत्रता मिलने तक इसमें सफल भी रहे । इतने ह्यूम से लेकर गांधीजी तक इतने षडयंत्रों के बाद भी डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसे महान देशभक्त कभी कांग्रेस का हिस्सा रहे थे या यों कहें की कांग्रेस से ही निकले थे, तो यह गलत नहीं होगा।

कांग्रेस की स्थापना के समय चुन-चुन कर ऐसे भारतियों को शामिल किया गया था, जो अंग्रेज भक्त हों। लेकिन सिर्फ इतने लोगों से पूरे भारत का प्रतिनिधित्व हो जायेगा, ऐसा संभव नहीं था। कांग्रेस के अधिवेशन हर वर्ष होने लगे। अग्रेजों की सहायता से इनका प्रचार-प्रसार भी  अधिक से अधिक किया जाता था। इस कारण ज्यादा लोग इन अधिवेशनों और कांग्रेस से जुड़ने लगे। क्योंकि ऐसा दिखाने का प्रयास किया जाता था कि कांग्रेस अंग्रेजों से भारतियों को उनके अधिकार दिलाने का प्रयास कर रही है, इसलिए बाद में जुड़ने वाले कई लोग देश भक्ति की भावना से जुड़ने लगे। इनमें से बलिदानी भगत सिंह जैसे कुछ लोगों का कांग्रेस की नीतियों से मोह भंग हो गया और वो क्रांतिकारी बन गए या अन्य कोई मार्ग अपना लिया। भगत सिंह कभी कांग्रेस के सदस्य नहीं रहे , लेकिन जलियांवाला बाग नरसंहार से पहले तक वो कांग्रेस समर्थक थे। एक ऐसा गुट भी था, जिसने कांग्रेस के अंदर रह कर संघर्ष करने का निर्णय लिया। इसे गरम दल के नाम से जाना गया। नरम दल में वो लोग थे, जो किसी भी कीमत पर अंग्रेजों को शारीरिक या आर्थिक नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे। उनके स्वराज्य का मतलब अंग्रेजों की गुलामी को स्वीकार करते हुए उनके आधीन ही राजनीति करना था जबकि गरम दल के स्वराज्य का मतलब पूरी तरह से अंग्रेज मुक्त भारत था।

गरम दल के प्रमुख नेता बाल, लाल और पाल अर्थात बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चन्द्र पाल थे। कांग्रेस में गरम दल की स्थापना करना सरल नहीं था। वैसे तो ऐसा माना जाता है कि बंग भंग के बाद कांग्रेस में गरम दल और नरम दल के रूप में विभाजन स्पष्ट रूप से दिखने लगा, लेकिन इसके लिए तैयारी बहुत पहले से चल रही थी। इसके बारे में जानने के लिए हमें बाल, लाल और पाल के विषय में कुछ जानकारियां कर लेनी होगी। बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को वर्तमान महाराष्ट्र के चिखली नामक गांव में हुआ था। उनके द्वरा अंग्रेजी में मराठा और मराठी में केसरी नामक दैनिक समाचार पत्रों का संचालन कांग्रेस में जाने से पूर्व ही किया जा चुका था। 4 जनवरी 1881 को केसरी का प्रकाशन शुरू हुआ और इसने अपने पहले अंक से ही अंग्रेजों के खिलाफत प्रारंभ कर दी, इसी प्रकार मराठा में भी बिना अंग्रेजों का बचाव किये सीधे हमले किये जाते थे। तिलक 1890 में इस आस के साथ कांग्रेस से जुड़े कि उनके विचारों को और समर्थन मिलेगा। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। कांग्रेस में आने के बाद भी उन्होंने अपनी लेखनी से अंग्रेजों पर प्रहार करना जारी रखा। उनके द्वारा केसरी में देश का दुर्भाग्य नामक एक लेख लिखा, इसमें अंग्रेज सरकार की तत्कालीन नीतियों की पोल खोलने का प्रयास किया गया था। यह लेख अंग्रेजों की मंशा और उस छवि के बिल्कुल उलट था, जो अब तक कांग्रेस ने बनाने का प्रयास किया था। इसके परिणाम स्वरूप तिलक को 27 जुलाई 1897 को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर 6 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुना दी। अंग्रेज इसी प्रकार के कुछ अन्य प्रकरणों से इतने डर गए कि उन्हें 1857 की स्थिति का निर्माण होने का खतरा नजर आने लगा। इसलिए अंग्रेजों ने 1898 में धारा 124 ए में संशोधन तथा दण्ड संहिता में नई धारा 153 ए जोड़कर अपने विरुद्ध बोलने को अपराध घोषित कर दिया। प्राम्भ के कुछ वर्ष उन्होंने कांग्रेस को समझने के लिए दिए और धीरे-धीरे अपनी सामान विचारधारा वाले लोगों का समूह बनाने का प्रयास करने लगे, यही समूह बाद में गरम दल के नाम से जाना गया।

लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी 1865 को तत्कालीन पंजाब प्रान्त के दुधिके नामक स्थान पर हुआ था। वैसे तो लाजपत राय की पहचान पंजाब नेशनल बैंक के संस्थापक और कांग्रेस के गरम दल के नेता के रूप में है, लेकिन वो इन सबसे भी पहले क्रांतिकारियों के समर्थक और हिन्दू मान्यताओं के संरक्षक के रूप में अपनी पहचान बनाना प्रारंभ कर चुके थे। 1880 में जब लाजपत राय लाहौर वकालत की पढाई पढ़ने के लिए गए तो वो लाला हंसराज और पंडित गुरुदत्त के संपर्क में आये। लाला हंसराज कालांतर में अंग्रेजों का विरोध करने  के कारण वर्षों तक जेल में रहे, तो वहीं पंडित गुरुदत्त सनातन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में साहित्य साधना करते रहे ।  इन दोनों के साथ ही उस समय लाजपत राय का जुड़ाव स्वामी दयानंद से हुआ और उन्होंने बाद में इसी कारण पंजाब में आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेज इनके विचारों और कार्यों से कितना भयभीत रहते थे, इसका एक उदहारण तब मिलता है, जब अंग्रेजों के सैनिक इन पर लाठियों से इतने प्रहार करते हैं कि उनकी मौत ही हो जाती है। जबकि गांधीजी पर किसी अंग्रेज सैनिक ने भूलकर भी एक लाठी चलाई हो, इसका उदहारण इतिहास में नहीं मिलता है। 17 नवंबर 1928 को जब लाठीचार्ज कर उनकी हत्या कर दी गई, तब कांग्रेस की जगह क्रांतिकारियों ने उनकी मृत्यु का बदला लिया। इसी से समझा जा सकता है कि लाला लाजपत राय का व्यक्तित्व किसके अधिक निकट था।

बिपिन चन्द्र पाल का जन्म वर्तमान बांग्लादेश के हबीबगंज जिले में 7 नवंबर 1858 को हुआ था। विदेशी उत्पादों और कारखानों का विरोध वास्तव में विपिन चन्द्र पाल की ही योजना का अंग था, जिससे अंग्रेजों की अर्थव्यवस्था को खंडित किया जा सके, जिसे बाद में गांधीजी ने अपनाया और इसे विस्तार देने का श्रेय लिया। कांग्रेस और भारत के सामने सबसे पहले स्वदेशी की कल्पना बिपिन चन्द्र पाल ही लेकर आये थे। अब यह प्रश्न उठ सकता है कि बिपिन ने ऐसा कब किया। तो 1887 में कांग्रेस का मद्रास अधिवेशन हुआ था। अभी कांग्रेस की स्थापना को अधिक समय नहीं हुआ था, इसलिए अधिकांश नेता अंग्रेज परस्त ही थे, किन्तु फिर भी इस अधिवेशन में बिपिन चन्द्र पाल जैसे कुछ देश भक्त अपनी जगह बनाने में किसी तरह सफल हो गए थे। यहां कांग्रेस में पहली बार स्वदेशी की बात बिपिन चन्द्र पाल ने रखी थी। उस समय इस बात को किसी ने कांग्रेस की विचारधारा के अनुरूप ही किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया, किन्तु बिपिन के मन में यह कल्पना जिंदा रही। बाद में बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय के साथ मिलकर उन्होंने इसे साकार करने का काम तेज किया था। कुछ पाठकों के मन में यह प्रश्न आ सकता है कि अंग्रेजों ने ऐसे क्रन्तिकारी विचार वाले व्यक्ति को अधिवेशन में बुलाया ही क्यों था? वास्तव में अंग्रेज चाहते थे कि भारतियों का गुस्सा कांग्रेस के अधिवेशन में निकल जाए और इन्हीं अधिवेशनों में क्रन्तिकारी विचारों को दबा दिया जाए। बिपिन को भी इसी उद्देश्य से अधिवेशन में बुलाया गया था, तभी तो उस समय किसी ने उनकी बात पर कार्य प्रारंभ नहीं किया था।

सर सैयद अहमद खान ने 1886 में शुरू कर दी थी मुस्लिमों के लिए अलग संगठन की तैयारी

सर सैयद अहमद खान अंग्रेजों के यहां काम करते थे। जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सभी देशभक्त अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे, तो कई ऐसे लोग भी थे, जो अंग्रेजों को बचाने के लिए हर संभव प्रयास में लगे थे। इन्हीं में से एक थे सर सैयद अहमद खान। इन्होने उस समय कई अंग्रेजों को अपने घर पर शरण दी थी। इस कारण इन्हें भी तत्कालीन देश भक्तों के विरोध का सामना करना पड़ा था। इस काम में लगे उनके कई अंग्रेजों के समर्थक रिश्तेदारों को मौत के घाट उतार दिया गया। उनकी मां इस सबसे इतनी डर गईं की उन्होंने एक सप्ताह का समय घोड़ों के अस्तबल में बिताया । अंग्रेजों ने इसके बदले सैयद अहमद खान को कई प्रलोभन दिए जिससे वो अंग्रेजों के प्रतिनिधि के रूप में आगे भी काम करते रहें। किन्तु अंग्रेजों की तरह ही उन्हें भी क्रांतिकारियों का डर सता रहा था। इसलिए भयभीत सैयद भारत छोड़ कर मिश्र में बसने का मन बनाने लगे। फिर उनके ध्यान में आया कि वो तो चले जायेंगे लेकिन अन्य मुसलमानों का क्या होगा? इसलिए उन्होंने भारत में ही रहने का निर्णय लिया। उन्हें यह भी पता था की इस समय अंग्रेजों की सरपरस्ती के बिना कुछ भी बड़ा कर पाना संभव नहीं है, इसलिए वो अंग्रेजों की नौकरी पूरी निष्ठा के साथ करते रहे और इस कारण उनकी पदोन्नति होते-होते उन्हें 1868 में उन्हें बनारस का जज बना दिया गया।

अंग्रेज सैयद की वफदादी से प्रसन्न थे, क्योंकि इस समय तक सैयद अंग्रेजों को खुश करने के लिए अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का प्रचार-प्रसार भी कर रहे थे। इस कारण कई बार उन्हें तत्कालीन कट्टरपंथियों का विरोध भी झेलना पड़ा। लेकिन सैयद अहमद खान को पता था की बकरे को हलाल करने से पहले उसका ध्यान रखने की पुरानी परंपरा इस्लाम में है। यदि अंग्रेजों का भरोसा जीतना है, तो यह करना ही पड़ेगा। इसके साथ ही वो बड़ी चालाकी से इस्लाम का प्रचार-प्रसार करने के लिए मदरसों की स्थापना भी कर रहे थे, जिसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से इस्लामिक संस्कृति और सभ्यता को मजबूत करना था। उनका यह उद्देश्य बनारस के जज बनकर आने के बाद सार्वजनिक हो गया। 1886 में  इंडिया मुहमडन ऐजुकेशनल कॉन्फ़्रेंस के माध्यम से वो अपने इरादे स्पष्ट कर चुके थे, लेकिन उनके अंदर छुपी कट्टरता का अभी बाहर आना बाकी था। जब उन्हें बनारस का जज बनाया गया था, उसी समय कई जगह उर्दू के स्थान पर हिन्दी के प्रयोग को प्राथमिकता देने की मांग जोर पकड़ने लगी क्योंकि उर्दू पूर्ण रूप से भारतीय भाषा नहीं थी। सर सैयद इससे इतने नाराज हो गए कि उन्होंने इस्लाम के मुद्दे को धार देने का निर्णय ले लिया और तय किया कि अब हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात बेमानी है। अंग्रेजों के आने के बाद पहली बार किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने मुस्लिमों के लिए अलग विधान पर विचार शुरू किया जो बाद में पाकिस्तान के जन्म का कारण बना।

