अंग्रेज भले ही सफल रहे हों, लेकिन उनको भारत में अपना अस्तित्व संकट में नजर आने लगा। इसलिए वो नहीं चाहते थे कि भविष्य में कभी भी कोई बड़ा सशस्त्र आंदोलन खड़ा हो। इसके लिए उन्हें एक ऐसा संगठन चाहिए था, जो भारतीयों को अपना सा लगे, लेकिन वो भारत को सशस्त्र आंदोलन से दूर कर दे। अंग्रेज अधिकारी एओ ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना कर ब्रिटिश सरकार को यह अवसर प्रदान किया। इस अंग्रेज अधिकारी ने 28 दिसंबर 1885 को कांग्रेस की स्थापना की। एओ ह्यूम का कांग्रेस स्थापना से पहले ऐसा कोई इतिहास नहीं मिलता है, जिससे यह कहा जा सके कि ह्यूम को भारत की स्वतंत्रता या भारतीयों के हितों की कोई चिंता थी। इसको और गहराई से समझने के लिए ह्यूम के बारे में थोड़ा और जानना आवश्यक है क्योंकि इतिहास मान्यताओं पर नहीं बल्कि तथ्यों पर लिखा जाता है।
ह्यूम 1849 में इटावा का कलेक्टर बनकर आया। यह उसकी पहली तैनाती थी। उसने अपनी तैनाती के बाद जो काम सबसे पहले किया, उसमें से एक था ह्यूमगंज नामक क्षेत्र की स्थापना कर वहां बाजार का निर्माण। इसका उद्देश्य अंग्रेजों के लिए एक व्यापारिक केंद्र का निर्माण करना था। यह स्थान बाद में होमगंज के नाम से भी जाना गया। विशेष बात यह है कि यह अंग्रेज अधिकारी किसी और के नाम पर भी व्यापारिक क्षेत्र का नामकरण कर सकता था, लेकिन उसने अपना ही उपनाम चुना। इससे उसकी महत्वकांक्षा का पता चलता है। जब 1857 का स्वतंत्रता संग्राम हुआ तो 17 जून 1857 को ह्यूम को साड़ी पहनकर इटावा से भागना पड़ा। ह्यूम अंग्रेजों के वफादार भारतीयों के सहयोग से छुपा रहा और इन्हीं भारतीयों के सहयोग से वो 1858 में इटावा वापस आया। उसने आते ही सबसे पहले 131 क्रांतिकारियों को फांसी देने का काम किया। इसके बाद वो भारत के विभिन्न हिस्सों में अधिकारी रहा, लेकिन अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा के कारण उसने 1882 में त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उसने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और व्योमेशचन्द्र बनर्जी के साथ मिलकर 1884 में इंडियन नेशनल यूनियन नामक संगठन का निर्माण किया, यही संगठन बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से जाना गया।
एओ ह्यूम की मानसिकता को समझने के लिए इन दोनों के बारे में भी समझना होगा। अंग्रेज हेनरी कॉटन कहते हैं कि सुरेंद्रनाथ बनर्जी अपने शब्दों के सहारे किसी आंदोलन को खड़ा भी कर सकते हैं और किसी आंदोलन को दबा भी सकते हैं। उस समय सभी आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध होते थे, फिर सुरेन्द्रनाथ ने किस आंदोलन को दबाया, जिसके बारे में हेनरी ने कहा था। यह एक रहस्य है। अंग्रेजों के द्वारा कई बार सुरेंद्रनाथ को भारत के बारे में ब्रिटिश संसद और अंग्रेजों को जानकारी देने के लिए लंदन भी एक प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में भेजा जाता था। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि उन्हें यह अंग्रेज भक्ति अपने पिता डॉ. दुर्गा चरण बनर्जी से मिली थी। अंग्रेजों ने 1909 में ब्रिटिश सरकार द्वारा लाये गए मार्ले-मिन्टों सुधार का समर्थन करने के लिए उन्हें सर की उपाधि दी थी। यह सुधार मुस्लिमों को सत्ता में अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उन्हें आरक्षण प्रदान करता था। इन विचारों के साथ सुरेन्द्रनाथ दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने। ह्यूम के दूसरे साथी थे व्योमेशचन्द्र बनर्जी। व्योमेश भी वर्ष में कई बार ब्रिटेन आते-जाते रहते थे। कभी-कभी तो वो वर्ष में छः महीने तक ब्रिटेन में ही रहते थे। यह क्रम वर्षों तक चलता रहा और अंत में वे ब्रिटेन में ही बस गए।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनका नाम भले ही हिन्दू था, लेकिन उन्होंने ईसाई संप्रदाय अपना लिया था। यद्यपि उनकी इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार बिना किसी धार्मिक पद्धति का पालान किये हुआ था। उनकी पत्नी हेमांगिनी के भी ईसाई बनने का विवरण मिलता है। इससे स्पष्ट है कि कांग्रेस की स्थापना की पृष्ठभूमि में जो लोग थे, उनमें से अधिकांश या तो ईसाई थे या अंग्रेज भक्त। वरिष्ठ इतिहासकार कृष्णानंद सागर के अनुसार कांग्रेस के गठन से पहले ह्यूम ने कई वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों व पूर्व अधिकारियों से इस पर विस्तृत चर्चा की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि ह्यूम कांग्रेस में अंग्रेज अधिकारियों का मार्गदर्शन भी चाहता था, लेकिन बाद में यह तय हुआ कि कांग्रेस वार्षिक अधिवेशन के रूप में भारतीयों को अंग्रेजों पर भड़ास निकालने का कार्यक्रम आयोजित करेगी, इसलिये प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज अधिकारियों का इससे जुड़ना ठीक नहीं है।
