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आज पूरे विश्व में एकात्म मानववाद के सिद्धांत को अपनाने की सबसे अधिक आवश्यकता

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– प्रहलाद सबनानी

पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय का जन्म दिनांक 25 सितम्बर 1916 को नगला चंद्रभान गांव उत्तर प्रदेश में हुआ था। आपके पिता का नाम भगवतीप्रसाद जी उपाध्याय एवं माता का नाम रामप्यारी उपाध्याय था। बचपन के साथ-साथ आपका पूर्ण जीवन ही बहुत संघर्षमय रहा था। आपकी आयु जब मात्र दो वर्ष की थी, तब वर्ष 2018 में, आपके पिता इस दुनिया से चल बसे थे। इन परिस्थितियों के बीच आपका पालन पोषण आपके नानाजी के घर पर हुआ। परंतु, कुछ समय पश्चात ही आपकी माताजी का भी देहांत हो गया और जब आपकी आयु मात्र 10 वर्ष की थी तब आपके नानाजी भी चल बसे। इस प्रकार आपने बहुत छोटी सी आयु में ही अपने पूरे परिवार को खो दिया था। अब आपको अपने भाई शिवदयाल जी का ही एक मात्र सहारा था। दोनों भाई अपने मामाजी के साथ रहने लगे।

दीनदयालजी अपने भाई से बहुत प्यार करते थे और आपने अपने भाई को सदैव एक अभिभावक के रूप में देखा। परंतु, नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था, तथा वर्ष 1934 में आपके भाई की भी मृत्यु हो गई। अब आपके साथ अपने परिवार का एक भी सदस्य नहीं बचा था। फिर भी आपने अपने जीवन में कभी भी अपनी जिन्दगी से हार नहीं मानी और जैसे इस पूरे देश को ही आपने अपना परिवार मान लिया था। इन विपरीत परिस्थितियों के बीच आपने अपनी पढ़ाई पर बिल्कुल भी आंच नहीं आने दी एवं आपने वर्ष 1936 में बीए स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। बाद में, आपने एमए की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। शिक्षा पूर्ण करने के तुरंत बाद ही आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। आप आजीवन संघ के प्रचारक रहे। आप मात्र 51 वर्ष की अल्पायु में दिनांक 11 फरवरी 1968 को इस दुनिया को छोड़कर चले गये। आपने अपने जीवनकाल में कई कृतियों की रचना की थी, जिनमें शामिल हैं – एकात्म मानववाद, भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन, जगद्गुरु शंकराचार्य, सम्राट चन्द्रगुप्त, राष्ट्र जीवन की दिशा, दो योजनाएं, राजनीतिक डायरी, आदि।

आपके बाल जीवन के कुछ प्रसंग सुनकर आपकी संवेदनाओं के बारे में स्पष्ट जानकारी मिलती है। एक बार आप आगरा में अपने नाना जी के साथ सब्जी खरीदने हेतु मंडी में गए एवं गलती से एक खोटा सिक्का सब्जी वाली माताजी को दे दिया। घर आकर जब उन्हें यह बात ध्यान में आई तो वे तुरंत उस सब्जी वाली माताजी के पास गए एवं उस माताजी के मना करने के बावजूद आपने उसकी रेजगारी में से खोटा सिक्का ढूंढकर उनको अच्छा सिक्का देकर घर वापिस आए और तब जाकर आपको संतोष हुआ। इसी प्रकार, एक बार आप पूजनीय गुरु गोलवलकर जी के साथ यात्रा कर रहे थे। गुरुजी दूसरी श्रेणी के डिब्बे में थे और उपाध्याय जी तृतीय श्रेणी के डिब्बे में थे। गुरु जी ने किसी कार्य के लिए आपको अपने दूसरी श्रेणी के डिब्बे में बुलाया और आपने गुरुजी के साथ दूसरी श्रेणी के डिब्बे में कुछ समय तक यात्रा की। कार्य समाप्त होने के बाद आप वापिस तृतीय श्रेणी के डिब्बे में आ गए और आपने टीसी से सम्पर्क कर उन्हें दो स्टेशनों के बीच की दूरी का दूसरी श्रेणी का किराया अदा किया क्योंकि आपने इन दोनों स्टेशन के बीच द्वितीय श्रेणी में यात्रा कर ली थी।