अग्रेजों ने उन्हें एक साधारण से लिपिक से प्रोन्नत करते हुए जज तक बनाया लेकिन पहले 1857 और बाद में 1868 के लगभग की घटनाओं के कारण उनका मन पूरी तरह से इस्लामिक कट्टरता से भर चुका था। अंग्रेजों के शासनकाल में एक जज का कद उन्हें जहां समाज में प्रतिष्ठा देता था वहीं उन्हें अपने अंग्रेज विरोधी विचारों को नियंत्रित करने के लिए मजबूर भी करता था। इस बीच वो इस्लामिक शिक्षण संस्थाओं का विस्तार लगातार कर रहे थे। इसी क्रम में उन्होंने 1875 में अलिगागढ़ में मदरसतुलउलूम की स्थापना की, जो शिक्षण संस्थान बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से जाना गया। 1876 में सर सैयद अहमद खान का सेवाकाल समाप्त हो गया। अब तक कांग्रेस अंग्रेजों के सहयोग से स्वयं को स्थापित करने में जुट चुकी थी। सैयद इस घटनाक्रम को भी समझ रहे थे, इसलिए उन्होंने भी इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए दो काम किये। पहला आधुनिक शिक्षा के लिए कुछ संस्थानों का निर्माण, जिससे अंग्रेजों को यह लगे कि वो उनके साथ हैं, दूसरा वो अंग्रेजों की नीतियों का विरोध तो करते थे, लेकिन अंग्रेजों को कभी इस्लाम के लिए खतरा नहीं बताते थे, जबकि दूसरी ओर उर्दू के स्थान पर हिन्दी के प्रयोग का विरोध करने जैसी बातों से वो अपनी कट्टर विचारधारा से हिन्दुओं पर प्रहार भी करते रहते थे। सैयद अहमद खान ने अपने शिक्षण संस्थाओं को मुस्लिमों के मध्य आधुनिक शिक्षा के बारे में जागरूकता लाने के लिए किये गए प्रयास के रूप में प्रचारित किया, लेकिन जैसे-जैसे उनके मिश्रित सिद्धांत (अंग्रेजों की सहायता से इस्लामिक मान्यताओं की स्थापना व इस्लाम का प्रचार-प्रसार) को मुसलामानों का समर्थन मिलने लगा। 27 मार्च 1898 को सर सैयद अहमद खान की मृत्यु हो गई। उन्होंने जो विचार मुस्लिमों के मन में भरे थे, तो आज भी जीवित हैं।

बंग भंग आंदोलन और ढाका में मुस्लीम लीग की स्थापना

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद से अंग्रेज सशस्त्र विद्रोह की कल्पना से भी डरने लगे थे, इसलिए वे चाहते थे कि भारतीय किसी भी सशस्त्र आंदोलन का साथ न दें। कांग्रेस को भारत के महत्वपूर्ण निर्णयों में भागीदार बनाकर उन्होंने ऐसा ही करने का प्रयास किया। कुछ वर्षों के बाद ही कांग्रेस के साथ कई ऐसे लोग जुड़ गए, जो भारत को अंग्रेजों से पूरी तरह मुक्त कराना चाहते थे। प्रारंभ में इन लोगों की आवाज को दबा दिया गया। यहीं से मतभेद, मनभेद में परिवर्तित होने लगे। कांग्रेस ने भारतीयों का ध्यान क्रांतिकारियों से हटाकर खुद पर करना शुरू कर दिया लेकिन उसके अंदर ही नरम दल और गरम दल नाम से दो खेमें दिखायी देने लगे। नरम दल में वे लोग थे, जो अंग्रेजों के आधीन रहते हुए भारतीय हितों की बात करने के पक्षधर थे। ये लोग क्रांतिकारियों से किसी भी प्रकार के संपर्क या उन्हें सहयोग देने के मुखर विरोधी थे।

दूसरी ओर गरम दल (बाल, लाल और पाल आदि) के लोग थे। ये लोग अंग्रेजों से भारत को मुक्त कराना चाहते थे। इनका मानना था कि क्रांतिकारी भी भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वे अछूत नहीं हैं। यहां एक बार पुनः इन बातों के बारे में बताना इसलिए जरुरी हो जाता है क्योंकि ऐसा प्रचारित किया जाता है कि बंग भंग का विरोध कांग्रेस और हिन्दू-मुस्लिम एकता के कारण असफल हुआ। जबकि कांग्रेस का गरम दल इस मामले में अधिक मुखर था। इसके आलावा मुस्लिम लीग के कारण मुसलमानों का एक बड़ा गुट तो विभाजन चाहता ही था। क्योंकि वो तो हमेशा मुसलमानों को प्रताड़ित और हिन्दुओं को प्रभावशाली बताता था। एक बार कांग्रेस का नरम दल दबाव पड़ने पर इस विभाजन को स्वीकार करने के लिए भी विचार कर सकता था, जैसा उन्होंने स्वतंत्रता के समय किया, लेकिन गरम दल की सक्रियता के कारण तत्कालीन नरम दल के लोगों के लिए ऐसा कर पाना संभव न हो सका।

इस गैर राजनितिक लगने वाले आंदोलन में अब मुखर होकर राजनीति करने लगी थी। 1901 आते-आते सर सैयद अहमद खान समर्थकों का वास्तविक एजेंडा सामने आने लगा और उन्होंने मुस्लिमों के लिए एक राजनतिक मंच की आवश्यकता पर बल देना शुरू कर दिया। शिक्षण संस्थाओं के नाम पर वो अपने समर्थकों और चंदे के नाम पर रुपये की व्यवस्था पहले ही कर चुके थे। क्योंकि सैयद कांग्रेस की तरह ही अग्रेजों को बिना बढ़ी हानि पहुंचाए काम कर रहे थे, इसलिए उनके समर्थकों को ब्रिटिश सत्ता का भी पूरा समर्थन प्राप्त था। कई मुस्लिम धर्म गुरु अंग्रेजों से उनकी निकटता के कारण नाराज रहते थे, इसलिए उन्हें मनाने के लिए कांग्रेस को हिन्दूवादी राजनितिक दल बताया और कांग्रेस से डराकर मुस्लिमों का ध्रुवीकरण जारी रखा। उन्होंने मुस्लिमों का ध्रुवीकरण इस प्रकार किया कि अंग्रेज भी नाराज न हों और मुसलमान भी उनसे खुश रहें। यही कारण था कि उन्होंने अपने भाषणों में इस्लाम की बात की, हिन्दुओं से डराया लेकिन कभी भी ईसाईयों की किसी मान्यता या गतिविधि पर प्रहार नहीं किया। जबकि उस समय अंग्रेज भी तेजी के साथ भारत में चर्चों का निर्माण कर रहे थे। ईसाईयों के धर्म प्रचारक लगातार भारत आकर यहीं अपना स्थायी निवास बना रहे थे। इसके बाद भी सैयद समर्थकों को सिर्फ हिन्दुओं से ही खतरा लगता था।

अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन के लिए प्रयास तो बहुत पहले से ही शुरू कर दिया था। 1905 में अंग्रेजों ने हिन्दू-मुस्लिम के आधार बंगाल का विभाजन कर दिया। उस समय अंग्रेजों ने अपनी राजधानी कोलकाता को बना रखी थी, इसलिए बड़ी संख्या में बंगाल क्रांतिकारियों की कर्मभूमि भी था। उनके सशस्त्र प्रयासों से अंग्रेज  देश पर कभी चिंता मुक्त होकर राज्य नहीं कर पाए थे। निश्चित रूप से उस समय बंगाल के कुछ क्रन्तिकारी मुस्लिम भी रहे होंगे। इसलिए अंग्रेजों को लगा की यदि बंग भंग के द्वारा हम हिन्दू-मुसलामानों में मतभेदों को और बढ़ा दें, तो क्रन्तिकारी प्रयासों को बड़ा झटका लगेगा। कांग्रेस का नरम दल क्रांतिकारियों को हिंसा समर्थक और स्वतंत्रता आंदोलन में बाधक बताता था। इसलिए वो भी चाहते थे कि क्रन्तिकारी आंदोलन से लोग दूर होकर कांग्रेस के निकट आयें।

इसके आलावा तब तक सर सैयद अहमद खान के समर्थक भी मुस्लिमों को हिन्दुओं से डराकर अपनी राजनितिक पृष्ठभूमि तैयार करने में तन-मन-धन से लगे हुए थे, इसलिए उन्हें मुस्लिमों के हिस्से में आने वाले बंगाल से सहायता ही मिलती। सर सैयद अहमद खान के अधिकांश समर्थक उत्तर प्रदेश से आये थे, इसके बाद भी साजिशन उन्होंने 1906 में बंगाल के ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना की। इन लोगों के द्वारा बंग भंग के समय ही उत्तर प्रदेश के स्थान पर बंगाल को स्थापना के लिए चुनना ही इनके उद्देश्य को स्पष्ट कर देता है। नवाब वाकर उल मुल्क कम्बोह, नवाब सलीमुल्ला खान और नवाब मोहसिन उल मुल्क जैसे लगभग 3000 प्रतिनिधियों ने मुस्लिम लीग की स्थापना करने के बाद सबसे पहले जो प्रस्ताव पारित किये उसमें बंग भंग का समर्थन करना और इसका विरोध करने वाले मुसलामानों को गुमराह हुआ मानना था।

किन्तु क्रन्तिकारी, गरम दल के लोग और कुछ नरम दल के बंगाली नेता बंग भंग के विरोधी थे। यह ठीक वैसा ही है, जैसे आज कई बार प्रदेश स्तर के कांग्रेसी नेताओं के विचार राष्ट्रीय स्तर की उनकी पार्टी लाइन से अलग चले जाते हैं क्योंकि उन्हें प्रदेश की जनभावनाओं के साथ दिखना जरुरी लगता है। उस समय के बंगाल के हिन्दू और कुछ मुस्लिम नहीं चाहते थे कि इस प्रकार का कोई बंटवारा हो।

19 जुअलाई 1905 को तत्कालीन वायसराय कर्जन ने बंगाल विभाजन के निर्णय ले लिया और इस पर 20 जुलाई 1905 को मोहर लग गई। 16 अक्टूबर 1905 से यह निर्णय लागू हो गया। ऐसा होते ही इसका विरोध पूरे देश में आरम्भ हो गया। 1908 आते-आते बंग भंग एक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में स्थापित हो चुका था। इस आंदोलन में आम जन के शामिल हो जाने के कारण इसे दबाने के लिए अंग्रेजों को 1857 से बहुत बड़ा नरसंहार करना पड़ता। मुस्लिम लीग का अंग्रेजों को समर्थन मिलने के बाद भी आंदोलन लगातार तेज होता रहा। इस कारण 1911 में अंग्रेजों को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा और बंगाल फिर से एक हो गया।

कुछ लोग यह कह सकते हैं कि बंगाल को फिर से एक करने में पूरी कांग्रेस लगी थी, उस समय नरम दल और गरम दल जैसा कोई विभाजन नहीं था। तो इसे स्पष्ट करने के लिए मैं उसी समय का एक उदहारण देना चाहता हूं। वरिष्ठ इतिहासकार कृष्णानंद सागर अपने एक लेख में लिखते हैं कि 1907 में कांग्रेस का अधिवेशन नागपुर में होना था, लेकिन गरम दल के लोगों के विरोध की संभावना के कारण इसका स्थान बदलकर सूरत कर दिया गया। गरम दल के लोग इस अधिवेशन का अध्यक्ष लोकमान्य तिलक को बनाना चाहते थे, लेकिन तिलक को सूरत अधिवेशन में बोलने तक नहीं दिया गया। कृष्णानंद सागर के अनुसार इस सभा में किसी प्रतिनिधि ने जूता फेका जो सुरेंद्रनाथ बनर्जी को छूता हुआ फिरोज शाह मेहता को लगा। इतिहासकार का दावा है कि इस अधिवेशन में कुर्सियां फेकी गईं और डंडे चले। मेरी जानकारी के अनुसार यह पहला अवसर था, जब कांग्रेस के अंदर नेतृत्व का इतना अधिक विरोध हुआ हो। जब कांग्रेस के अंदर ऐसे विरोध के स्वर निकल रहे हों, तो उस समय वह एकजुट होकर किसी आंदोलन को कैसे चला सकती है। यह विचार करने वाली बात है।

बंग-भंग आंदोलन के दौरान धर्म के आधार पर मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। उसने दो प्रान्तों को धर्म के आधार पर स्वीकार करने के लिए मुस्लिमों के बीच बड़ा अभियान चलाया और ऐसे मुस्लिमों को इस्लाम विरोधी तक बताना शुरू कर दिया, जो हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते थे। मुस्लिम लीग का आरोप था कि ये नेता हिन्दू पार्टी कांग्रेस के दबाव में राजनीति करने के कारण इस प्रकार का भ्रम फैला रहे हैं। मुस्लिम लीग ने भारत की स्वतंत्रता के समय देश विभाजन की मांग भी बंग-भंग के आधार पर ही की थी। इसलिए बंग-भंग, मुस्लिम लीग की स्थापना और भारत विभाजन ये तीनों आपस में जुड़ी हुई बाते हैं।

कांग्रेस में गांधी युग की शुरुआत

दे दी हमे आजादी बिना बरछी, बिना ढाल, सागरमति के संत तूने कर दिया कमाल। गांधी जी के लिए, उनकी प्रशंसा में उपरोक्त शब्द कहे गए हैं। भारत के इतिहास में, बचपन से विद्यार्थियों को यही पढ़ाया जाता रहा है कि हमें आजादी गांधी जी के प्रयासों से मिली। इसीलिए उन्हें राष्ट्रपिता की उपाधि भी दी गई है। किन्तु क्या आजादी में सिर्फ गांधी जी और कांग्रेस का ही योगदान था या फिर यह तो मात्र एक छलावा था। यद्यपि मैं गांधी जी के लिए किसी भी प्रकार के अपशब्दों के प्रयोग का समर्थन नहीं करता और न ही उनकी हत्या को सही मानते हैं।

महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को हुआ था। तब तक भारत में 1857 की क्रांति हो चुकी थी। यह एक सशस्त्र आन्दोलन था। अंग्रेजों का विरोध पहले भी हुआ करता था लेकिन 1857 को पहली बार इतने बड़े स्तर पर अंग्रेजी सेना के अंदर से विद्रोह हुआ था। शायद इसीलिए इसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। तब तक कांग्रेस की स्थापना भी नहीं हुई थी। इसके बाद 2 बड़ी घटनाये हुईं। 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई और 1888 में गांधी जी बैरिस्टर की पढ़ाई करने के लिए लंदन पहुंचे, यहीं से गांधी जी के विचारों का प्रकटीकरण शुरू हो गया।

इतिहासकार कृष्णानंद सागर के अनुसार गांधी जी गए तो पढ़ाई करने थे लेकिन वहां की जीवनशैली और अंग्रेजों से इतने अधिक प्रभावित हो गए कि उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति की चिंता न करते हुए अंग्रेजों की तरह ही वेशभूषा और रहन-सहन शुरू कर दिया। कुछ समय के बाद उनके पास पैसे खत्म होने लगे, उन्होंने अंग्रेजों की नकल करना तो छोड़ दिया लेकिन वे तब तक दिल से अंग्रेज बन चुके थे और इसकी छाप उनके आगे के पूरे जीवन में दिखाई दी।

 

गांधी जी अपनी पढ़ाई पूरी कर भारत वापस लौट आये। यहां उन्हें वकालत में कोई सफलता नहीं मिली। अचानक उन्हें एक व्यापारी के द्वारा दक्षिण अफ्रीका जाकर उनकी फर्म के लिए काम करने का प्रस्ताव मिला। 1893 में वे दक्षिण अफ्रीका पहुंच गए। अभी तक उनका संपर्क कांग्रेस से नहीं हुआ था। उधर कांग्रेस में दो फाड़ होते नजर आ रहे थे। एक पक्ष जो अंग्रेजों के आधीन रहते हुए सत्ता की मलाई प्राप्त करते रहना चाहता था और स्वयं को किसी विपक्षी दल के रूप में दिखाने के प्रयास को ही ठीक मानता था, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के अंदर से ही कुछ मुट्ठी भर लोग अंग्रेजों से पूर्ण स्वतंत्रता की मांग भी करने लगे थे।

ऐसा माना जाता है कि गांधी जी दक्षिण अफ्रीका गए तो उन्होंने वहां रह रहे अश्वेतों, विशेष रूप से भारतियों के जीवन को सुधार दिया। क्या वास्तव में ऐसा ही हुआ था या वास्तविकता कुछ और थी। इतिहासकारों ने यहीं से गांधी जी को एक नायक के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया, जो आगे चलकर गांधी जी के कांग्रेस में प्रवेश का आधार बना। गांधी जी ने कभी भी दक्षिण अफ्रीका को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए कोई आन्दोलन नहीं किया। वे हमेशा अंग्रेजों के बनाए नियमों के आधार पर अश्वेतों के लिए अधिकार की बात करते थे। वास्तव में लंदन में रहने के दौरान गांधी जी के मन में अंग्रेजों की छवि बनी थी कि वे बहुत न्यायप्रिय और अच्छे व्यक्ति होते हैं, इसलिए यहां भी उनका यही मानना था कि कुछ अंग्रेजों की गलतियों के लिए सभी को जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता।

भारत में कांग्रेस के अंदर अंग्रेज विरोधी दल सशक्त हो रहा था। विशेष रूप से बंग-भंग आंदोलन के बाद अंग्रेजों को लगने लगा था कि उन्होंने जिस उद्देश्य से कांग्रेस की स्थापना करवाई है, वह असफल हो जायेगा। यही वजह थी कि उन्हें ऐसे व्यक्ति की जरुरत थी, जो दिल से अंग्रेज हो और शरीर से भारतीय। जिसकी छवि भारतीयों के मन में अच्छी हो, जो भारतीयों के मन में अंग्रेजी सत्ता की स्वीकार्यता को स्थापित कर सके। अंग्रेजों को गांधी जी में ये सभी गुण दिखे, जिसे वो भारत में खोज रहे थे। यही वजह है कि गांधी जी को अंग्रेज समर्थक कांग्रेसियों की सहायता से भारत बुलाया गया।

गांधी जी 1915 में भारत वापस आ गए। उन्हें भारत लाने का माध्यम बने कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले, जिन्हें गांधी जी ने अपना राजनितिक गुरु माना। गांधी जी ने हमेशा कांग्रेस को एक राजनीतिक दल के रूप में देखा। वो कभी भी कांग्रेस को एक सामाजिक या धार्मिक संस्था नहीं मानते थे। गांधी जी की भारत वापसी तक मुस्लिमों ने अपने लिए अलग राजनितिक संगठन मुस्लिम लीग बना लिया था। इसका एक कारण यह था कि ये लोग कांग्रेस को हिन्दू संगठन मानते थे। अंग्रेज भी इस विचार से सहमत थे, तभी तो जब धर्म के आधार पर बंटवारे की बात हुई तो मुस्लिमों की ओर से मुस्लिम लीग और हिन्दुओं की ओर से कांग्रेस को बात करने के लिए बुलाया गया। यद्यपि न कांग्रेस और न ही गांधी जी कभी स्वयं को हिन्दू कहलाने पर गर्व का अनुभव करते थे।

गांधी जी की कांग्रेस पर पकड़ 1917 के चंपारण आंदोलन से और अधिक मजबूत हुई। इस आंदोलन का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं कि किस प्रकार अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बने चंपारण के सशस्त्र आंदोलन को गांधीजी ने अपनी वाकपटुता के सहारे समाप्त कर दिया। कई दशकों से चल रहे इस आन्दोलन को अंग्रेजों ने भी गांधी जी से समझौता कर दो हितों को साध लिया था। पहला उनके विरुद्ध एक सशस्त्र चुनौती समाप्त हो गई और दूसरा गांधी जी को भारत में स्थापित करने के लिए यह आंदोलन एक सफल माध्यम बना।

 

इस आंदोलन का एक बार फिर से उल्लेख करने का उद्देश्य यह है कि गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में क्या किया था, उसके बारे में अधिकांश भारतीयों ने अभी तक सिर्फ सुना ही था, लेकिन चंपारण आंदोलन से एक बड़े भारतीय वर्ग ने इसे देख भी लिया। अंग्रेज तो पहले ही दक्षिण अफ्रीका में देख चुके थे कि किस प्रकार गांधी जी ने बिना अंग्रेजी साम्राज्य को एक देश से हटने के लिए विवश किये स्वयं को वहां रह रहे भारतीयों और अश्वेत लोगों का नेता बना लिया था। इसलिए उनके मन में किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं था। इसी का परिणाम है कि जब अखिल भारतीय होम रूल के अध्यक्ष के नाम पर 1920 में विचार किया गया, तो गांधीजी के नाम पर सहमती बनी।

होमरूल आंदोलन

गांधी जी ने आते ही सबसे पहले जो कार्य किये, उनमें साबरमती के तट पर आश्रम का निर्माण था। ये एक प्रकार से गांधीजी का भारत में स्थापित पहला व्यक्तिगत कार्यालय था। इसी समय बाल गंगाधर तिलक के द्वारा स्वराज्य की स्थापना के लिए प्रयास शुरू हुआ, जिसे उन्होंने होमरूल आंदोलन नाम दिया। तिलक के द्वारा इसके प्रयास 1915 से प्रारंभ हो गए थे और 1916 आते –आते दो होमरूल की स्थपाना हो चुकी थी। पहला बाल गंगाधर तिलक ने पुणे होमरूल और दूसरा एनी बेसेंट ने मद्रास होमरूल की स्थापना की। ये दोनों ही संस्थाएं कांग्रेस की सहयोगी संस्था के रूप में कार्य करने लगीं। 1917 में होमरूल आंदोलन के लिए एक ध्वज भी तैयार किया गया।

कुछ लोगों ने मन में यह प्रश्न आ सकता है कि तिलक तो कांग्रेसी थे, फिर उन्हें अलग से संगठन बनाने की क्या आवश्यकता पड़ी। दरअसल बंग-भंग के असफल हो जाने के बाद अंग्रेज सरकार ने गरमपंथी कांग्रेसियों पर बड़ी कार्रवाई की थी। इसमें से एक बाल गंगाधर तिलक को 6 वर्ष का कारावास देना भी था। तिलक की रिहाई 16 जून 1914 को हुई। तब तक एक बार फिर कांग्रेस पर अंग्रेजों के प्रति नरम रहने वाले नरमपंथियों का कब्जा हो चुका था। कांग्रेस सिर्फ अधिवेशन कर अपने कार्य को पूर्ण मान लेती थी। यदि बंग-भंग के विरोध को छोड़ दें, तो कांग्रेस ने अभी तक किसी बड़े आंदोलन में सीधे भाग भी नहीं लिया था, स्वराज्य के बारे में सोचना तो दूर की बात थी। तिलक भी इस बात को जानते थे। उन्हें पता था कि यदि वो स्वराज्य की बात करेंगे, तो कांग्रेस कभी भी उसे स्वीकार नहीं करेगी।

दूसरी ओर एनी बेसेंट आयरलैंड की तरह भारत में भी भारतीयों की सत्ता चाहती थीं। यद्यपि अभी तक उनके स्वराज्य का मतलब अंग्रेजों को भारत से पूरी तरह निकालना नहीं था। बाल गंगाधर तिलक का साथ मिलने के बाद वो अपने इस यह विचार पर तेजी से कार्य करने लगीं। तिलक और बेसेंट दोनों का मानना था कि इस आंदोलन को राष्ट्रीय रूप देने के लिए इसे कांग्रेस का आंदोलन भी बनाना होगा। 19 फरवरी 1915 को गांधी जी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले का निधन हो गया। तब तक गांधी जी को कांग्रेस में आये अधिक समय नहीं हुआ था और उनके राजनैतिक गुरु की मृत्यु के कारण वो बहुत अधिक शक्तिशाली नहीं थे। इसका लाभ तिलक को मिला और उन्होंने एनी बेसेंट सहित विभिन्न गरम दल के लोगों की कांग्रेस में वापसी करवा दी। अखिल भारतीय होम रूल नाम से एक राष्ट्रीय संस्था भी अस्तित्व में आ गई। 1920 में बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु हो गई। गांधी जी अखिल भारतीय होम रूल के अध्यक्ष बने। अब पलटवार का अवसर नरमपंथियों के हाथ में था। गांधी जी ने बिना विलम्ब किये एक वर्ष के अन्दर अखिल भारतीय होम रूल का पूर्ण विलय कांग्रेस में करवा दिया।

अंग्रेजों और गांधी जी ने सोचा था कि ऐसा करते ही स्वराज्य का सिद्धांत ही समाप्त हो जायेगा। किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। स्वयं गांधीजी को भी भारतीयों का शुभचिन्तक बने रहने के लिए स्वराज्य की बाते कहनी शुरू करनी पड़ी। यद्यपि गांधीजी साथ-साथ यह भी समझाने का प्रयास करते रहे की उनके स्वराज्य का मतलब अंग्रेजों को भारत से भगाना नहीं है।

प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय

पहला विश्व युद्ध 28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक चला। उस समय ब्रिटिश साम्राज्य सबसे सशक्त था। संभव है कि उन्हें इस बात का अंदेशा हो गया हो कि ब्रिटिश सरकार को कोई बड़ा युद्ध लड़ना पड़ सकता है। गांधी जी को इस युद्ध के ठीक पहले ही दक्षिण अफ्रीका से भारत के लिए निकलना और फिर युद्ध के नाम पर ब्रिटेन में फंस जाना, इसके बाद युद्ध के मध्य ही भारत आगमन। ये सभी बाते मात्र एक संयोग थीं क्या? इस पर विचार करने की आवश्यकता है। अग्रेजों ने 1914 तक भारतीय सेना की संख्या को 2,40,000 तक पहुंचा दिया था। विश्व युद्ध के दौरान लगभग 8 लाख भारतीय सैनिकों और 4 लाख गैर सैनिकों ने भाग लिया था। इस विश्व युद्ध में 74,187 भारतीय सैनिकों की मृत्यु हुई थी। ब्रिटिश भारतीय सैनिकों की ताकत से पहले से परिचित थे।

अंग्रेज भारतीय सैनिकों का इस्तेमाल भारत में लम्बे समय से सशस्त्र आन्दोलनों को दबाने में कर रहे थे। 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कभी असफल नहीं होता, यदि सभी भारतीय सैनिक इसमें भाग लेते। विशेष बात यह है कि स्वयं को भारत  की स्वतंत्रता का सबसे अधिक श्रेय देने वाली कांग्रेस ने कभी भी भारतीयों के इस इस्तेमाल का विरोध नहीं किया। गांधीजी ने भी ना ही ब्रिटेन में रहने के दौरान और ना ही भारत आगमन के बाद इसे लेकर कोई आमरण अनशन किया। गांधीजी और कांग्रेस ने प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए हजारों भारतीयों के परिवारों को यह कहकर दिलासा जरुर दिया कि सभी भारतीय सैनिक अपनी इच्छा से युद्ध में शामिल हुए हैं, उन्हें अंग्रेजों ने युद्ध में जाने के लिए मजबूर नहीं किया था।

