– सारांश कनौजिया
कुछ लोग यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि भारत छोड़ो आंदोलन से डर कर अंग्रेजों ने देश को स्वतंत्र कराने का निश्चय लिया था। किन्तु यह पूर्णतय असत्य है। हम पहले ही बता चुके हैं कि भारत छोड़ो आंदोलन तो सिर्फ एक राजनीतिक प्रयास था, उसका भारत की स्वतंत्रता से लेना-देना नहीं है। उस कालखण्ड में कुछ लोगों के व्यक्तिगत प्रयासों ने अंग्रेजों को परेशान जरुर किया था, लेकिन वो प्रयास इतने खतरनाक नहीं थे कि उनके कारण अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।
नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज को अंग्रेजों ने हरा जरुर दिया था, लेकिन उसे मिलने वाले जनसमर्थन से अंग्रेजों और कांग्रेस दोनों को अपनी जमीन खिसकती हुई दिखाई दी थी। गांधीजी ने कभी क्रांतिकारियों के प्रयासों की सराहना नहीं की, वो हमेशा क्रांतिकारी प्रयासों को हिंसा कहकर लोगों को उस ओर जाने के लिए हतोत्साहित करते रहे लेकिन अपने आचरण के विरुद्ध जाकर उन्होंने कांग्रेस के द्वारा इस फौज के गिरफ्तार सैनिकों की पैरवी करने के निर्णय पर अपनी मौन स्वीकृति दे दी। इस कारण कांग्रेस को लोगों का समर्थन दुबारा मिलने लगा क्योंकि वो बोस की गुमशुदगी के बाद उन्हें भी तो अपना नेता चाहिए था। बचे अंग्रेज, वो अभी भी डरे हुए थे।
अभी अंग्रेज आजाद हिन्द फौज के कारण हुए नुकसान का आंकलन कर ही रहे थे कि उनको 1857 जैसे सैन्य विद्रोह का फिर सामना करना पड़ा। पिछली बार विद्रोह की शुरुआत मेरठ से हुई थी, इस बार इसका केंद्र मुंबई था। मुंबई में 18 फरवरी 1946 में रायल इंडियन नेवी के सैनिकों ने अंग्रेजों के खराब व्यवहार के विरोध में हड़ताल कर दी।
धीरे-धीरे यह विद्रोह कराची, कोलकाता, मद्रास और विशाखापत्तनम सहित अन्य स्थानों तक फैल गया। बाद में इसमें कोस्ट गार्ड, वायु सेना और थल सेना के जवान भी शामिल हो गए। आंदोलन में अकेले जल सेना के ही 78 जलयानों व 20 तटीय स्थानों के लगभग 20,000 नाविकों ने भाग लिया था। मुंबई सहित कई स्थानों के वायु सैनिकों, हवाई अड्डों के पायलटों ने अंग्रेजों के साथ काम करने से इनकार कर दिया। ठीक ऐसी ही स्थिति थल सेना की भी थी। इस बात से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आंदोलन का असर कितना अधिक और व्यापक हुआ होगा।
पिछले 3 दशक में अंग्रेज दो विश्व युद्ध लड़ने के कारण बहुत कमजोर हो चुके थे। 1857 का सैन्य विरोध थल सेना तक सीमित था, उसका असर वायु सेना या जल सेना तक नहीं पहुंचा था, लेकिन इस बार तीनों सेनाएं साथ थीं। आजाद हिन्द फौज को मिले जनसमर्थन के ठीक बाद सैन्य विद्रोह को भी भारतीय पूरा समर्थन करेंगे, यह बात अंग्रेजों को भी पता थी। उन्हें पता था कि विद्रोह लम्बा चला तो पूरे भारत में एक भी अंग्रेज या उनका परिवार जिंदा नहीं बचेगा। इस भयभीत अंग्रेज समझ नहीं पा रहे थे कि किससे सहयोग मांगे। तभी बिना मांगे ही गांधीजी ने सैन्य विद्रोह का विरोध में वातावरण तैयार करने का प्रयास शुरू कर दिया।
उन्होंने इस विद्रोह पर अपना मत प्रकट करते हुए कहा कि हिंसात्मक कार्रवाई के लिए हिन्दुओं-मुसलामानों का एक साथ आना एक अपवित्र बात है। यदि इन लोगों को कोई शिकायत है, तो वे चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दें। जब कभी भी भारत में अंग्रेजों को डर लगा, हमेशा उन्हें गांधीजी का साथ मिला। इस बार भी ऐसा ही हुआ। सरदार पटेल के समझाने पर यह आंदोलन तो समाप्त हो गया, लेकिन अंग्रेजों को यह भय अभी भी था कि यदि अगली बार गांधीजी भी उन्हें बचा नहीं पाए, तो वो क्या करेंगे।
यह सैन्य विद्रोह ही वास्तव में भारत की स्वनात्रता के लिए किया गया अंतिम प्रयास था। 18 फरवरी को यह विद्रोह शुरू हुआ और 19 फरवरी को ब्रिटेन के नवनियुक्त प्रधानमंत्री क्लिमेंट ऐटली ने ब्रिटिश संसद में घोषणा की कि वो भारत में नई सरकार गठन की रूपरेखा पर तैयार करने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल भारत भेज रहे हैं। इस विद्रोह के ही कुछ माह बाद 2 सितंबर 1946 को भारत में भारतीयों द्वारा शासन के लिए पहली अंतरिम सरकार बन गई थी। यह अलग बात थी कि भारत में अनेकों संगठन थे, लेकिन ब्रिटिश सरकार सिर्फ गांधीजी और कांग्रेस से ही बात करती थी। अंतरिम सरकार गठन के लिए भी उसी से बात की गई।
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