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रानी लक्ष्मीबाई : प्राण दे दिए, लेकिन झाँसी नहीं दी

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– सारांश कनौजिया

प्रारंभिक जीवन

कहा जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई एक मर्दानी की तरह अंग्रेजों से 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में लड़ी थीं। यह बोलने वाले लोगों के भाव का मैं सम्मान करता हूं, लेकिन यदि हम कहें कि लक्ष्मीबाई देवी दुर्गा और देवी काली की तरह लड़ी, तो मुझे लगता है कि यह और भी उपयुक्त होगा। उन्होंने हर उस शौर्य का परिचय दिया जो किसी योद्धा की पहचान होता है। उनको इसके संस्कार तो बचपन में ही मिले थे। मणिकर्णिका या मनु तांबे जो बाद में लक्ष्मीबाई बनी, उनका जन्म 19 नवम्बर 1828 को वाराणसी में हुआ था। उनके पिता मोरोपंत तांबे, वीर मराठा बाजीराव द्वितीय के दरबार में कार्यरत थे। उनकी माता भागीरथीबाई धर्मनिष्ठ महिला थीं। दरअसल मनु का परिवार मूल रूप से महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले की गुहागर तालुका के तांबे गाँव से था। संभवतः इसीलिए उनका उपनाम तांबे पड़ा। उनके पिता ने मनु को भी बचपन से शास्त्रों के साथ शस्त्रों की भी शिक्षा दी। हमारे यहां महिलाओं को विदुषी बनाने का प्रचलन हमेशा से रहा है।

वैवाहिक जीवन

बीच के कुछ कालखंड को छोड़ दे तो हिन्दू समाज में महिलाओं को भी वही स्थान प्राप्त रहा है, जो पुरुषों को मिला। यह अलग बात है कि महिलाओं और पुरुषों ने आपसी समझ से अपने-अपने काम बांट लिए। इसका उदाहरण मनु के जीवन से भी हमें मिलता है। बचपन से स्वभाव में चंचल मनु को उनके पिता दरबार भी ले जाते थे, यहां उन्हें उनकी चंचलता के कारण एक और नाम मिला ‘छबीली’। किन्तु ऐसा नहीं था कि मनु की चंचलता ने उनकी प्रतिभा को प्रभावित किया हो। इसी का परिणाम था कि 1842 में उनका विवाह झांसी के मराठा शासक राजा गंगाधर राव नेवालकर से हुआ और वो रानी लक्ष्मीबाई बन गई। लेकिन इसके बाद उनके जीवन का अच्छा समय शुरू होने के स्थान पर चुनौतियों की श्रृंखला शुरू हो गई। विवाह के उपरांत प्रारंभ के कुछ वर्ष का समय सुखद गुजरा। उसके बाद उन्होंने सितंबर 1851 में एक लड़के को जन्म दिया, जिसका नाम बाद में दामोदर राव रखा गया, जिसकी जन्म के चार महीने बाद एक पुरानी बीमारी के कारण मृत्यु हो गई। उनके पति ने अपनी मृत्यु से एक दिन पहले गंगाधर राव के चचेरे भाई के बेटे आनंद राव को गोद लिया था, जिसका नाम बदलकर दामोदर राव रखा गया था। किन्तु इससे पहले कि वो अपने दत्तक पुत्र को सारी जिम्मेदारियां दे पाते, 21 नवम्बर 1853 को उनका निधन हो गया।

अंग्रेजों से संघर्ष

अंग्रेजों ने उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इनकार करते हुए साजिश रच कर रानी लक्ष्मीबाई को झांसी का किला छोड़कर रानी महल जाने के लिए विवश कर दिया। इस अत्याचार से लक्ष्मीबाई कमजोर नहीं हुईं, बल्कि उन्होंने इसका प्रतिशोध लेने का निर्णय लिया। 1857 के पहले स्वतंत्रता समर में इसी कारण झांसी भी क्रांति का एक प्रमुख केंद्र था। चंचल मनु को अब समय ने एक गंभीर योद्धा बना दिया था। एक ऐसी वीरांगना, जिसने प्रण लिया था कि वो अपने प्राण त्याग देगी, लेकिन अपनी झांसी किसी भी कीमत पर अंग्रेजों को नहीं देगीं। अंग्रेजों की सेना से मुकाबला करने के लिए उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं को भी प्रशिक्षण दिया। संभव था कि वो जौहर के स्थान पर रणभूमि में बलिदान होने को उस समय अधिक उपयुक्त समझती होंगी, क्योंकि वो स्वयं भी तो एक महिला थीं, जो अंग्रेजों से अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही थीं। उनके लिए समस्या सिर्फ अंग्रेज ही नहीं थे, पड़ोसी राज्य भी थे। इस मुश्किल घड़ी में साथ देने की जगह वो साम्राज्य हड़पने में अधिक रूचि रखते थे। ओरछा और दतिया के राजाओं ने लक्ष्मीबाई को अबला और असहाय मानकर झांसी पर सितम्बर और अक्टूबर 1857 के दौरान आक्रमण कर दिया। बड़ी ही वीरता के साथ इस वीरांगना ने उनके हमलों को नाकाम कर दिया।

