अंग्रेज जिस प्रकार भारतीय राजाओं से सत्ता छीन रहे थे। कहीं उत्तराधिकारी विवाद को पैदा कर, तो कहीं कोई अन्य कारण बता कर। इस कारण इन सभी में अंग्रेजों के खिलाफ भारी असंतोष था। कुछ स्थानों पर संघर्ष भी देखने को मिला। अभी तक हमने जिन भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बारे में पढ़ा, उनका सीधा सम्बन्ध मंगल पाण्डेय के बलिदान के बाद शुरू हुए सशस्त्र संघर्ष से नहीं था। यद्यपि उनके प्रमुख संघर्ष का कालखंड यही था। इसके बाद भी यह बात ध्यान देने वाली है कि अंग्रेज सरकार और भारतीयों के बीच होने वाले इन संघर्षों में तेजी मंगल पाण्डेय को फांसी देने के बाद ही आई। अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय को 10 दिन पहले फांसी दी, इससे स्पष्ट हैं कि उन्हें भी इस बात की भनक लग गई थी की अब माहौल उनके विरुद्ध है। मंगल पाण्डेय के द्वारा विद्रोह की घोषणा करने के बाद पैदा हुए माहौल से अंग्रेजों को डर लगने लगा था।
29 मार्च 1857 को जब गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूसों को बांटा जा रहा था, तो मंगल पाण्डेय ने इसका विरोध किया। अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय की वर्दी और हथियार छीन लेने का आदेश दे दिया। जब अंग्रेज अधिकारी मेजर ह्यूसन आगे बढ़ा, तो मंगल पाण्डेय ने उसे मौत के घाट उतार दिया। इसमें उनकी सहायता ईश्वरी प्रसाद ने की। इसके बाद मंगल पाण्डेय ने एक दूसरे अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट बॉब को भी मार डाला। जनरल जान हेएरसेये के अनुसार जब अंग्रेजों ने जमींदार ईश्वरी प्रसाद से मंगल पाण्डेय को गिरफ्तार करने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया। वहां उपस्थित भारतीय सैनिकों ने भी ऐसा करने से मना कर दिया, सिर्फ एक सैनिक शेख पलटू सामने आया। इस कारण अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय के साथ ही ईश्वरी प्रसाद को भी गिरफ्तार कर लिया। 6 अप्रैल 1857 को कोर्ट मार्शल कर मंगल पाण्डेय को 18 अप्रैल 1857 को फांसी देने का निर्णय सुनाया गया। इसके बाद अंग्रेजों को एक और झटका तब लगा, जब बैरकपुर छावनी में तैनात जल्लादों ने मंगल पाण्डेय को फांसी देने से ही मना कर दिया, इसके बाद अंग्रेजों को कोलकाता से जल्लाद बुलाने पड़े। इससे डरे अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय को 10 दिन पहले 8 अप्रैल 1857 को ही फांसी दे दी।
इसके कुछ दिन बाद ही 21 अप्रैल 1857 को उनका सहयोग करने के आरोप में ईश्वरी प्रसाद को भी अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया। इन दोनों क्रांतिकारियों के संघर्ष का समय भले ही कुछ घंटे या कुछ दिन रहा हो, लेकिन इस बलिदान की चर्चा किसी आग की तरह पूरे देश में फैल गई। परिणाम यह हुआ कि जगह-जगह अंग्रेज सरकार से संघर्ष शुरू हो गया। सभी अपने-अपने स्तर पर इस लड़ाई को आगे बढ़ा रहे थे, लेकिन कोई एक सक्षम नेतृत्वकर्ता न होने के कारण यह प्रयास लगभग दो वर्ष तक चलने के बाद अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया।
राव कदम सिंह
