लाला हरदयाल का दिल्ली में एक पंजाबी परिवार में 14 अक्टूबर 1884 को जन्म हुआ था। उनके पिता गौरी दयाल माथुर उर्दू-फ़ारसी के विद्वान थे। वो दिल्ली के जिला न्यायालय में रीडर के पद पर कार्यरत थे। उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से संस्कृत में स्नातक तथा पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। उन्हें संस्कृत के साथ ही अंग्रेजी, उर्दू और फारसी भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था। लाला हरदयाल ने दोनों डिग्रियां प्रथम श्रेणी से प्राप्त की। वो 1905 में आगे की पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, इंग्लैंड चले गए। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें आई.सी.एस. (भारतीय प्रशासनिक सेवा) में कार्य करने का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया और साथ ही अंग्रेजों के द्वारा दी जा रही छात्रवृत्ति को भी त्याग दिया।
आखिर जो लाला हरदयाल अंग्रेजों की छात्रवृत्ति पर लंदन पढ़ने के लिए गए थे, आखिर उनके मन में अचानक देश प्रेम की भावना कैसे पैदा हो गई? इसका उत्तर जानने के लिए उनके इंग्लैंड के जीवन पर प्रकाश डालना होगा। इंग्लैंड में रहते हुए उनका संपर्क श्यामजी कृष्ण वर्मा, भीकाजी कामा और वीर सावरकर जैसे क्रांतिकारियों से हुआ। इसके बाद वे लंदन में ‘इंडिया हाउस’ के सक्रिय सदस्य बने। यहीं से उनका जीवन बदल गया। 1908 में वे भारत वापस आ गए। यहाँ भी उनका संपर्क लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं से आया। क्योंकि ये नेता भले ही कांग्रेस में थे, लेकिन ये क्रांतिकारी विचारों का भी उतना ही सम्मान करते थे। इसलिए लाला हरदयाल को यहाँ भी उस विचारधारा का समर्थन प्राप्त हुआ, जो उन्होंने इंग्लैंड के ‘इंडिया हाउस’ से प्राप्त की थी।
जब से लाला हरदयाल ने अंग्रेजों का प्रस्ताव और उनकी छात्रवृत्ति छोड़ी थी, तभी से अंग्रेज उन पर नजर बनाए हुए थे। इसीलिए वो 1908 में भारत छोड़कर विदेश चले गए। वो पेरिस, अल्जीरिया और मार्टिनिक होते हुए 1911 में अमेरिका पहुँचे। यहाँ उन्होंने सैन फ्रांसिस्को में 1913 को गदर पार्टी की स्थापना की। उनके द्वारा इस संगठन में सोहन सिंह भाकना और करतार सिंह सराभा जैसे सिख प्रवासियों को शामिल किया गया। उन्होंने गदर नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका भी शुरू की। उनका उद्देश्य लोगों को 1857 जैसी क्रांति के लिए प्रेरित करना था। के सहयोग से ‘गदर पार्टी’ की स्थापना की। इस पार्टी का मुख्य उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराना था।
जब 1914 में प्रथम विश्व युद्ध में प्रवासी भारतीयों से अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का अनुरोध किया। उन्होंने हथियार और गोला-बारूद भारत भेजकर क्रांतिकारियों की मदद करने का प्रयास किया, लेकिन उनकी मुखबरी के कारण उनका यह प्रयास विफल हो गया। अमेरिका में ही 1914 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, किन्तु बाद में जमानत भी मिल गई। लाला हरदयाल ने इसका लाभ उठाया और वो अमेरिका छोड़कर स्विट्जरलैंड पहुँचने में सफल हो गए। इसके बाद उन्होंने जर्मनी सहित कई यूरोपीय देशों का दौरा भी किया। उनके द्वारा बर्लिन समिति में भी सक्रिय योगदान दिया। इस संगठन को भारतीय स्वतंत्रता समिति भी कहा जाता था।
लाला हरदयाल क्रांति के साथ ही साहित्य के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे। उन्होंने अपने विचार हिंट्स फॉर सेल्फ कल्चर, फोर्टी-फोर मंथ्स इन जर्मनी एंड तुर्की, सोशल कानक्वेस्ट ऑफ दि हिन्दू रेस और बोधि-सत्व डॉक्ट्रीन्स जैसी पुस्तकों को लिखकर व्यक्त किये।
अंग्रेजों ने 1938 में लाला हरदयाल को भारत वापस लौटने की अनुमति दे दी। लेकिन 4 मार्च 1939 को वापस लौटने के दौरान अमेरिका के फिलाडेल्फिया में उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजों ने ही धोखे से उनकी हत्या करवा दी, जिससे उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों पर विराम लगाया जा सके।
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