नई दिल्ली. मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई ने साल 1979 के रेप केस में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संस्थागत शर्मिंदगी का क्षण बताया है. उन्होंने स्वीकार किया कि इस मामले में कोर्ट ने अपने फैसले से नागरिकों को निराश किया. सीजेआई बी आर गवई ने यह भी कहा कि ये लोगों की सतर्कता और साहस है कि उन्होंने कोर्ट को इस पर सालों तक जवाबदेह बनाए रखा.
सीजेआई बी आर गवई ने 30वें सुनंदा भंडारे मेमोरियल लेक्चर में अपने संबोधन में ये बातें कही हैं. वह यहां जेंडर इक्वेलिटी और समावेशी भारत के निर्माण में कानून के विकास पर अपने विचार रख रहे थे. साल 1979 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदिवासी लड़की से थाने में रेप मामले में दो पुलिसकर्मियों को रिहा कर दिया था. कोर्ट ने माना था कि लड़की की सहमति से पुलिसकर्मियों ने उसके साथ संबंध बनाए. कोर्ट का कहना था कि लड़की के शरीर पर कोई निशान नहीं मिले, जिससे साबित होता हो कि उसके साथ जबरदस्ती की गई और उसने इसका विरोध किया.
बी आर गवई ने कहा, ‘मेरे ख्याल में यह फैसला भारत के संस्थागत और न्यायिक इतिहास का सबसे ज्यादा परेशान करने वाला क्षण है, जहां ज्यूडिशियल सिस्टम उसी की गरिमा की रक्षा नहीं कर सका, जिसकी रक्षा करना उसका उद्देश्य था. ये फैसला देश के लिए टर्निंग पॉइंट भी था, जिसकी वजह से देशभर में हुए जनता और महिला संगठनों के समूहों ने मॉडर्न इंडियन वूमेन के राइट्स के लिए आंदोलन को प्रज्वलित किया.’
उन्होंने कहा कि इस फैसले ने क्रिमिनल लॉ की कमियों को उजागर किया और इनमें संशोधन की जरूरत को उत्प्रेरित किया. इस फैसले ने सहमति की अवधारणा को फिर से परिभाषित किया और कस्टोडियल रेप में कानूनी सुरक्षा को मजबूत किया.
जेंडर जस्टिस के लिए कई क्रांतिकारी कानून लाए गए और 1979 का फैसला छोड़कर लैंगिक समानता के लिए कोर्ट ने भी कई फैसलों के जरिए योगदान दिया. उन्होंने कहा कि इसके परिणामस्वरूप परिवार और रीति-रिवाज में अंतर्निहित संरचनात्मक असमानताएं समाप्त हो गईं और निर्भरता के हाशिए से महिलाएं संवैधानिक नागरिकता के केंद्र में आ गईं.
साभार : एबीपी न्यूज
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