मेरठ से क्रांति के अग्रिम ध्वज वाहक मंगल पाण्डेय थे। भले ही उनके विद्रोह के समय उन्हें पर्याप्त समर्थन नहीं मिला, जिसके कारण उनका बलिदान हो गया, किन्तु इस चिंगारी ने इसी शहर के एक और क्रांतिकारी राव कदम सिंह को और अधिक क्रियाशील बना दिया। राव का प्रमुख प्रभाव मवाना, हिस्तानपुर और बहसूमा क्षेत्र में था। यह मेरठ शहर के पास का क्षेत्र था। इनकी प्रमुख पहचान सफेद पगड़ी थी। यह इस बात का प्रतीक थी कि वो अपना कफन साथ रखते हैं अर्थात मृत्यु के लिए सदैव तैयार रहते हैं। वे परीक्षतगढ़ के अंतिम राजा नैनसिंह के भाई के पौत्र थे। उनके साम्राज्य में 349 गांव थे। 1818 में नैनसिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने इस साम्राज्य को हथिया लिया था। राव सहित मेरठ के क्रांतिकारियों को जैसे ही मंगल पाण्डेय के विद्रोह की सूचना मिली। इन लोगों ने अंग्रेजों की संचार और यातायात व्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया। संभव है कि ऐसी ही प्रतिक्रियाओं से डरकर अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय को 10 दिन पूर्व ही फांसी दी हो।
राव कदम सिंह की वीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन मेरठ के कलक्टर आर.एच. डनलप ने अपने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को बताया कि क्षेत्र के क्रांतिकारियों ने राव कदम सिंह को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया गया है। उन्होंने अपने क्रांतिकारी भाई दलेल सिंह के साथ मिलकर अंग्रेज पुलिस को परीक्षतगढ़ से हटने के लिए मजबूर कर दिया। इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के मददगारों पर हमला बोल दिया। कुछ गद्दारों को छोड़ दें, तो लोग राजपरिवार से होने के कारण राव कदम सिंह को अपना राजा मानने लगे थे। कदम सिंह के रूप में उन्हें अपने बीच का एक राजा मिल गया था। राव को पता था कि अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए उन्हें अधिक से अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए उन्होंने अपने भाईयों दलेल सिंह, पिर्थी सिंह और देवी सिंह के साथ मिलकर बिजनौर में संघर्ष कर रहे देशभक्तों से हाथ मिला लिया। इस संयुक्त दल ने बिजनौर के मंडावर, दारानगर और धनौरा क्षेत्रों पर हमला बोलकर वहां से अंग्रेजों को मारकर भगा दिया। अंग्रेज राव कदम सिंह के बढ़ते प्रभाव से भयभीत थे, इसलिए उन्होंने मेजर विलयम्स को जिम्मेदारी दी। उसने 4 जुलाई 1857 को हमला बोल राव कदम सिंह को परीक्षतगढ़ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और बहसूमा में अंग्रेजों के विरुद्ध नया मोर्चा खोल दिया।
राव कदम सिंह के समर्थक क्रांतिकारियों ने 18 सितंबर को मवाना पर बड़ा हमला बोला लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद राव ने बिजनौर जाकर संघर्ष जारी रखा। उन्होंने बिजनौर के साथ ही मुजफ्फरनगर और हरिद्वार तक अंग्रेजों को जगह-जगह उलझाए रखा। लेकिन दूसरी ओर बिजनौर और बरेली सहित विभिन्न स्थानों पर क्रांतिकारियों की हार के कारण उनको मिलने वाला समर्थन लगातार कम हो रहा था। इस कारण यह वीर सपूत गुमनामी की चादर में कहीं खो गया। अंग्रेजों द्वारा उन्हें पकड़ने के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। अतः यह तो निश्चित है कि राव कदम सिंह अंत तक स्वतंत्र ही रहे।
कोतवाल धन सिंह