कांग्रेस में गांधीजी का बढ़ता प्रभाव

अंग्रेज भक्त कांग्रेसियों के सहयोग से गांधी जी को भारत लाया गया। 1924 में महात्मा गांधी को कांग्रेज का अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने देशवासियों को क्रांतिकारियों से जुड़ने के स्थान पर अहिंसक आंदोलन चलाने के लिये मनाया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस क्रांतिकारी विचारों के भी समर्थक कांग्रेसियों में से एक थे। जब नेताजी 1939 में दुबारा कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिये गए, तो गांधी जी ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उनका इस्तीफा करवा दिया। क्योंकि कांग्रेस किसी भी क्रांतिकारी विचारों के समर्थक को अपना अध्यक्ष नहीं बनाना चाहती थी। इसका नुकसान हमें स्वतंत्रता के समय देश विभाजन के रुप में चुकाना पड़ा। यह कांग्रेस की एक और बड़ी गलती थी।

कांग्रेस क्रांतिकारियों के बारे में क्या विचार रखती थी, उसकी देशभक्ति को समझने के लिये यह जानना बहुत जरुरी है। भगत सिंह को जब फांसी दी जाने वाली थी, तब कुछ क्रांतिकारी विचारों के समर्थक कांग्रेसियों ने गांधी जी से हस्तक्षेप कर इस फांसी को रुकवाने का अनुरोध किया। गांधी जी ने भगत सिंह को हिंसा फैलाने वाला बताकर मना कर दिया। इतिहासकारों के अनुसार क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद एक कांग्रेसी नेता से मिलकर सहायता मांगने गये। उन्हें बदले में मुखबरी मिली। अंग्रेजों को आजाद की वास्तविक स्थिति का पता बता दिया गया और फिर क्या हुआ सब जानते हैं। कांग्रेस ने स्वतंत्रता के समय अंग्रेजों के साथ समझौता किया था कि अंग्रेजों की आतंकवादी सूची में शामिल लोग बाद में भी मिलते हैं, तो उन्हें अंग्रेज सरकार को सौप दिया जायेगा। ये सूची वास्तव में उस समय जीवित होने की संभावना वाले क्रांतिकारियों की लिस्ट थी। इसे भी उसकी जानबूझकर की गई गलती मान सकते हैं।

भारत में हिन्दुओं के खिलाफ सांप्रदायिक दंगों का इतिहास स्वतंत्रता पूर्व से मिलता है। कांग्रेस ने तुष्टीकरण के लिये इन दंगों को हमेशा आपसी झड़प बताकर इसकी गंभीरता को कम करने का प्रयास किया। जब अब्दुल राशिद नाम के एक आतंकी ने अपनी दूषित मानसिकता के कारण स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और हिन्दू धर्म गुरु स्वामी श्रद्धानंद की हत्या कर दी, तो गांधी जी ने इसे जायज बताते हुये अब्दुल राशिद को अपना भाई और निर्दोष बताया। वास्तव में श्रद्धानंद सरस्वती क्रांतिकारी विचारों के समर्थक थे और हिन्दुओं के खिलाफ होने वाले सांप्रदायिक दंगों की खुलकर निंदा करते थे। सच आने वाली पीढ़ियां न समझ सके, इसलिये हिन्दुओं के विरुद्ध मोपला में सांप्रदायिक दंगों को अंग्रेजों के खिलाफ किये गए विद्रोह के रुप में इतिहासकारों से प्रचारित करवाया गया। मैं इसे भी कांग्रेस की गलती मानता हूं क्योंकि 1921 में हिन्दुओं के विरुद्ध हुये इन दंगों को छिपाने का प्रयास ही बाद में धर्म के आधार पर पाकिस्तान विभाजन का आधार बना। यह तुष्टिकरण आज भी जारी है और इसे छुपाने के लिए हिन्दू आस्था स्थलों के दौरे भी साथ-साथ चल रहे हैं।

1925 में तत्कालीन कांग्रेस विदर्भ के बड़े नेता डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम का संगठन बना लिया। इससे पहले कांग्रेस ने अंग्रजों को भारत छोड़ने के लिये कभी नहीं कहा था। वह हमेशा अंग्रेजों की गुलामी को स्वीकार करते हुये बेहतर जीवन की मांग करती थी। कांग्रेस का अहयोग आंदोलन भी वास्तव में खिलाफत आंदोलन का भारतीय प्रारुप था, जो उसने तुष्टीकरण के लिये शुरु किया था। गांधी जी ने 1921 में अंग्रेजी वस्त्रों को त्यागकर धोती पहन ली। कुछ इतिहासकारों के अनुसार गांधी जी ने पूर्ण स्वराज्य लाने के लिये एक वर्ष का समय मांगा था। इसके लिये धन संग्रह भी पूरे देश में किया गया। उस समय करोड़ों रुपये का चंदा इकट्ठा हुआ, तब एक रुपये रखने वाला व्यक्ति भी अमीर माना जाता था। इस चंदे का हिसाब न देना पड़े इसके लिये वस्त्रों का त्याग कर लोगों को धोखा देने का प्रयास किया गया। इसे भी कांग्रेस की गलती या धोखेबाजी कह सकते हैं। कई इतिहासकारों का यह भी दावा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने भी पहले अपनी बात कांग्रेस नेतृत्व को समझानी चाही, लेकिन जब उनकी आवाज को अनसुना कर दिया गया तो उन्होंने अलग गैर राजनीतिक संगठन बना लिया।

उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि कांग्रेस की स्थापना अंग्रेजों के आधीन रहकर सत्ता सुख भोगने के लिए हुई। जो भी व्यक्ति इसके बीच में आया, कांग्रेस ने उसकी आवाज बंद कर दी। यही कारण है कि मतभेद, मनभेद में बदलते चले गए। अंतर सिर्फ इतना है कि तब कांग्रेस सत्ता का भाग थी, इसलिए उसने सफलतापूर्वक अपने अन्दर के मनभेद पर विजय प्राप्त कर ली और आज विपक्ष में होने के कारण उसके सामने संकट खड़ा हो गया है। बात स्वतंत्रता आंदोलन से निकली है, तो उदाहरण भी वहीं से शुरु करता हूं। भारत में वाम दलों की शुरुआत कानपुर में 1925 से मानी जाती है। कुछ वामपंथी 1920 में एक अन्य स्थान पर इसकी स्थापना होने का दावा करते हैं। अतः ऐसा माना जा सकता है कि 1920-25 के बीच वामपंथ की शुरुआत भारत में हुई। वामपंथी दलों ने मजदूर हित की बात भारत में शुरु की तो उस समय के अंग्रेजों से विरोध हो गया। इस कारण भारत में वामपंथ को पहली बार पहचान मिली। अंग्रेजों का विरोध सभी देश भक्त कर रहे थे।

 

जलियांवाला बाग नरसंहार

13 अप्रैल 1919 को जालियांवाला बाग नरसंहार हुआ। इसको लेकर भी भ्रम फैलाने का प्रयास हुआ। ऐसा बताया गया कि इस स्थान पर कांग्रेस की एक सभा चल रही थी, जिसे अंग्रेज अधिकारी ने निशाना बनाया, किन्तु ऐसा कुछ नहीं था। वरिष्ठ इतिहासकार कृष्णानन्द सागर अपनी पुस्तक विभाजनकालीन भारत के साक्षी में लिखते हैं कि उस समय के दो स्थानीय कांग्रेसी पदाधिकारियों के अनुसार अंग्रेजों ने देशभक्त क्षेत्रवासियों की हत्या करने के लिए सुनियोजित साजिश के अंतर्गत वहां कांग्रेस की सभा के आयोजन की मुनादी करवाई थी। जब इन दो पदाधिकारियों को इसकी जानकारी मिली तो ये लोग वहां वास्तविकता बताने के लिए पहुंचे थे, लेकिन इससे पहले वो कुछ कह पाते, नरसंहार शुरू हो गया।

गांधी जी तब तक कांग्रेस में एक बड़ा स्थापित चेहरा बन चुके थे। इसके बाद भी उन्होंने कभी वास्तविकता देश की जनता के सामने नहीं आने दी। जो दो कांग्रेसी पदाधिकारी इस सभ को रोकने के लिए गए थे, उनमें से एक नरसंहार में घायल हुए थे, लेकिन दोनों जीवित बच गए थे, इसलिए ऐसा संभव नहीं है कि गांधी जी तक वास्तविकता न पहुंची हो। यदि यह साजिश सामने आ जाती तो भारतीयों का गुस्सा पूरी अंग्रेज सरकार के विरुद्ध भड़क उठता। उनके गुस्से को शांत करने के लिए अंग्रेज अधिकारी डायर को हटाने की छोटी सी कार्रवाई हुई। खानापूरी के नाम पर जिम्मेदार अधिकारीयों को फांसी की सजा तक देने का दिखावा नहीं किया गया।

इस पूरे मामले को जिस तरह से दबा दिया गया, उससे एक कांग्रेस समर्थक बहुत अधिक विचलित हुआ, उनका नाम है भगत सिंह। बालक भगत सिंह को इस नरसंहार से इतना दुःख हुआ की वो छोटी सी आयु में ही पैदल घटनास्थल पर पहुँच गए। इसके बाद जिस प्रकार गान्धी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस लिया उससे नाराज होकर ही भगत सिंह ने क्रांतिकारी बनने का निर्णय लिया था।

भारत में असहयोग आंदोलन के नाम से चलाया गया खिलाफत आंदोलन

 

30 जनवरी को मोहनदास कर्मचंद गांधी उपाख्य महात्मा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या हो गयी। देश में क्रांतिकारियों को अपना आदर्श मानने वाले बहुत से लोग महात्मा गांधी से असहमत हो सकते हैं, लेकिन इस कारण उनकी हत्या को सही नहीं कहा जा सकता। वैसे तो महात्मा गांधी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा रहा, लेकिन मैं यहां उनकी भारत वापसी के बाद चलाये गए एक आंदोलन का विशेष रुप से उल्लेख करना चाहता हूं। ऐसा इसलिये क्योंकि इसी आंदोलन ने भारत-पाकिस्तान विभाजन और तुष्टीकरण की नींव हमारे देश में रखी। किसी भी बात को रखने के लिये तर्क आवश्यक होते हैं। जिस समय गांधी जी की दुभाग्यपूर्ण हत्या हुई, उस समय मेरा जन्म नहीं हुआ था और न ही मैं इतिहासकार हूं। यही कारण है कि मैंने इस लेख का आधार वरिष्ठ इतिहासकार और गांधी जी के समय जो लोग जीवित थे, उनसे वार्ता कर चुके कृष्णानंद सागर के कुछ लेखों को आधार बनाकर उन्हें अपने शब्दों में ढालने का प्रयास किया है।

खिलाफत आंदोलन उस समय इस्लाम में महत्वपूर्ण पद खलीफा को समाप्त करने के विरुद्ध चलाया गया एक अभियान था। गांधी जी इससे क्यों जुड़े, इसके पीछे बहुत से कारण बताये जाते हैं। गांधी जी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात की। जब 1921 में उनसे सवाल किया गया कि भारत में मुस्लिमों के अतिरिक्त अन्य संप्रदाय भी रहते हैं, फिर सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात ही क्यों? इस पर गांधी जी ने उत्तर दिया कि हम मुस्लिमों के मन में आत्मीयता लाना चाहते हैं। यह उत्तर सवाल खड़े करता है कि क्या 1921 में मुस्लिम स्वयं को भारत से अलग मानते थे, जो उनमें आत्मीयता उत्पन्न करने के लिये अलग से एक नारा देने की आवश्यकता पड़ी।

खिलाफत आंदोलन क्या था और क्यों भारत में इसे असहयोग आंदोलन के नाम से चलाया गया? इसको समझना भी आवश्यक है। इस्लाम को मानने वाला एक वर्ग तुर्की के सुल्तान को खलीफा मानता था अर्थात पृथ्वी पर इस्लाम का सबसे बड़ा और पूज्यनीय व्यक्ति। तुर्की में ही इसे लेकर विरोध शुरु हो गया और एक वर्ग ने खलीफा के पद को मानने से इनकार कर दिया। ऐसे में सुल्तान समर्थकों ने इसे धार्मिक रंग देने का प्रयास किया और इस सत्ता विरोधी आंदोलन को कुचलने के लिये खिलाफत आंदोलन चलाया। जैसा आज भी होता है कि विश्व में कहीं भी इस्लाम के विरुद्ध कुछ भी होता है तो उसकी प्रतिक्रिया भारत में भी होती है। वैसा ही उस समय भी हुआ। भारत में तुर्की के सुल्तान का समर्थक करने के लिये कुछ लोगों ने खिलाफत आंदोलन को खड़ा करने का प्रयास किया। सुल्तान का विरोध करने वालों पर आरोप यह था कि वे अंग्रेजों के समर्थन से इस विद्रोह को चला रहे हैं। इसलिये भारत में खिलाफत आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा हो रहा था। भारत में यह आंदोलन 1918 में शुरु हुआ और इसी आंदोलन से निकले कुछ नेताओं के कारण बाद में भारत-पाकिस्तान विभाजन हुआ। कुछ मुस्लिम नेताओं को भारत के साथ जोड़े रखने के लिये उन्हें उच्च पद या अन्य महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गयी, जो बाद में तुष्टीकरण का आधार बना।

