बाबा बुद्ध जी (1506-1631 ई.) : सिख धर्म के महान संरक्षक
बाबा बुद्ध जी, जिनका मूल नाम बूढ़ा था, सिख इतिहास के सबसे सम्मानित और प्रमुख व्यक्तियों में से एक हैं। उनका जीवन काल 1506 ईस्वी से 1631 ईस्वी तक रहा, इस दौरान उन्होंने सिख धर्म के पहले छह गुरुओं (गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु हरगोबिंद साहिब जी तक) की सेवा का अनूठा सम्मान प्राप्त किया।
प्रारंभिक जीवन और नामकरण
उनका जन्म 6 अक्टूबर, 1506 ईस्वी को अमृतसर के पास कथू नंगल गाँव में एक रंधावा जाट परिवार में हुआ था। किशोरावस्था में, जब वे गाँव के बाहर मवेशी चरा रहे थे, तब उनकी भेंट पहले सिख गुरु, गुरु नानक देव जी से हुई। बालक बूढ़ा ने गुरु जी से जीवन, मृत्यु और मोक्ष के बारे में गहरे प्रश्न पूछे। बालक की ज्ञान भरी बातें सुनकर गुरु नानक देव जी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने कहा, “तुम बच्चे नहीं हो, तुम तो बूढ़े (बुद्धिमत्ता में बड़े) हो।” इस आशीर्वाद के बाद, बूढ़ा को भाई बुद्ध और बाद में श्रद्धापूर्वक बाबा बुद्ध जी के नाम से जाना जाने लगा।
सिख धर्म में अद्वितीय योगदान
बाबा बुद्ध जी का योगदान केवल सेवा तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने सिख संस्थाओं के निर्माण और गुरु परंपरा को आगे बढ़ाने में केंद्रीय भूमिका निभाई। बाबा बुद्ध जी को एक अनोखा और पवित्र सम्मान प्राप्त था। उन्होंने गुरु नानक देव जी के बाद के पाँच गुरुओं (गुरु अंगद देव जी, गुरु अमर दास जी, गुरु राम दास जी, गुरु अर्जन देव जी, और गुरु हरगोबिंद साहिब जी) को औपचारिक रूप से गुरुगद्दी का तिलक लगाकर उन्हें गुरु पद पर सुशोभित किया।
जब गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ईस्वी में आदि ग्रंथ (गुरु ग्रंथ साहिब) का संकलन पूरा किया और उसे श्री हरमंदिर साहिब में स्थापित किया, तब उन्होंने बाबा बुद्ध जी को पहले ग्रंथी (पवित्र ग्रंथ के संरक्षक और व्याख्याकार) के रूप में नियुक्त किया। उन्होंने गुरु अमर दास जी के निर्देश पर गोइंदवाल साहिब में बाउली साहिब के निर्माण कार्य की देखरेख की। उन्होंने गुरु राम दास जी और गुरु अर्जन देव जी के समय में अमृतसर में अमृत सरोवर (स्वर्ण मंदिर का सरोवर) की खुदाई और निर्माण कार्य में सक्रिय रूप से सेवा की। स्वर्ण मंदिर परिसर में वह पवित्र बेर बाबा बुद्ध साहिब का पेड़ आज भी मौजूद है, जिसके नीचे बैठकर वे सरोवर के काम की निगरानी करते थे।
गुरु अर्जन देव जी की शहादत के बाद, छठे गुरु, गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने ‘मीरी’ (सांसारिक शक्ति) और ‘पीरी’ (आध्यात्मिक शक्ति) के प्रतीक के रूप में अकाल तख्त साहिब का निर्माण शुरू करवाया। उन्होंने भाई गुरदास जी के साथ बाबा बुद्ध जी को ही इस सर्वोच्च सिख आसन के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी थी। गुरु अर्जन देव जी ने अपने पुत्र हरगोबिंद (जो बाद में गुरु बने) को शस्त्र विद्या और धार्मिक शिक्षा देने की जिम्मेदारी बाबा बुद्ध जी को सौंपी थी।
बाबा बुद्ध जी ने लगभग 125 वर्ष की आयु तक सेवा और भक्ति का जीवन जिया। उनका निधन 1631 ईस्वी में रामदास नामक गाँव में हुआ। छठे गुरु, गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने स्वयं उनकी अंतिम संस्कार की रस्में पूरी कीं, जो उनकी महानता और गुरुओं के साथ उनके गहरे संबंध को दर्शाता है।
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