10 मई 1857 को मेरठ में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू हुआ। जब विद्रोह की खबर झाँसी तक पहुँची, तो रानी ने ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारी कैप्टन अलेक्जेंडर स्केन से अपनी सुरक्षा के लिए हथियारबंद लोगों का एक दल जुटाने की अनुमति माँगी थी, जिसे स्केन ने स्वीकार कर लिया था। बाद में यही हथियारबंद सैनिक स्वतंत्रता संग्राम में रानी के सहायक बने। जनवरी 1858 में अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण के लिए आगे बढ़ना शुरू किया और 23 मार्च 1858 को अंग्रेजों ने झाँसी को घेर लिया। जब लक्ष्मीबाई को लगा कि वो अकेले अंग्रेजों से जीत नहीं पाएंगी, तो उन्होंने तात्या टोपे को सहायता के लिए संदेश भिजवाया। तात्या 20,000 से अधिक सैनिकों के साथ 31 मार्च 1958 को झाँसी घेरे हुए अंग्रेजों से संघर्ष करने पहुंच गए। किन्तु अंग्रेजों की तैयारी अधिक थी। 2 अप्रैल को अंग्रेजों ने झाँसी के किले को तोड़ने के प्रयास शुरू कर दिए। अब तक अंग्रेजी सेना ने झाँसी शहर में भीषण नरसंहार शुरू कर दिया था। वो बच्चों और महिलाओं पर भी किसी प्रकार की दया नहीं दिखा रहे थे। इस बारे में थॉमस लोवे ने लिखा, “शहर के पतन को चिह्नित करने के लिए कोई मौडलिन (ऐसी घटना जो आपकी आँखों में आँसू लाती हो या आपको बहुत भावुक महसूस कराती हो।) क्षमादान नहीं था।”

रानी लक्ष्मीबाई की सेना अपेक्षाकृत कम थी। ऐसे में वो अपने पुत्र दामोदर को लेकर बचे हुए सैनिकों के साथ कालपी के लिए निकल गईं। 22 मई को ब्रिटिश सेना ने कालपी पर आक्रमण कर रानी लक्ष्मीबाई को फिर घेर लिया। लेकिन यहाँ भी रानी को हार का सामना करना पड़ा। रानी एक युद्ध हारी थीं, पूरी लड़ाई नहीं। वो और तात्या टोपे ग्वालियर की ओर बढ़ चले। दोनों ने संयुक्त रूप से ग्वालियर के एक किले पर हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया। लेकिन उन्हें अन्य लोगों का सहयोग अभी भी नहीं मिल रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कि 16 जून 1858 को अंग्रेज जनरल ह्यूरोज ने ग्वालियर जिले के मोराज क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया।

17 जून को इस लड़ाई की आग रानी लक्ष्मीबाई तक पहुंच गई और अंग्रेज सेना से उनका संघर्ष शुरू हो गया। 18 जून 1858 में जनरल ह्यूरोज ने लक्ष्मीबाई को चारों ओर से घेर लिया। रानी लक्ष्मीबाई लड़ते-लड़ते बुरी तरह से घायल हो चुकी थीं। ऐसे में रामबाग तिराहे से नौगजा रोड की तरफ बढ़ते समय अपने घोड़े के नदी पार ना कर पाने के कारण वो आगे नहीं बढ़ सकी (रानी लक्ष्मीबाई को घुड़सवारी का शौक बहुत पहले से था। इतिहासकारों के अनुसार उनके प्रमुख घोड़ों के नाम सारंगी, पवन और बादल थे। अपनी मृत्यु के समय वो बादल नाम के घोड़े पर सवार थीं।)। 18 जून को ही रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं। यद्यपि उनकी मृत्यु कैसे हुई और उनका अंतिम संस्कार किस प्रकार किया गया, इसको लेकर मतभेद हैं। किन्तु एक बात पर लगभग सभी सहमत हैं कि अंग्रेजों के लाख प्रयासों के बाद भी वो रानी लक्ष्मीबाई को जिन्दा या मृत्यु के बाद उनके शरीर को छू भी नहीं सके।

रानी लक्ष्मीबाई की वीरता को अंग्रेजों का नमन

कोई व्यक्ति कितना वीर है, यह बात जाननी है, तो उसके विरोधियों से उनके बारे में जानना चाहिए। अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई को रोकने की जिम्मेदारी जनरल ह्यूरोज को दी थी। इस अंग्रेज अधिकारी ने स्वयं अपनी ऑफिसियल डायरी में रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और रणकौशल को सैल्यूट किया है।

रानी लक्ष्मीबाई के बारे में कर्नल  मैलेसन का मानना था, “अंग्रेजों की नजर में उनकी जो भी खामियां रही हों, उनके देशवासियों को यह बात हमेशा याद रहेगी कि उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया था और उन्हें विद्रोह के लिए प्रेरित किया गया था और वह अपने देश के लिए जीयीं और मरीं, हम भारत के लिए उनके योगदान को नहीं भूल सकते।”

दूसरे शब्दों में कहें तो उसने भी माना कि वीरता के मामले में रानी लक्ष्मीबाई हार कर भी जीत गईं।

सन्दर्भ

भारत : 1857 से 1957 (इतिहास पर एक दृष्टि), पुस्तकनामा प्रकाशन, वर्ष 2022

लक्ष्मीबाई, झाँसी की रानी, एलन कॉप्सी, 6 दिसंबर 2012

मणिकर्णिका कौन है?,  इंडियन एक्सप्रेस, 21 जुलाई 2017

एडवर्डस, माइकल रेड ईयर, 1975, लंदन: स्फीयर बुक्स

फोटो साभार : अमर उजाला

लेखक मातृभूमि समाचार के सम्पादक हैं.

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