गांधी जी के जीवनीकार लुई फिशर के अनुसार 1919 में पहली बार गांधी जी को भी खिलाफ आंदोलन के समर्थन में होने वाले कार्यक्रम के लिये निमंत्रण मिला था। विदेशी कपड़ों की होली जलाने का सुझाव सर्वप्रथम इसी कार्यक्रम में आया था। इस बैठक में उपस्थित मौलाना अब्दुल कलाम आजाद भी उपस्थित थे। इन बैठकों के बारे में गांधी जी के जीवनीकार बी.आर. नंदा ने भी विस्तार से लिखा है। कई खलीफा ऐसे हुये जिन पर आरोप लगे कि उन्होंने हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाले, हिन्दू मंदिरों को तोड़ने वाले आक्रांताओं को गाजी का दर्जा देकर सम्मानित किया। अकबर को भी हिन्दू राजा को मारने के बाद ही गाजी की उपाधि मिल सकी थी और उसकी महानता के गुणगान शुरु हुये थे। ऐसे में हिन्दू खलीफा के समर्थन में आंदोलन करेंगे, इस पर संदेह था। यही कारण है कि गांधी जी ने भारत में खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन के रुप में चलाने का निर्णय लिया। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विदेश कपड़ों की होली जलाना (स्वदेशी का विचार) और असहयोग आंदोलन (खिलाफत आंदोलन) की नींव खिलाफत आंदोलन के समर्थन में पड़ी थी । खिलाफत आंदोलन और भारत का स्वतंत्रता आंदोलन दोनों ही अंग्रेजों के विरुद्ध थे। इस कारण गांधी जी को लगा कि वो इसके लिये कांग्रेस को मना लेंगे। प्रारंभ में कांग्रेस के अंदर इस पर सहमति नहीं बन सकी, लेकिन बाद में गांधी जी के लगातार प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस ने इसे अपना पूरा समर्थन और सहयोग देने का निर्णय लिया।

अधिकांश आंदोलन की रुपरेखा 1920 में बन चुकी थी। ये आंदोलन किस प्रकार भारत-पाकिस्तान विभाजन और मुस्लिम तुष्टीकरण का आधार बना, इसका उदाहरण एक वर्ष बाद ही 1921 में धार्मिक दंगों से मिलने लगा था। 1921 में केरल के अंदर मोपला के दंगे हुए। यहां खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने वाले मोपला मुस्लिमों ने हिन्दुओं की हत्या, हिन्दू महिलाओं के साथ बलात्कार और लूटपाट जैसी घटनाओं को अंजाम दिया। उस समय सर्वेण्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की एक रिपोर्ट के अनुसार इन दंगों में लगभग 1500 हिन्दू मारे गये और 20,000 हिन्दुओं का धर्मांतरण कर दिया गया। क्योंकि यह आंदोलन पहले अंग्रेजों के विरुद्ध शुरु हुआ था और बाद में इसने हिन्दू विरोधी रुख ले लिया। इसलिये अंग्रेजों का विरोध करने के कारण गांधी जी ने अपने एक लेख में इन मोपला मुस्लिमों को वीर मोपला कहकर संबोधित किया था। हर जुर्म होने से पहले अपनी दस्तक देता है। गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इस दस्तक को अनसुना करते हुए दंगों को आपसी लोगों के बीच हुई हिंसक झड़प मानकर इसकी निंदा की और परिणाम 1947 में सामने आ गया।

उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन को जारी रखने के लिये इसे असहयोग आंदोलन के रुप में चलाया और क्रांतिकारियों के एक प्रयास को हिंसा का नाम देकर पूरा आंदोलन वापस लेने वाले गांधी जी ने हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार को तुष्टीकरण के लिये नजरअंदाज कर दिया। गांधी जी को मानने वाले नेताओं ने बाद में उनके ऐसे ही बयानों व कार्यों को आधार बनाकर अपनी राजनीति की और आज भी वो इस तुष्टीकरण को सही मानते हैं।

 

सच कहने की हिम्मत रखने वाली एनी बेसेंट बनी कांग्रेस अध्यक्ष 

कांग्रेस में गांधीजी के आने के बाद भी बाल गंगाधर तिलक की 1920 में मृत्यु तक गरम दल के लोगों का प्रभाव अधिक था। इस कारण बाल-लाल-पाल की तिकड़ी कई मुखर होकर कार्य करने वालों को कांग्रेस में प्रवेश कराने में सफल हुई। इन्हीं में से एक नाम था एनी बेसेंट का। आयरिश मूल की एनी बेसेंट का विवाह एक पादरी से हुआ था, जिन्हें उन्होंने स्वयं पसंद किया था, किन्तु अपने पति के धार्मिक विचारों से असहमत होने के कारण उनका तलाक हो गया। बेसेंट की भारत को नजदीक से देखने और कार्य करने की उनकी इच्छा उन्हें 1893 में भारत ले आई। वो भारत एक समाजसेवी के रूप में आई थीं। लेकिन बाद में उनका संपर्क बाल गंगाधर तिलक से हुआ। वो बाद में कांग्रेस से भी जुड़ गईं। क्रांतिकारी विचारों की समर्थक एनी बेसेंट 1917 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्ष बनी। वो गांधी-नेहरू परिवार के अतिरिक्त कांग्रेस की पहली और अभी तक आखिरी राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

भगत सिंह की तरह ही एनी बेसेंट भी गांधीजी के आंदोलन चलाने के तरीकों और उसेक उद्देश्यों से सहमत नहीं थीं। भगत सिंह ने जहां इस ओर अधिक ध्यान न देते हुए अलग क्रांति का रास्ता अपना लिया, तो वहीं एनी बेसेंट ने गांधीजी की खुली निंदा करने में भी संकोच नहीं किया। भारत आने से पहले ही गांधीजी के बारे में जो सकारात्मक माहौल बनाया गया था, उनके वक्तव्य उस पर बड़ा तमाचा थे, लेकिन दुर्भाग्य से इस मामले में किसी ने उनका साथ नहीं दिया या संभव है की 1920 में तिलक की मृत्यु के बाद कोई चाह कर भी उनका साथ नहीं दे सका। एनी बेसेंट के अनुसार, “ गांधीजी के आन्दोलन अराजकतावादी तथा घृणा पैदा करने वाले हैं। गांधीजी के  दर्शन एवं नेतृत्व स्वतंत्रता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हैं। गांधीजी अस्पष्ट स्वराज देखने वाले और रहस्यवादी राजनीतिज्ञ हैं। गांधीजी के सच्चे हृदय से पश्चाताप, उपवास, तपस्या आदि पर मुझे विश्वास नहीं होता है, यह संदेह पैदा करते हैं। मैं भारत  की जनता को चेतावनी देती हूं कि यदि गाँधीवादी प्रणाली को अपनाया गया, तो देश पुनः अराजकता के खड्ड में जा गिरेगा।”

चौरी चौरा – भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक आंदोलन

मैंने बचपन में पढ़ा था ‘……… देदी हमें आजादी बिना बरछी बिना ढाल….’। मन में प्रश्न आया क्या पूरे स्वतंत्रता संग्राम के लिये अहिंसा का सिद्धांत मानने वाले लोगों को ही श्रेय दिया जाना ठीक है। गीत पढ़कर तो उनको ही श्रेय जाना चाहिए, ऐसा लगा। इसके बाद पढ़ा कि पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 में हुआ। नेता जी सुभाष चंद्र बोस आजाद हिंस फौज के साथ भारत को स्वतंत्र देश के रुप में कई देशों से मान्यता दिला चुके थे। भारत छोड़ो आंदोलन तो 1942 में प्रारम्भ हुआ था, लेकिन नेता जी का आंदोलन 1945 में उनके गायब होने तक चलता रहा। 1857 या 1945 दोनों ही सशस्त्र आंदोलन थे। अंग्रेजों को भी सबसे अधिक डर क्रांतिकारियों से लगता था, इसीलिये उन्होंने 1947 में तत्कालीन सभी क्रांतिकारी जिनके जीवित होने की संभावना थी, उनको आतंकवादी घोषित कर भारत सरकार से उन्हें मिलने पर सौपने का अनुबंध किया था। इन बातों से ऐसा लगता है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में इतिहास ने महान क्रांतिकारियों को वो स्थान नहीं दिया, जिसके वे अधिकारी थी। 1922 में चौरी-चौरा में जो हुआ, उसे एक घटना मात्र मानना ठीक नहीं है। इसे स्वतंत्रता का एक आंदोलन या उसका भाग कहा जाना चाहिए।

4 फरवरी 1922 में उस समय गोरखपुर जिले का भाग रहा उत्तर प्रदेश का चौरी-चौरा क्रांतिकारी आंदोलन की ऐतिहासिक घटना का साक्षी बना। दुर्भाग्य से आज भी इसका वर्णन विकीपीडिया और कई स्थानों पर चौरी-चौरा कांड के रुप में होता है। कांड शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है। हमारे कुछ धार्मिक ग्रंथों में कांड का अर्थ घटना से होता है, तो वहीं वर्तमान समय में कांड का अर्थ साजिशन अंजाम दी गई घटना के संदर्भ में किया जाता है। कुछ जगहों पर इस आंदोलन को कुछ दुस्साहसिक लोगों द्वारा किया गया एक कार्य बताया गया है। कुछ स्थानों पर ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिये पुलिस चौकी पर हमला किया था, जिससे वो अंग्रेजों के मन में भय उत्पन्न कर सकें।

 

क्या इन क्रांतिकारियों का उद्देश्य पुलिस वालों को मारने का था, नहीं। वास्तव में प्रदर्शनकारियों का एक दल अहिंसात्मक रुप में अपना विरोध कर रहा था। पुलिस वालों ने इन्हें रोकने का प्रयास किया, जब इन देशभक्तों ने बात नहीं मानी, तो गोली चला दी गई, जिसमें कई प्रदर्शनकारियों की मौत हो गयी। इसके बाद आंदोलन में शामिल युवा जो क्रांतिकारी विचारों से भी ओत-प्रोत थे, उन्होंने भी प्रतिक्रिया की और पुलिस चौकी ही फूंक दी। अंग्रेजों को इस प्रकार के प्रतिशोध की अपेक्षा नहीं थी। अंग्रेज डर गये, इससे पहले की अंग्रेजों का यह भय उन पर इंग्लैंड वापस जाने के लिये दबाव बनाता, महात्मा गांधी ने पूरा आंदोलन ही वापस ले लिया और अंग्रेज फिर से भयमुक्त हो गये।

 

महात्मा गांधी ने गोली चलाने वाले अंग्रेजों पर कार्रवाई की मांग नहीं की, लेकिन अंग्रेजों ने बदला लेने की ठान ली थी। पुलिस चौकी फूंकने के आरोप में 172 लोगों पर मुकदमा चलाया गया। मदन मोहन मालवीय ने किसी प्रकार 151 लोगों को फांसी की सजा से बचा लिया, लेकिन 19 लोगों को फिर भी फांसी हो गयी। गांधी जी या कांग्रेस ने इन 19 लोगों को बचाने के लिये कोई प्रयास नहीं किया। मालवीय जी व्यक्तिगत रुप से जितना कर सकते थे, उन्होंने प्रयास किया।

 

खिलाफत आंदोलन को ही भारत में असहयोग आंदोलन के रुप में चलाया गया था। इसे तुर्की के सुल्तान और खलीफा के समर्थन में चलाया गया था। महात्मा गांधी के कारण इसे कांग्रेस ने स्वीकृति दी थी, किंतु अब गांधी जी इसे समाप्त करना चाहते थे। यदि बिना कोई ठोस कारण दिये इस आंदोलन को समाप्त किया जाता तो इससे एक तरफ खिलाफत आंदोलन चलाने वाले मुस्लिम नेता नाराज होते, तो वहीं दूसरी ओर पूरे देश में असहयोग आंदोलन के नाम पर मिला समर्थन विरोध में बदल सकता था। यही कारण है कि चौरी-चौरा के क्रांतिकारी कदम की निंदा करते हुए खिलाफत आंदोलन (असहयोग आंदोलन) समाप्त करने की घोषणा गांधी जी ने की। आज देश इस आंदोलन का शताब्दी वर्ष बना रहा है। आशा करता हूं कि इतिहास में की गई ऐसी और भी भूलों को सुधार कर हम सभी क्रांतिकारियों को उनका उचित सम्मान दिलायेंगे।

स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती और महात्मा गांधी

देश में ऐसे अनगिनत स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हुये जो पहले कांग्रेस के साथ जुड़े या उसे अपना समर्थन दिया लेकिन बाद में वैचारिक मतभेद होने के कारण एक अलग राह बना ली। इनमें सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह व डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार जैसे अनेक नाम शामिल हैं। ऐसे ही एक महान धार्मिक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे स्वामी श्रद्धानंद। महात्मा गांधी इनसे इतने असहमत थे, कि स्वामी जी की हत्या के बाद हुई कांग्रेस की बैठक में उनके हत्यारे की ही वकालत करने लगे थे और गांधी जी ने उनकी हत्या को भी सही सिद्ध करने का प्रयास किया था।

स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती के बचपन का नाम मुंशीराम विज था। उनका जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब में हुआ था। वे आर्य समाज के विचारों से प्रभावित संत थे। प्रसिद्ध गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना उन्होंने ही की थी। ऐसे ही विभिन्न अन्य शिक्षण संस्थानों की स्थापना के पीछे उनका उद्देश्य हिन्दू मान्यताओं का प्रचार-प्रसार था। जबकि गांधी जी हिन्दू मान्यताओं और हिन्दुओं के गौरवशाली इतिहास के शिक्षण को घृणा फैलाने वाला कार्य मानते थे। गांधी जी को अंग्रेजी शिक्षण पद्धति से कोई समस्या नहीं थी। हिन्दू समाज में फैले हुये जातिगत भेदभाव के विरुद्ध स्वामी जी के कार्यों को देखकर 1922 में डॉ. भीमराव राम आंबेडकर ने उन्हें अछूतों का महानतम और सच्चा हितैषी बताया था।

स्वामी जी ने सर्वप्रथम जालंधर में आर्य समाज के जिलाध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली थी। उस समय वो वकालत करते थे। किंतु दयानंद सरस्वती की 1883 में हत्या के बाद श्रद्धानंद जी ने स्वयं को पूरी तरह आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। उनका जीवन इस बात का भी उदाहरण है कि आर्य समाज हिन्दू धर्म की बुराईयों के विरुद्ध है न की हिन्दुत्व के सिद्धांत के। इस कारण स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिये हिन्दुओं के संगठन पर जोर देते थे। गांधी जी इस विचार से असहमत थे। गांधी जी को संदेह था कि मुस्लिम समाज स्वयं को हिन्दुस्थान से जुड़ा हुआ महसूस नहीं कर रहा, इसके लिये हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात कर, उसे जोड़े रखना बहुत जरुरी है। हिन्दुत्व के विचार का प्रचार-प्रसार इसमें बाधक है।

ऐसा नहीं है कि स्वामी जी और गांधी जी के बीच यह मतभेद हमेशा से थे। गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार करते हुये सुधारों की वकालत कर रहे थे, तो भारत में उनकी जो सकारात्मक छवि बन रही थी, उससे श्रद्धानंद जी भी प्रभावित थे। उनके द्वारा स्थापित गुरुकुल कांगड़ी के विद्यार्थियों ने उस समय 1500 रुपये एकत्रित करके गांधी जी को भेजे थे। स्वतंत्रता से पूर्व 1 रुपये भी बहुत बड़ी राशि होती थी। ऐसे में प्रश्न उठता है कि गांधी जी के भारत आने के बाद ऐसा क्या हुआ, जो स्वामी जी से महात्मा गांधी नाराज हो गये?

