नई दिल्ली. ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह’, ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’, ‘आकाश धरती को खटखटाता है’, और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’… जैसी रचनाएं लिखने वाले मशहूर वरिष्ठ कवि और कथाकार विनोद कुमार शुक्ल नहीं रहे. अपनी जादुई लेखन शैली के लिए मशहूर विनोद कुमार शुक्ल का 88 साल की उम्र में निधन हो गया. रायपुर के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) ने उनके निधन की पुष्टि की है. वे पिछले कुछ दिनों से अस्वस्थ थे और अस्पताल में भर्ती थे. विडंबना यह है कि अभी पिछले महीने ही उन्हें हिंदी साहित्य के सर्वोच्च सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ (2024) देने की घोषणा की गई थी. पुरस्कार की घोषणा के कुछ ही हफ्तों बाद उनका यूं चले जाना साहित्य जगत को स्तब्ध कर गया है.
बहुत लिखना था, लेकिन कम लिख पाया
जब हाल ही में उनके नाम की घोषणा ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए हुई थी, तब अपनी साहित्यिक यात्रा को याद करते हुए उन्होंने एक बेहद भावुक प्रतिक्रिया दी थी. उन्होंने कहा था, मुझे बहुत लिखना था, लेकिन मैं बहुत कम लिख पाया. मैंने बहुत देखा, बहुत सुना, बहुत महसूस किया, लेकिन उसका एक अंश ही लिख पाया. उनकी यह विनम्रता उनके व्यक्तित्व का हिस्सा थी. वे एक ऐसे लेखक थे जो बोलते बहुत धीमे थे, लेकिन उनकी साहित्यिक आवाज़ सरहदों के पार तक गूंजती थी.
जब हाल ही में उनके नाम की घोषणा ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए हुई थी, तब अपनी साहित्यिक यात्रा को याद करते हुए उन्होंने एक बेहद भावुक प्रतिक्रिया दी थी. उन्होंने कहा था, मुझे बहुत लिखना था, लेकिन मैं बहुत कम लिख पाया. मैंने बहुत देखा, बहुत सुना, बहुत महसूस किया, लेकिन उसका एक अंश ही लिख पाया. उनकी यह विनम्रता उनके व्यक्तित्व का हिस्सा थी. वे एक ऐसे लेखक थे जो बोलते बहुत धीमे थे, लेकिन उनकी साहित्यिक आवाज़ सरहदों के पार तक गूंजती थी.
एक साधारण जीवन का असाधारण चितेरा
1 जनवरी 1937 को छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में जन्मे विनोद कुमार शुक्ल ने लगभग नौ दशक का लंबा जीवन जिया. उनका लेखन मध्यमवर्गीय और साधारण जीवन की उन छोटी-छोटी चीजों के बारे में था, जिन्हें अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है. उनकी रचनाओं में एक साधारण कमरा, घास का एक टुकड़ा या दीवार में बनी एक खिड़की भी पूरे ब्रह्मांड की तरह खुल जाती थी. आलोचक मानते हैं कि उन्होंने अखबारों में तीखे लेख नहीं लिखे या राजनीतिक बयानबाजी नहीं की, लेकिन उनकी कला हमेशा पीड़ित और साधारण मनुष्य के साथ मजबूती से खड़ी रही.
1 जनवरी 1937 को छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में जन्मे विनोद कुमार शुक्ल ने लगभग नौ दशक का लंबा जीवन जिया. उनका लेखन मध्यमवर्गीय और साधारण जीवन की उन छोटी-छोटी चीजों के बारे में था, जिन्हें अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है. उनकी रचनाओं में एक साधारण कमरा, घास का एक टुकड़ा या दीवार में बनी एक खिड़की भी पूरे ब्रह्मांड की तरह खुल जाती थी. आलोचक मानते हैं कि उन्होंने अखबारों में तीखे लेख नहीं लिखे या राजनीतिक बयानबाजी नहीं की, लेकिन उनकी कला हमेशा पीड़ित और साधारण मनुष्य के साथ मजबूती से खड़ी रही.
साहित्यिक सफर
‘नौकर की कमीज’ से वैश्विक पहचान तक उनका पहला कविता संग्रह ‘लगभग जय हिन्द’ 1971 में प्रकाशित हुआ था. इसके बाद उनकी कविताओं की एक नई भाषा और बनावट हिंदी जगत में दर्ज हुई. उनके प्रमुख कविता संग्रहों में शामिल हैं… वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह, सब कुछ होना बचा रहेगा, अतिरिक्त नहीं, आकाश धरती को खटखटाता है.
‘नौकर की कमीज’ से वैश्विक पहचान तक उनका पहला कविता संग्रह ‘लगभग जय हिन्द’ 1971 में प्रकाशित हुआ था. इसके बाद उनकी कविताओं की एक नई भाषा और बनावट हिंदी जगत में दर्ज हुई. उनके प्रमुख कविता संग्रहों में शामिल हैं… वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह, सब कुछ होना बचा रहेगा, अतिरिक्त नहीं, आकाश धरती को खटखटाता है.
कथा साहित्य में
1979 में आए उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ ने हिंदी उपन्यास की धारा को एक नया मोड़ दिया, जिस पर बाद में मणि कौल ने एक यादगार फिल्म भी बनाई. इसके अलावा ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ जैसी रचनाओं ने उन्हें पाठकों के दिल में बसा दिया. ‘पेड़ पर कमरा’ और ‘महाविद्यालय’ जैसी कहानियों में उन्होंने घरेलू और उपेक्षित जीवन को अद्भुत कथा-शिल्प में पिरोया.
1979 में आए उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ ने हिंदी उपन्यास की धारा को एक नया मोड़ दिया, जिस पर बाद में मणि कौल ने एक यादगार फिल्म भी बनाई. इसके अलावा ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ जैसी रचनाओं ने उन्हें पाठकों के दिल में बसा दिया. ‘पेड़ पर कमरा’ और ‘महाविद्यालय’ जैसी कहानियों में उन्होंने घरेलू और उपेक्षित जीवन को अद्भुत कथा-शिल्प में पिरोया.
साभार : न्यूज18
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