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भारत छोड़ो आंदोलन – स्वतंत्रता का प्रयास या एक राजनीतिक हथकंडा

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– सारांश कनौजिया

अंग्रेज द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों के बल पर अपने दुश्मनों को कड़ी चुनौती दे रहे थे। गांधीजी को चाहिए थे कि वो भारतीयों को कहते कि हम अहिंसा का सिद्धांत मानने वाले लोग हैं। प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों का साथ देकर हमने गलती की, लेकिन अब हम ऐसा नहीं करेंगे। गांधीजी को भारतीयों से अनुरोध करना चाहिए था कि वो द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों का साथ न दे, लेकिन गांधीजी ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने न समर्थन न विरोध की अपनी पुरानी नीति का अनुसरण कर अंग्रेजों को अपनी मौन स्वीकृति प्रदान कर दी। परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में भारतीय अंग्रेजों के साथ युद्ध में शामिल हुए और मारे भी गए।

द्वितीय विश्व युद्ध 1939 में शुरू हो चुका था। देश अंग्रेजों से मुक्ति चाहता था। कई लोगों का मानना था कि यह सही समय है, जब हम देश को अंग्रेजों से आजाद करा सकते हैं। इस जनभावना को देखते हुए कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन करने का निर्णय लिया। 9 अगस्त 1942 को यह आंदोलन शुरू किया जाना था। किन्तु इससे पूर्व ही गांधीजी सहित विभिन्न वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को नजरबंद या गिरफ्तार कर लिया गया। यहां नजरबंद शब्द का प्रयोग इसलिए किया है, क्योंकि गांधीजी और उनके विश्वासपात्र लोगों को किसी जेल में नहीं बल्कि विभिन्न आलिशान स्थानों पर रखा गया था। जैसे गांधीजी को आगा खान पैलेस में रखा गया था। जबकि दूसरी ओर डॉ. राजेंद्र प्रसाद को पुणे की जेल में रखा गया था। इसलिए यह आंदोलन के शुरू होने से पहले ही समाप्त हो गया।

अंग्रेजों की गिरफ्तारियों के कारण भारतीय जनमानस में उनके खिलाफ गुस्सा अधिक था। इस कारण व्यक्तिगत स्तर पर विभिन्न लोगों ने पूरे देश में संघर्ष करने का प्रयास जरुर किया, लेकिन अधिकांश संघर्ष 1942 के अंत तक दबा दिए गए थे। अंग्रेजों ने किस प्रकार कत्लेआम किया, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन सरकारी आकड़ों के अनुसार अंग्रेजों ने 940 लोगों को मौत के घाट उतार दिया और 1630 लोग घायल हुए। गांधीजी जिन भी आन्दोलनों में सबसे आगे चले थे, उन स्थानों पर अंग्रेजों ने कभी एक गोली भी नहीं चलाई और गांधीजी के नजरबंद होते ही नरसंहार कर दिया। इससे स्पष्ट है कि यह कांग्रेस का आंदोलन नहीं बल्कि भारतीयों का जनाक्रोश था।

1944 के अंत में जब अंग्रेजों को विश्वास हो चला कि वो विश्व युद्ध जीत जायेंगे, उन्होंने गांधीजी की नजरबंदी समाप्त कर दी। अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन को तो लगभग 2 साल पहले ही समाप्त कर चुके थे, इसलिए अब उन्हें किसी बात का भय नहीं था। गांधीजी ने भी कभी अंग्रेजों या मुस्लिमों के द्वारा हिंसा में लोगों के मरने पर दोषियों के खिलाफ मृत्यु दण्ड जैसी कठोर सजा की मांग दृढ़तापूर्वक नहीं की। इस बार भी ऐसा ही हुआ। रिहा होते ही गांधीजी सहित विभिन्न कांग्रेसी सत्ता में अधिक भागीदारी कैसे मिले, इस प्रयास में जुट गए। गांधीजी पूरी तरह से भूल चुके थे कि उन्होंने अंग्रेजों भारत छोड़ो जैसा कोई नारा दिया भी था। करो या मरो जैसे वाक्य तो उनके स्वप्न में भी अब नहीं आते थे। इससे ऐसा लगता है कि गांधीजी ने भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा मात्र सत्ता में अधिक भागीदारी के लिए अंग्रेजों पर दबाव बनाने के लिए की थी या फिर वो उस जनाक्रोश से ध्यान हटाना चाहते थे, जो द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों को उनके मौन समर्थन देने के कारण भारत के लोगों के मन में था।

फोटो साभार : https://www.aajtak.in

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