इसके उत्तर के लिये विदर्भ प्रांत के एक तत्कालीन बड़े कांग्रेसी नेता डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार की चर्चा करना चाहता हूं। डॉ. हेडगेवार चाहते थे कि कांग्रेस पूर्ण स्वराज्य के अंतर्गत अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिये कहे। जबकि गांधी जी दक्षिण अफ्रीका की तरह ही हिन्दुस्थान में भी अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार करते हुये सुधारों की वकालत कर रहे थे। गांधी जी के स्वराज्य का अर्थ था कि अंग्रेज प्रमुख बने रहे और उनके आधीन रहते हुये हिन्दुस्थानी हिन्दुस्थान का काम देखें। गांधी जी के इन विचारों से डॉ. हेडगेवार सहित कई अन्य कांग्रेसी सहमत नहीं थे। इस कारण कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नेताजी सुभाष चंद्र बोस सहित कई वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। जब गांधी जी हिन्दुस्थान आये और कांग्रेस से जुड़े, तो उनके वास्तविक विचारों से स्वामी श्रद्धानंद अवगत हुये। गांधी जी 1924 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।

स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती हिन्दुस्थान का पुराना गौरवशाली हिन्दू इतिहास याद दिलाने का प्रयास निरंतर कर रहे थे। उनका मानना था कि यदि हम इतिहास के वास्तविक महापुररुषों से सीख लेंगे, तो हमें स्वतंत्रता भी मिलेगी और हम सदैव स्वतंत्र बने भी रहेंगे। स्वामी जी को इसके लिये क्रांतिकारियों का सहयोग लेने में भी कोई दिक्कत नहीं लगती थी, जबकि गांधी जी क्रांतिकारियों को हिंसावादी मानते थे। गांधी जी की तुलना में स्वामी जी के विचार डॉ. हेडगेवार से अधिक मिलते थे। गांधी जी ने मोपला सहित हिन्दुओं के विरुद्ध हुये सांप्रदायिक दंगों के विरोध में एक भी मुस्लिम आतंकवादी की निंदा नहीं की, जबकि स्वामी जी ने इन सबका मुखर होकर विरोध किया। इस कारण कई मुस्लिम नेताओं को स्वामी जी खतरा लगने लगे। 23 दिसंबर 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक आतंकवादी ने स्वामी जी की हत्या कर दी।

यह हत्या दुखद थी। कांग्रेस में कुछ लोग इस हत्या को साम्प्रदायिक सौहार्द की भावना के विरुद्ध मानते थे। लेकिन गांधी जी अहिंसा के सिद्धांत के इतर कितने प्रसन्न थे, यह बात स्वामी जी की हत्या पर उनकी प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है। यंग इंडिया में प्रकाशित वर्ष 1926 को की एक रिपोर्ट के अनुसार गांधी जी ने 26 दिसंबर 1926 को गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में स्वामी जी की हत्या पर शोक सभा को संबोधित करते हुये कहा था कि मैं अब्दुल रशीद को भाई मानता हूं। मैं उन्हें स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। एक दूसरे के विरुद्ध घृणा पैदा करने वाले लोग इस हत्या के दोषी हैं। इसलिये हमें आंसू नहीं बहाने चाहिए। मैं स्वामी श्रद्धानंद की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती की हत्या हमारे दोष को धो देगी। इससे हृदय निर्मल होगा।

स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती ने कांग्रेस द्वारा आयोजित कई कार्यक्रमों में भाग लिया था। इनमें से कांग्रेस नेता के रुप में डॉ. हेडगेवार द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम को श्रद्धानंद सरस्वती ने संबोधित भी किया था। इसके बाद भी अहिंसा के पुजारी के रुप में प्रसिद्ध महात्मा गांधी के स्वामी जी के बारे में जो विचार थे, वो गांधी जी की अहिंसा के प्रति उनकी श्रद्धा को दर्शाते हैं।

 गणेश शंकर विद्यार्थी की साम्प्रदायिक माॅब लिंचिंग में हुई थी हत्या

गणेश शंकर विद्यार्थी एक महान पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। क्रांतिकारी विचारों से ओत-प्रोत होने के कारण उनकी संघर्ष गाथा, विशेष रुप से उनकी हत्या की चर्चा बहुत कम होती है। भारत का पहला दंगा मोपला, केरल में 1921 में हुआ था। इस दंगे में 2000 हिन्दुओं की हत्या कर दी गयी और 20 हजार से अधिक हिन्दू बेघर हो गये। हिन्दू महिलाओं के साथ बलात्कार भी सैकड़ों की संख्या में हुए। इसके बाद से देश के विभिन्न हिस्सों में एक ओर महात्मा गांधी की स्वीकार्यता बढ़ रही थी, वहीं दूसरी ओर हिन्दुओं को दंगों में मारने, लूटने व हिन्दू महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं भी बढ़ रही थीं। इन दंगों में सामान्यतः कोई व्यक्ति विशेष लक्ष्य नहीं होता था, किंतु गणेश शंकर विद्यार्थी को लक्ष्य बनाकर एक संप्रदाय विशेष के लोगों की भीड़ ने मार डाला। उनकी हत्या कर दी। यही कारण है कि मैं गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या को साम्प्रदायिक माॅब लिंचिंग कह रहा हूं। अंग्रेजों का भारत में शासन स्थापित होने के बाद मेरी अभी तक की जानकारी के अनुसार यह पहली बड़ी माॅब लिंचिंग की घटना थी।

 

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म इलाहबाद (प्रयागराज) में हुआ था। 1908 में वो कानपुर आ गये और इसी शहर को उन्होंने अपनी कर्मभूमी बना लिया। भारत के सर्वांगीण विकास के लिये अंग्रेजों का भारत को छोड़कर जाना आवश्यक है। यह विचार विद्यार्थी जी के मन में प्रयागराज से ही था, जो कांग्रेस की स्थापना के उद्देश्य से बिल्कुल उलट था। कांग्रेस अंग्रेजी शासन को स्वीकार करते हुये भारतीयों को और अधिक अधिकार देने की वकालत करती थी। इसी कारण गणेश जी की निकटता क्रांतिकारी विचारों का समर्थन करने वाले लोगों से अधिक हुई। यही विचार बाद में उनकी हत्या का कारण भी बना। गणेश शंकर विद्यार्थी ने 1913 में कानपुर से अपना साप्ताहिक समाचार पत्र प्रताप निकाला। वो लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। इस कारण उनकी निकटता कांग्रेस से भी रही। वे एक प्रकार से कांग्रेस के गरम दल के सदस्य थे। यह गुट कांग्रेस में रहते हुये क्रांतिकारी विचारों को भी समान रुप से महत्व देता था।

1920 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने समाचार पत्र प्रताप को दैनिक कर दिया। आर्थिक सहायता न के बराबर मिलने के बाद भी उनका यह निर्णय साहसिक था। लेकिन इसी बीच 1920 में ही बाल गंगाधर तिलक का देहांत हो गया और कांग्रेस पूरी तरह से महात्मा गांधी के हाथ में जाने लगी। तिलक के प्रति सम्मान के कारण जहां एक ओर विद्यार्थी जी कांग्रेस के आंदोलनों में सक्रिय रहते थे, वहीं विचारों से वे क्रांतिकारियों के निकट लगते थे। इसी कारण कांग्रेस से उन्हें प्रताप के संचालन में कोई विशेष सहयोग नहीं मिला। 1921 में मोपला, केरल से शुरु हुई साम्प्रदायिक दंगों की आग कानपुर तक पहुंच गयी। 25 मार्च 1931 में मुस्लिमों की एक भीड़ ने गणेश शंकर विद्यार्थी को शहीद कर दिया।

 

आखिर इन दंगों की शुरुआत 1921 से ही क्यों हुई? दरअसल 1920 में मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस से अलग हुये और मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बने। गांधी जी हमेशा हिन्दू-मुस्लिम विवाद होने पर हिन्दुओं को ही समझाते थे और शांति बनाये रखने के लिये कहते, लेकिन जिन्ना इतने से संतुष्ट नहीं हुए। उन्हें मुस्लिमों के लिये और अधिक अधिकार व बिना रोक-टोक इस्लामिक नियमों के अनुसार काम करने की स्वतंत्रता चाहिए थी। डॉ. हेडगेवार सहित कांग्रेस के कई नेता जिन्ना की इन बातों से सहमत नहीं थे। यही कारण है कि उन्होंने 1920 में ही मुस्लिमों के लिये अलग राष्ट्र की मांग के लिये वातावरण बनाना शुरु कर दिया। इसी विचारधारा के कारण 1921 में केरल के अंदर दंगे हुए, बाद में ये दंगे कानपुर तक पहुंचे और अंततः 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन हुआ। गांधी जी अंत तक जिन्ना को साथ जोड़े रखने का प्रयास करते रहे, लेकिन इसका लाभ नहीं हुआ।

 

गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत मुस्लिमों की उन्मादी भीड़ ने की थी। इस दंगे या कहें कि साम्प्रदायिक माॅब लिंचिंग की निंदा करने की जगह गांधी जी ने विद्यार्थी की शहादत पर कहा था कि यह बलिदान में बहा खून दो समुदायों के बीच दरार को जोड़ने वाली सीमेंट की तरह काम करेगा। यह शहादत पत्थर में भरे गए जहर को धोएगी। आश्चर्य है कि हिंसा का सदैव विरोध करने वाले गांधी जी इस्लाम के कट्टर अनुयायियों के विरुद्ध एक शब्द तक नहीं बोल सके। बल्कि इस हत्या को दो सम्प्रदायों के बीच नफरत को समाप्त करने के लिये जरुरी बता डाला।

द्वितीय गोलमेज सम्मलेन

कांग्रेस की स्थापना एक अंग्रेज द्वारा अपनी राजनितिक महत्वाकांक्षा के कारण हुई थी। इसमें सत्ताधारी अग्रेजों ने भी उनका सहयोग किया था। किन्तु कांग्रेस ने अपनी छवि देशभक्त संगठन के रूप में स्थापित कर ली थी। इसके पीछे के दो कारण थे, पहला अंग्रेज ऐसा ही चाहते थे और दूसरा अंग्रेजों का प्रत्यक्ष नियंत्रण जैसे-जैसे इस संगठन पर से कम होता गया, कई सच्चे देशभक्त भी कांग्रेस से जुड़े। किन्तु द्वितीय गोलमेज सम्मलेन के समय कांग्रेस का वास्तविक षड़यंत्र पूरी तरह से सबके सामने आ गया था। यद्यपि इसकी चर्चा उतनी नहीं हुई। क्योंकि चर्चा करता कौन, अंग्रेज या कांग्रेस तो ऐसा करने से रही। क्रांतिकारियों को कमजोर करने के लिए तब तक गांधीजी अहिंसा का सिद्धांत भारतीयों के मन में घुसा चुके थे। इसलिए यदि क्रन्तिकारी ऐसा करते तो इसे बदले की भावना से किया गया काम माना जाता और जो समर्थन उनके सशस्त्र आन्दोलन को मिल रहा था, वह भी खतरे में पड़ जाता।

5 मार्च 1931 को द्वितीय गोलमेज सम्मलेन से एक दिन पहले 4 मार्च को गांधी-इरविन समझौता हुआ था। इसके अनुसार हिंसा के आरोपियों (क्रांतिकारियों व उनके समर्थको) को छोड़कर अन्य सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया जायेगा। इन राजनीतिक बंदियों में लगभग सभी कांग्रेस के नेता थे। गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित करने के साथ ही अग्रेजों को यह भी आश्वासन दिया कि वो ब्रिटिश सरकार का विरोध नहीं करेंगे। यह आश्चर्य की बात ही थी, क्योंकि इस समझौते के लगभग एक वर्ष पूर्व ही गांधीजी ने सभी भारतीयों को 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाने का आग्रह किया था।

ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या गांधीजी ने भारतीयों को धोखा दिया था। वास्तव में गांधीजी कांग्रेस की ही पुरानी नीति पर चल रहे थे। कांग्रेस ने अपने स्थापना काल से ही यह तय किया था कि वो अंग्रेज सरकार का विरोध तो करेगी, लेकिन यह विरोध सिर्फ भारतीयों का समर्थन हासिल करने के लिए होगा। कांग्रेस कभी भी इतना विरोध नहीं करेगी कि अंग्रेजों को भारत से बाहर निकाल फेंकने की मांग उठने लगे। बस द्वितीय गोलमेज सम्मलेन में गांधीजी ने यह दिखावटी विरोध भी नहीं करने पर अपनी सहमति दी थी।

शरत चंद्र बोस : एक कांग्रेसी, जो क्रांतिकारियों के अधिक निकट था

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई शरत चंद्र बोस की आज पुण्यतिथि है। वो उन कुछ गिने-चुने कांग्रेसी नेताओं में से एक थे, जिनकी आस्था जितनी अहिंसा में थी, उतनी ही क्रांतिकारी विचारो में भी। ऐसा मैं ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कह रहा हूं। कांग्रेस का क्रांतिकारियों के बारे में क्या विचार था, इसे एक उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूं। जब भगत सिंह को फांसी होने वाली थी, तो कुछ कांग्रेसी महात्मा गांधी के पास आये, उन्होंने अनुरोध किया कि यदि गांधी जी हस्तक्षेप करें, तो एक युवक (भगत सिंह) की फांसी रुक सकती है। उसने जोश में कुछ कार्य किये हैं, जिससे अंग्रेज सरकार नाराज है, लेकिन इस आयु में ऐसा हो जाता है। इस पर कांग्रेस के ही अन्य नेताओं ने तर्क दिया कि यदि हम हिंसा करने वाले किसी व्यक्ति का साथ देंगे, तो हमारी अहिंसा की छवि खराब हो सकती है और गांधी जी से इसी विचार पर सहमति मिल गयी। कांग्रेस व महात्मा गांधी ने भगत सिंह फांसी को सही माना।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय ऐसे विचारों को प्रतिपादित करने वाली कांग्रेस में नेताजी सुभाष चंद्र बोस दो बार राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये। दूसरी बार गांधी जी के दबाव डालने के बाद सुभाष बाबू को पद छोड़़ना पड़ा। उनके बड़े भाई बैरिस्टर शरत चंद्र बोस भी 1936 से 1947 तक कांग्रेस की अखिल भारतीय समिति के सदस्य रहे। बंगाल विभाजन के विरोध में उन्होंने 1947 में कांग्रेस छोड़ दी। शरत जी कांग्रेस में कई बड़े पदों पर रहे। इसके बाद भी वो अपनी असहमति सदैव व्यक्त करते रहे। शायद इसी कारण इतिहास में उनका अधिक विवरण नहीं मिलता है। जिसने भी भारत को स्वतंत्रता मिलने से पहले कांग्रेस या महात्मा गांधी के विचारों से असहमति व्यक्त की, कुछ अपवादों को छोड़कर उन सभी के बारे में आपको अधिक जानकारी नहीं मिलेगी या फिर कांग्रेस विरोध की बाते इन देशप्रेमियों की जीवनी से हटा दी जायेंगी।

शरत चंद्र बोस ने 1914 में इंग्लैंड से वकालत की पढ़ाई पूरी की और बैरिस्टर बन गये। महात्मा गांधी की तरह ही उन्होंने भी अपने प्रारंभिक जीवन में वकालत की और फिर भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गये। महात्मा गांधी का कार्यक्षेत्र पहले गुजरात और फिर दक्षिण अफ्रीका रहा, जबकि शरत जी का कार्यक्षेत्र बंगाल रहा। शरत चंद्र बोस के बारे में ऐसा कहा जाता है कि उस समय किसी भी क्रांतिकारी का मुकदमा उनके पास आता था, तो वो हर संभव प्रयास करते थे कि भारत के उस देशभक्त को सजा न हो या कम से कम हो। क्रांतिकारियों से उनका यह लगाव कांग्रेस की नीतियों के बिल्कुल उलट था।

ऐसा नहीं है कि शरत चंद्र बोस की अहिंसा में कोई आस्था नहीं थी, किंतु वे महात्मा गांधी की तरह सिर्फ अहिंसा के भरोसे देश की स्वतंत्रता को नहीं छोड़ना चाहते थे। उनका मानना था कि दोनों प्रकार से प्रयास करते रहना चाहिए। इसलिये जहां वो एक ओर कांग्रेस द्वारा चलाये गये भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुये, तो वहीं उन्होंने आजाद हिंद फौज जैसे विकल्पों को भी पूरा प्रोत्साहन दिया। तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी चार्ल्स टेगार्ट सहित कई अंग्रेजों का ऐसा मानना था कि सुभाष चंद्र बोस के क्रांतिकारी विचारों के पीछे प्रेरणा शरत जी की ही है। इस संबंध में शरत जी द्वारा 18 सितंबर 1941 को लिखे एक पत्र का विवरण भी मिलता है, जिसमें वो 10 हजार लोगों की सशस्त्र सेना होने का दावा करते हैं और इंग्लैंड विरोधी देशों के सहयोग से इनकी संख्या 50 हजार तक बढ़ाने के लक्ष्य की जानकारी भी देते हैं।

1947 में शरत चंद्र बोस ने कांग्रेस छोड़ दी, लेकिन उनकी कांग्रेस से नाराजगी समाप्त नहीं हुई। उन्होंने 15 अगस्त 1947 को बनी अंतरिम पश्चिम बंगाल सरकार के मुख्यमंत्री पी.सी. घोष के विरोध में विपक्षी दलों का एक मोर्चा बनाने का प्रयास भी किया था। स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरु भी उनके इन प्रयासों से पूरी तरह अवगत थे। नेहरु पर यह आरोप भी लगे कि वो शरत जी की जासूसी करवाते थे, जिससे यह पता लगाया जा सके कि वो कांग्रेस के विचारों से अलग क्या कर रहे हैं? या फिर उनके किस कार्य से कांग्रेस को नुकसान हो सकता है? नेहरु को हमेशा डर रहता था कि शरत जी के कारण कांग्रेस को लोग देश विरोधी न समझने लगे। स्वतंत्रता से पहले अंग्रेज और बाद में कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता शरत जी को पसंद नहीं करते थे। इसलिये नेहरु पर लगे इन आरोपों को साबित करने के लिये साक्ष्य देना मुश्किल लगता है।

भगत सिंह को राजगुरु व सुखदेव के साथ फांसी

गांधी जी ने भारत आते ही सबसे पहले भारतीयों को यह विश्वास दिलाना शुरू किया कि क्रांतिकारी भारत की स्वतंत्रता में सबसे बड़ी रूकावट हैं। गांधीजी ने जब भी क्रांतिकारियों के बारे में कुछ कहा, तो वह जहर उगलने जैसा ही था। चम्पदारण के सशस्त्र आंदोलन से जुड़े लोगों को गांधीजी ने किस प्रकार भ्रमित कर उन्हें अहिंसा का पाठ पढ़ा कर अंग्रेजों की एक बड़ी समस्या को हल कर दिया था, इसके बारे में मैं पहले ही बता चुका हूँ। गांधीजी इसी प्रकार पूरे देश में भ्रमण कर लोगों को यह समझा रहे थे कि क्रन्तिकारी लोगों को गुमराह कर रहे हैं। ये लोग युवाओं को गलत रास्ते पर ले जा रहे हैं। क्योंकि कांग्रेस के जन्म और गांधीजी दोनों का एक ही उद्देश्य था, लोगों की थोड़ी बहुत मांगे मनवा कर उन्हें अंग्रेजी गुलामी के लिए तैयार करना। जबकि क्रांतिकारी अंग्रेजों को भारत की एक इंच जमीन तक नहीं देना चाहते थे। इसलिए ये क्रांतिकारी अंग्रेजों और गांधीजी की राजनीति दोनों के लिए बाधक थे।

यही कारण है कि जब है कि जब भगत सिंह गांधीजी की नीतियों से असंतुष्ट होकर क्रांतिकारियों के दल से जुड़े, तो उन्हें भी इसका अनुभव आया। क्रांतिकारियों के भी समर्थक थे, लेकिन उनसे जुड़ने वालों की संख्या कम थी। इसके आलावा यदि कोई क्रांतिकारी जीवित पकड़ लिया जाता था, तो उसके साथ बहुत खराब व्यवहार होता था, जबकि वहीं दूसरी ओर गांधीजी को कभी अंग्रेजों की एक भी लाठी पड़ी हो या उन्हें किसी प्रकार की यातना अग्रेजों द्वारा दी गई हो इसका विवरण कांग्रेसियों के द्वारा लिखी गई पुस्तकों में भी नहीं मिलता है। क्रांतिकारियों का उद्देश्य क्या है, वो किस प्रकार अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए प्रयास कर रहे हैं तथा जेल में उनके साथ जो व्यवहार होता है, भगत सिंह ने अपना बलिदान देकर इन सभी मुद्दों को देश के सामने रखने का विचार मन में बनाया।

भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ 1929 में दिल्ली केंद्रीय विधानसभा के खाली स्थान पर बम फेंका। ये धुएं वाले बम थे, इस कारण किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। वो गिरफ्तार होने के लिए ही आये थे, फिर भी उनके पास वो पिस्तौल थी, जिससे उन्होंने अंग्रेज अधिकारी को मारा था। वास्तव में भगत सिंह चाहते थे कि उनपर मुकदमा लम्बा चले, जिससे उन्हें लोगों तक अपनी बात पहुँचाने का अधिक से अधिक अवसर मिल सके। उन्हें पहले से ही अनुमान था कि उनके इस प्रयास की सजा मौत हो सकती है, लेकिन वो यह भी जानते थे की अंग्रेज सरकार न्यायप्रिय दिखाने के लिए उन्हें बिना मुकदमा चलाये फांसी नहीं देगी। इसी कारण उन्होंने पिस्तौल होने के बाद भी न भागने का प्रयास किया और न विरोध करने की कोशिश। इसके बाद बम कैसे बनाया जाता है, उसका प्रयोग कैसे होता है, क्रांतिकारी संगठनों और इनसे जुड़े लोगों का क्या उद्देश्य है। बातों ही बातों में यह सब कुछ भगत सिंह और उनके सहयोगियों ने अदालत के माध्यम से देश को बताया।

भगत सिंह ने जेल के अंदर की व्यवस्था के सुधार के लिए अनशन भी किया, जिसके दौरान वो सिर्फ पानी पी रहे थे। अंग्रेज सरकार ने उनकी कालकोठरी से यह पानी भी हटवा लिया। अंग्रेजों की इस निर्दयता के कारण भगत सिंह के एक साथी क्रांतिकारी की मौत हो गई। स्वयं भगत सिंह भी काफी कमजोर हो गए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। इसका परिणाम यह हुआ कि जेल के नियमों में परिवर्तन किया गया। इस परिवर्तन के बाद जो नियम सरल हुए उनका सबसे अधिक लाभ बाद में कांग्रेसी राजनीतिक कैदियों को मिला। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई।

28 सितंबर 1907 को जन्में भगत सिंह फांसी के समय 23 साल के ही थे। यह आयु इतने बड़े बलिदान के लिए बहुत कम होती है। लेकिन इसके बाद भी गांधी जी का मन इस बच्चे के लिए नहीं पिघला। बात-बात पर अनशन करने वाले गांधीजी एक बार भी धरने पर नहीं बैठे। बाद में कुछ लोगों ने दावा किया कि भगत सिंह पर मुकदमे और फांसी के मध्य गांधीजी ने कई बार अंग्रेज अधिकारीयों से इस बारे में बात की, लेकिन इसके कोई साक्ष्य नहीं हैं। जिस दिन फांसी दी जानी थी, उस दिन गांधीजी ने एक पत्र में जरुर भगत सिंह का उल्लेख किया था, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसके उलट गांधीजी हमेशा बलिदानी भगत सिंह को दूसरों को भटकाने और गुमराह करने का प्रयास करने वाला दोषी ही बताते रहे। चौरी-चौरा में अंग्रेज शासन के सिपाहियों की मौत पर पूरा आंदोलन स्थगित कर दुःख व्यक्त करने वाले गांधीजी की आँखों से इस बच्चे के बलिदान पर दो बूंद आंसू के भी नहीं निकले। इससे गांधीजी और कांग्रेस की क्रांतिकारियों के प्रति संवेदना का पता चलता है।