कालांतर में आदरणीय पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने देश के आर्थिक चिंतन को एक नयी दिशा देने का प्रयास किया था। आपने अपने आर्थिक चिंतन को “एकात्म मानव दर्शन” के नाम से देश के सामने रखा था। यह एक समग्र दर्शन है, जिसमें आधुनिक सभ्यता की जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए भारतीय विचारधारा के मूल तत्वों का समावेश किया गया है। आपका मानना था कि समाज के अंतिम छोर पर बैठे एक सामान्य व्यक्ति को ऊपर उठाने की सीढ़ी है, राजनीति। अपनी इस सोच को उन्होंने साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद या साम्राज्यवाद आदि से हटाकर राष्ट्रवाद का धरातल दिया। भारत का राष्ट्रवाद विश्व कल्याणकारी है क्योंकि उसने “वसुधैव कुटुम्बकम” की संकल्पना के आधार पर “सर्वे भवन्तु सुखिन:” को ही अपना अंतिम लक्ष्य माना है। यही कारण था कि अपनी राष्ट्रवादी सोच को उन्होंने “एकात्म मानववाद” के नाम से रखा। इस सोच के क्रियान्वयन से समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति का विकास होगा। उसका सर्वांगीण उदय होगा। यही हम सभी भारतीयों का लक्ष्य बने और इस लक्ष्य का विस्मरण न हो, यही सोचकर इसे “अन्त्योदय योजना” का नाम दिया गया। अंतिम व्यक्ति के उदय की चिंता ही अन्त्योदय की मूल प्रेरणा है।

दरअसल प्राचीन काल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक दृष्टि से भारत का दबदबा इसलिए भी था क्योंकि उस समय पर भारतीय संस्कृति का पालन करते हुए ही आर्थिक गतिविधियां चलाईं जाती थीं। परंतु, जब से भारतीय संस्कृति के पालन में कुछ भटकाव आया, तब से ही भारत का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर से वर्चस्व कम होता चला गया। दूसरे, आक्रांताओं ने भी भारत, जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था, को बहुत ही दरिंदगी से लूटा था। इस सबका असर यह हुआ कि ब्रिटिश राज के बाद तो कृषि उत्पादन में भी भारत अपनी आत्मनिर्भरता खो बैठा था। इसी वजह से स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कुछ आर्थिक चिंतकों द्वारा भारत को पुनः अपनी संस्कृति अपनाते हुए आगे बढ़ने की पैरवी की गई थी। परंतु, उस समय के शासकों ने समाजवाद का चोला ओढ़ना ज़्यादा उचित समझा। जिसके चलते आर्थिक क्षेत्र में भी कोई बहुत अधिक प्रगति नहीं की जा सकी। यदि देश में उसी समय पर आदरणीय पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के “एकात्म मानव दर्शन” के सिद्धांत के आधार पर अपनी आर्थिक नीतियां बनायी गई होतीं तो आज देश के विकास की कहानी कुछ और ही होती।

भारतीय संस्कृति में एकात्म सभी जगह पर दिखाई देता है और अनेकता में एकता भी भारतीय संस्कृति का ही विचार है। परमात्मा के विराट दर्शन में कई अंश दिखाई देते हैं परंतु सभी एक दूसरे से जुड़े हुए भी दिखाई देते हैं। हम लोग अपने मंदिरों अथवा घरों में विभिन्न देवी देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा कर पूजा करते हैं परंतु उन्हें एक रूप में भी देखते हैं। इस प्रकृति में भी समन्वय का भाव है। और तो और, प्रतिस्पर्धा में भी कहीं न कहीं जुड़ाव दिखाई देता है। यही एकात्म है। प्रकृति से अपने आप को जुड़ा महसूस किया इसीलिए भारत ने प्रकृति का उपयोग तो किया शोषण नहीं किया। भारत ने पर्यावरण की चिन्ता इसलिए की क्योंकि हमारा दृष्टिकोण भोगवादी नहीं है। एकात्मवादी है। हम सदैव अपने आप को प्रकृति से भी जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। हम लोग मानते हैं कि व्यक्ति का एकांगी नहीं बल्कि सर्वांगींण विकास हो और आत्मा सुखी अनुभव करे। देश के साथ ही पूरे विश्व को भी परिपूर्ण एकात्म मानववाद के सिद्धांत पर चलाना आज की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओं में भी यह प्रयास किया जाता है कि स्वयंसेवकों का मानसिक एवं शारीरिक विकास हो तथा वे अपने आप को पूरे विश्व के साथ जुड़ा हुआ महसूस करें। एकात्म मानववाद की विचारधारा पर आगे चलकर वसुधैव कुटुम्बकम के भाव को अपने आप में विकसित कर सकें। एकात्म हमें दृष्टि देता है कि हम जीवन में उदार होते जाएं और अपना जुड़ाव वैश्विक स्तर तक ले जाएं।

चाहे व्यक्ति हो,परिवार हो,देश हो या विश्व हो,किसी के भी विषय में चिंतन का आधार एकांगी न होकर एकात्म होना चाहिए। इस प्रक्रिया में देश या राष्ट्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई बन जाता है। अतः आज की परिस्थितियों में भारत को एवं भारत की चित्ति को समग्रता से समझना जरूरी है। भारत के “स्व” को जानकर अपने आप में “स्व” को जगाकर, देश के “स्व” को गौरवान्वित कर पूरे विश्व में भारत के “स्व” को प्रतिष्ठित करें,आज के संदर्भ में यही भारतीय नागरिकों से अपेक्षा है।

लेखक वरिष्ठ समाजसेवी हैं

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