8 अप्रैल को मंगल पाण्डेय को फांसी दी जा चुकी थी। इससे अंग्रेजों की मुश्किल कम होने की जगह बढ़ती चली गई। बैरकपुर से शुरू हुई यह क्रांति सबसे पहले आस-पास के क्षेत्रों में फैली। धन सिंह उस समय मेरठ की सदर कोतवाली के प्रमुख थे। मेरठ से कोतवाल धन सिंह ने 10 मई 1857 को एक बड़ा विद्रोह किया। उन्होंने सबसे पहले अंग्रेज सरकार के विश्वासपात्र सैनिकों को कोतवाली के भीतर ही रहने का आदेश दिया। इसके बाद रात 2 बजे जेल से 836 कैदियों को छोड़ दिया और जेल में आग लगा दी। ये कैदी भी अंग्रेजों से संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों के साथ मिल गए। इनमें से कई क्रांतिकारी मेरठ के आस-पास अंग्रेजों से होने वाले संघर्षों में शामिल रहे। लेकिन अंग्रेजों ने इस घटना के लिए कोतवाल होने के कारण धन सिंह को जिम्मेदार मानते हुए 4 जुलाई 1857 को फांसी दे दी।
मेरठ गजेटियर के अनुसार 4 जुलाई को ही पांचली में विद्रोह को दबाने के लिए 56 घुड़सवार, 38 पैदल सैनिक और 10 तोपों के साथ अंग्रेजों ने हमला कर सैकड़ों किसानों को मौत के घाट उतार दिया। यह नरसंहार दशहरे तक निरंतर चलता रहा। एक उल्लेख से पता चलता है कि अंग्रेजों ने दशहरे के दिन ग्राम गगोल को पूरी तरह से नष्ट कर दिया और उसी दिन 9 ग्रामीणों को पकड़कर फांसी दे दी। पहले मंगल पाण्डेय और फिर कोतवाल धन सिंह इन दोनों के बलिदान ने उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में स्वतंत्रता आंदोलन में नई ऊर्जा का संचार किया। धन सिंह गुर्जर समाज से आते थे, इसलिए उनका दमन करने के चक्कर में अंग्रेजों ने बड़े स्तर पर इस समाज को नाराज कर दिया। इसके बाद यह भी देखने को मिला कि 1857 में जहां भी गुर्जर समाज सशक्त था, उसने वहां अंग्रेजों से लोहा लिया।
राव उमरावसिंह
राव उमरावसिंह उत्तर प्रदेश के दादरी भटनेर साम्राज्य के राजा थे। उनके पूरे परिवार ने 1857 की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण योगदान दिया। राव उमरावसिंह का सहयोग उनके पिता किशनसिंह के भाई राव रोशनसिंह और उनके बेटे राव बिशनसिंह ने दिया। 1857 के विद्रोह से प्रेरणा लेकर इस परिवार ने आस-पास के ग्रामीणों को साथ लेकर 12 मई 1857 को सिकंदराबाद तहसील पर हमला कर दिया और यहाँ के हथियारों व खाजाने पर इनका अधिकार हो गया। बुलंदशहर से अंग्रेज सेना ने हमला कर दिया। एक सप्ताह तक दोनों में संघर्ष होता रहा, किन्तु अंत में 46 क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी से इस प्रयास में राव उमरावसिंह को हार का सामना करना पड़ा, लेकिन वो वहां से निकलने में सफल रहे।
उमरावसिंह ने इसके जवाब में 21 मई को बुलंदशहर जिला कारागार पर हमला बोलकर अपने सभी साथियों को छुड़ा लिया। बाहर से सेना पहुंचने के कारण अंग्रेज मजबूत हो गए, 30 मई को दो दिन तक उमरावसिंह व अंग्रेजी सेना में हिंडन नदी के तट पर संघर्ष हुआ, इसमें अंग्रेजों को हार का सामना करना पड़ा। 26 सितम्बर 1857 को कासना-सूरजपुर के मध्य उमरावसिंह और अंग्रेजों के बीच संघर्ष हुआ। तब तक अंग्रेज कई स्थानों पर क्रांति को दबा चुके थे। इसका असर उमरावसिंह और अंग्रेजों की सेना पर भी पड़ा। राव की हार हुई, उन्हें गिरफ्तार कर साथियों के साथ फांसी पर लटका दिया गया। इसी प्रकार सहारनपुर के फतुआसिंह, सीकरी खुर्द के शिब्बासिंह, मेरठ के निकट गगोल गांव के नम्बरदार झुंडसिंह, गुरुग्राम (गुडगाँव) के हिम्मत सिंह खटाणा, भजन सिंह, दिल्ली के दयाराम, बिजरोल के बाबा शाहमल सिंह, धौलपुर की देवहंस कषाणा (देवा), हापुड़ के चौधरी कन्हैया सिंह व चौधरी फूल सिंह, राव दरगाही सहित विभिन्न अन्य नाम हैं, जिनका उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक है।
फोटो साभार : न्यूज 18
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