स्वराज पार्टी की स्थापना से स्वराज्य के नारे तक

अंग्रेज सरकार के आधीन रहते हुए उनके नियमानुसार बनाई गयी विधानसभाओं का भाग बनकर क्या अपनी राजनितिक उद्देश्यों को पूरा किया जा सकता है। इसको लेकर कांग्रेस में मतभेद थे। इसी कारण मोती लाल नेहरू और चितरंजन दास सहित कई नेताओं ने 1 जनवरी 1923 को स्वराज पार्टी के नाम से अलग राजनीतिक दल बना लिया। गांधीजी और अंग्रेजों के लिए यह एक बड़ा धक्का था। अगले ही वर्ष खराब सेहत का हवाला देकर 10 मार्च 2022 से जेल में बंद गांधीजी को रिहा कर दिया गया। उन्होंने जेल से बाहर आते ही सबसे पहले चितरंजन दास और मोतीलाल  नेहरू से मुलाकात की। इस मुलाकात में तय हुआ कि अंग्रेज सरकार से असहयोग की नीति को छोड़ दिया जायेगा तथा स्वराज पार्टी विधानसभाओं में कांग्रेस की ओर से भी बात रखेगी। एक प्रकार से कह सकते हैं की कांग्रेस की विधानसभाओं में प्रतिनिधि होगी। अगले ही वर्ष जून 1925 को दास की मृत्यु हो गई। 1926 में गांधीजी मोतीलाल नेहरू को कांग्रेस में वापस लाने में सफल हो गए। अब गांधीजी और दास के बीच हुए समझौते का कोई महत्व नहीं रह गया था। यद्यपि स्वराज पार्टी का कांग्रेस में औपचारिक विलय 1935 में हुआ था।

8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली विधानसभा में बम फेंककर बहरी अंग्रेज सरकार सहित पूरे देश को हिला दिया था।  6 जून 1929 को दिल्ली के सेशन जज लियोनॉर्ड मिडिल्टन की अदालत में भगत सिंह ने जो बयान दिया, उसने देश को अंदर तक क्रांतिकारियों और उनके बलिदान के बारे में विचार करने के लिए विवश कर दिया। लोग कांग्रेस और गांधीजी के स्थान पर भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को अपना आदर्श मानने लगे थे। तभी पंडित जवाहर लाल नेहरू को इसका तोड़ ध्यान में आया। 31 दिसम्बर 1929 के लाहौर अधिवेशन के लिए पंडित नेहरू को अध्यक्ष चुना गया। इसी अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का नारा दिया गया। इस अधिवेशन में निर्णय लिया गया कि 26 जनवरी 1930 को भारत का पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया जायेगा।

इस अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जो भाषण दिया, वह सोवियत संघ (रूस) के वामपंथी शासन से बहुत हद तक प्रभावित था। ऐसा लगा मानो अब कुछ ही वर्षों में देश स्वतंत्र हो जाएगा, क्योंकि कांग्रेस ने अंतिम लड़ाई के लिए बिगुल फूंक दिया है। भारत को स्वतंत्र होने से अब कोई भी ताकत नहीं रोक सकती। कांग्रेस के इस निर्णय से पार्टी के साथ जुड़े रहे किन्तु वैचारिक मतभेद के कारण अलग हो गए डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार सहित कई अन्य लोग भी प्रसन्न हुए। उन्हें लगा कि कांग्रेस वही कर रही है, जो वो चाहते थे। लेकिन इसका उद्देश्य कुछ और ही था।

1 अगस्त 1920 को जब बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु हुई थी। तब गांधीजी ने उनके नाम पर एक बड़ा जनजागरण अभियान पूरे देश में शुरू किया था। उनके इस प्रयास ने गांधीजी को भारत के राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने में बहुत अधिक सहायता की थी। पंडित नेहरू भी ऐसा ही चाहते थे। वो एक तीर से दो निशाने साध रहे थे। स्वतंत्रता दिवस की इस लहर से भगत सिंह ने जो माहौल तैयार किया था, उसका प्रभाव कम करने में कुछ सफलता मिली। 1931 में जब भगत सिंह का बलिदान हुआ, तब एक बार फिर लोगों के ध्यान में क्रांतिकारी विचार आने लगे, लेकिन कांग्रेस के स्वतंत्रता के दिखाए सपने के कारण इसका अधिक समय तक देशव्यापी व्यापक प्रभाव नहीं हो सका। हम सभी जानते हैं कि इसके बाद कांग्रेस में वार्षिक अधिवेशनों की तरह ही 26 जनवरी का एक और कार्यक्रम जुड़ गया, लेकिन उसने इसके लिए गंभीरतापूर्वक कोई प्रयास नहीं किया।

तीसरा गोलमेज सम्मलेन – पाकिस्तान निर्माण में एक और कदम

दूसरे गोलमेज सम्मलेन में गांधीजी क्रांतिकारियों को हिंसा फैलाने वाला बताकर उनके खिलाफ कार्रवाई को कानूनी रूप देने के लिए सहमती दे चुके थे। इसलिए कांग्रेस और गांधीजी को तीसरे गोलमेज सम्मलेन (17 नवंबर 1932) इस सम्मलेन में भाग लेने की जरुरत नहीं लगी। इस सम्मलेन में पहली बार पाकिस्तान बनाने पर चर्चा हुई। सम्मलेन में भाग लेने आये चौधरी रहमत अली ने भारत के मुस्लिम भाग को पाकिस्तान कहा। उसके पाकिस्तान में (P-पंजाब, A-अफगानिस्तान, KI-कश्मीर, S-सिंध, TAN-बलूचिस्तान) था। मुस्लिम लीग ने इसे आगे बढ़ाया और जिन्ना ने पाकिस्तान के निर्माण को अंजाम तक पहुंचाया। यद्यपि तीसरे गोलमेज सम्मलेन में पाकिस्तान का जो नक्शा पेश किया गया था, जिन्ना का पाकिस्तान उससे अलग था। सबसे बड़ी बात यह है कि दोनों के पीछे अंग्रेज थे। यदि कांग्रेस इस गोलमेज सम्मलेन में भाग लेती, तो शायद उसे पाकिस्तान की अवधारणा का विरोध करना पड़ता, किन्तु सम्मलेन में भाग न लेकर गांधीजी ऐसा करने से बच गए। इस सम्मलेन के ठीक बाद में भी अंग्रेजों की इस कुटिल चाल का गांधीजी ने कोई विशेष विरोध नहीं किया। वो जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन प्लान को अंजाम देने तक शांत रहे।

मुस्लिम लीग ने बंग-भंग आंदोलन के समय ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वो मुल्सिमों के लिए अलग प्रान्त चाहते हैं। भारत के प्रशासनिक ढांचे में मुस्लिमों के लिए अलग व्यवस्था का उनका प्रयास इस दिशा में चल रहा था। किन्तु अभी तक सर सैयद अहमद खान के बताये रास्ते पर चलने के कारण लीग भी कांग्रेस की ही तरह अधिकार अंग्रेजी शासन के अंतर्गत ही चाहती थी। बस अंतर सिर्फ इतना था कि लीग सिर्फ मुस्लिमों के लिए अधिकार मांगती थी और कांग्रेस गांधीजी के नेतृत्व में हिन्दू-मुस्लिम भाई चारे के नाम पर मुस्लिमों को पहले अधिकार देने की बात करती थी। तीसरे गोलमेज सम्मलेन के बाद से मुस्लिम लीग के मन में भी अलग विशेष अधिकार के स्थान पर अलग देश की भावना जोर पकड़ने लगी। लीग अपना जनाधार पहले ही मुस्लिमों को डरा कर बढ़ा रही थी कि कांग्रेस हिन्दू पार्टी है, वो मुस्लिमों का कभी भला नहीं होने देंगे। अब उसने यह कहना शुरू कर दिया कि हिन्दुओं के साथ रहने पर हमारा भला नहीं हो सकता और यदि इस्लाम को बचाना है, तो हमें अलग होना ही होगा।

यहां यह भी ध्यान में रखने वाली बात है कि तीसरे गोलमेज सम्मलेन तक अंग्रेज, कांग्रेस या खुद मुस्लिम लीग भी भारत से अंग्रेजों को पूरी तरह बाहर निकालने के बारे में विचार तक नहीं कर रहे थे। हां, क्रांतिकारी संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और कांग्रेस में गरम दल में इन दोनों के प्रति आत्मीय भाव रखने वाले कुछ नेता अवश्य इसका स्वप्न देख रहे थे। मुस्लिम लीग अपनी स्थापना के समय से मुसलमानों को भड़का रही थी और अब तो उसे पाकिस्तान का एक प्रस्तावित नक्शा भी मिल गया था, लेकिन इसके बाद भी पूरा देश एक सूत्र में बंधा रहे, देश के बंटवारे के बारे में कोई भी विचार न करे, इसके लिए किसी ने अनशन नहीं किया, गांधीजी के नेतृत्व में कोई परिणाम देने वाला आंदोलन खड़ा करने का प्रयास नहीं हुआ। क्योंकि पाकिस्तान का प्रस्ताव अंग्रेजों की शह पर, उनके द्वारा बुलाये गए गोलमेज सम्मलेन में आया था। इसलिए यदि कोई निर्णायक आंदोलन शुरू किया जाता, तो संभव था कि अग्रेजों पर 1857 जैसे प्रयास कर उस विद्रोह को कुचलने का दबाव बनता, जो गांधीजी सहित उस समय के अधिकांश कांग्रेसी नहीं चाहते थे।

कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू युग का प्रारंभ और गांधी हठ के आगे झुके बोस

अभी तक कांग्रेस का अध्यक्ष अगले एक वर्ष के लिए कौन होगा? इसका निर्णय उस वर्ष बुलाये गए अधिवेशन में बहुमत के आधार पर होता था। किन्तु कांग्रेस के अंदर गरम दल बन जाने के बाद यह सम्भावना बढ़ गई थी कि यह संगठन अब अग्रेजों के हाथ से निकल सकता है। इसलिए गांधी जी के कांग्रेस से जुड़ने के बाद विशेष अधिवेशनों का आयोजन भी हुआ। इस अधिवेशन (विशेष सत्र) का अध्यक्ष नया होता था। अर्थात अध्यक्ष को एक वर्ष पूर्ण होने से पहले ही अपना पद छोड़ना पड़ता था। सबसे पहले 1918 में बम्बई का विशेष सत्र आयोजित किया गया, इसके अध्यक्ष बने सैयद हसन इमाम, उन्होंने 1918 के दिल्ली अधिवेशन में चुने गए अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय का स्थान लिया। इसी प्रकार जनवरी 1920 में कलकत्ता अधिवेशन में लाला लाजपत राय अध्यक्ष चुने गए, किन्तु इसी वर्ष विजयराघवाचार्य को अध्यक्ष चुन लिया गया। यद्यपि इस बार कांग्रेस ने कलकत्ता अधिवेशन को विशेष सत्र के नाम पर आयोजित किया था। ऐसा नहीं था कि कोई भी अधिवेशन का अध्यक्ष लगातार दो बार नहीं चुना जा सकता है। 1907 के सूरत अधिवेशन व 1908 के मद्रास अधिवेशन दोनों के अध्यक्ष रास बिहारी घोष थे।

पंडित जवाहर लाल नेहरू भारतीय राजनिति में 1912 से अपने पिता मोतीलाल नेहरू के साथ सक्रिय थे। मोती लाल नेहरू का निधन 6 फरवरी 1931 को हुआ था। तब तक वो अपने पिता की राजनितिक विरासत पर दमदारी के साथ दावा ठोक चुके थे। मोतीलाल अपने जीवनकाल में ही लगातार दो बार 1929 व 1930 में अपने पुत्र जवाहर को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते हुए देख चुके थे। जवाहर ने अपने पिता मोतीलाल से यह अध्यक्षता प्राप्त की थी, जो 1928 के कोलकत्ता अधिवेशन के अध्यक्ष थे। लेकिन 1931 कराची अधिवेशन में वल्लभ भाई पटेल को अध्यक्ष चुन लिया गया और इस प्रकार एक परिवार के हाथ में जाती हुई कांग्रेस जवाहन के पास नहीं रही। अपने पिता के साथ ही जवाहर को गांधीजी का साथ और सहयोग लगातार मिल रहा था। इसलिए कांग्रेस में उनका कद कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ता ही गया। 1936 के लखनऊ और फिर 1937 के फैजपुर अधिवेशन में जवाहर अध्यक्ष चुन लिए गए। इस बार आजीवन कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रहने का उनका सपना नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने तोड़ा, वो 1938 के हरिपुरा अधिवेशन कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गए।

गांधीजी का कांग्रेस और देश में तब तक जो कद बन चुका था, बोस उससे परिचित थे, इसलिए वो गांधीजी के बातों को पूरी तरह से नजरअंदाज तो नहीं करते थे, लेकिन उनका झुकाव क्रांतिकारी विचारों की ओर अधिक था। कांग्रेस ने स्थापनाकाल से ही तय किया था कि वो अंग्रेजों को कोई बड़ा नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। गांधीजी भी ऐसा ही कर रहे थे, अभी तक उनका कोई भी आंदोलन इतना लम्बा नहीं चला था कि अंग्रेजों को भारत छोड़ कर जाना पड़े। किन्तु नेताजी अंग्रेजों को पूरी तरह भारत से बाहर निकालना चाहते थे। ऐसा करने से रोकने का गांधीजी के पास एक ही तरीका था कि वो अगली बार नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को अध्यक्ष न बनने दें, क्योंकि यदि नेताजी के विचारों को कांग्रेस ने मान्यता देना शुरू कर दिया, तो गांधीजी की कोई नहीं सुनेगा। इसी कारण जब अगले वर्ष जबलपुर अधिवेशन में सुभाष फिर अध्यक्ष चुन लिए गए, तो गांधीजी ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और नेताजी को त्यागपत्र देने के लिए विवश कर दिया।

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