इसके बाद भी प्रारंभिक कुछ वर्षों तक कांग्रेस को अंग्रेज अधिकारियों का पूरा खुला समर्थन और सहयोग रहा। इसको समझने के लिए सबसे पहले कांग्रेस स्थापना के दिन कैसा वातावरण था? उसको जानना जरुरी है। 27 दिसंबर 1885 को सभी अंग्रेज भक्तों को बंबई बुलाया गया। यहां ह्यूम का सहयोग करने के लिए विलियम बेडरवर्न, न्यायाधीश जार्डाइन, कर्नल फिलिप्स और प्रोफेसर वर्डस्वर्थ आदि पहले ही पहुंच चुके थे। देश के विभिन्न स्थानों से आये 72 लोग 28 दिसंबर 1885 में गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज में उपस्थित हुए। इनके साथ ही 28 अंग्रेजों की उपस्थिति में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई। क्या कांग्रेस को भारतीयों के हितों के संरक्षण के लिए बनाया गया था, जैसा कि उसके समर्थक दावा करते हैं? इस दावे की वास्तविकता को समझने के लिए कांग्रेस की स्थापना के समय उसका सदस्य बनने के लिए जो शर्ते थीं, उन पर ध्यान देना चाहिए।
ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति निष्ठा, ब्रिटिश महारानी और उनके साम्राज्य की दीर्घायु के लिए कामना करना तथा अंग्रेजी समझने, पढ़ने और लिखने का ज्ञान। जिस दिन कांग्रेस की स्थापना हुई उस दिन ह्यूम ने उस अधिवेशन के प्रारंभ में ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया का जयकारा न लगवाने पर दुःख व्यक्त किया था। इस अपराध बोध से भरे ह्यूम ने सभी से तीन-तीन बार ब्रिटिश महारानी की जय-जयकार करने के लिए कहा। ह्यूम को इस आग्रह से भी संतोष नहीं हुआ, उसने 27 बार सभी से महारानी की जय बुलवाई। इतिहास में ऐसे भी उदहारण मिलते हैं कि प्रारंभिक कुछ वर्षों तक अंग्रेज सरकार ने कांग्रेस को खड़ा करने के लिए हर संभव सहायता दी। एओ ह्यूम ने जिस कांग्रेस की स्थापना की थी, वो सिर्फ वार्षिक अधिवेशन कर अंग्रेजों को कोसती थी और उसके बाद फिर भारत की जनता को अंग्रेज शासन के हवाले छोड़ देती थी। इसके पीछे का एक कारण यह था कि इन अधिवेशनों का खर्च प्रारंभ में अंग्रेजों द्वारा ही दिया जाता था।
कांग्रेस के मुंबई में हुए प्रथम अधिवेशन में आये लोगों को स्टीमरों पर सागर की सैर करायी गई थी। उनकी एलिफैन्टा की गुफाओं के भ्रमण की भी व्यवस्था की गई। तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लार्ड डफरिन ने कांग्रेस के कोलकता में हुए दूसरे अधिवेशन में आये प्रतिनिधियों को शाही भोज करवाया था। चेन्नई में हुए कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में आये प्रतिनिधियों को स्थानीय गवर्नर ने सरकारी भवन में शानदार पार्टी दी थी। यदि कांग्रेस एक देशभक्त पार्टी थी, तो अंग्रेज सरकार उसके प्रतिनिधियों को इतना सहयोग क्यों कर रही थी? इससे यह स्पष्ट है कि कांग्रेस की स्थापना अंग्रेजों का सहयोग करने के लिए की गई थी। ऐसे में दो प्रश्न उठते हैं, पहला कांग्रेस ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो अभियान चलाये, उनका क्या? क्या सभी कांग्रेसी अंग्रेज भक्त थे? तो दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बाद में कांग्रेस के अंदर कुछ देशभक्त भी सदस्य बन गए। इन देशभक्तों के कारण ही कांग्रेस में गरम दल और नरम दल नाम से दो गुट बन गए। कांग्रेस में यह बदलाव एओ ह्यूम के समय ही शुरू हो गया था।
ह्यूम ने 1894 में भारत छोड़ दिया था और लंदन वापस आ गया और दक्षिणी लंदन में ही 1912 में उसका देहांत हो गया। यदि ह्यूम को भारत से इतना ही लगाव था, तो वो कांग्रेस स्थापना के कुछ ही वर्ष बाद लंदन क्यों चला गया? यह एक बड़ा प्रश्न है। इसके पीछे का कारण समझने के लिए कांग्रेस ने प्रारंभिक काल में भारत के लिए क्या किया इस पर एक नजर डालनी होगी। 1885 में कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने उमेशचन्द्र बनर्जी, उनके बारे में हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। 1886 में कांग्रेस के दूसरे अध्यक्ष बने दादा भाई नौरोजी, वो बाद में 1892 से 95 तक ब्रिटेन में सांसद रहे। उन्होंने अपना लम्बा समय ब्रिटेन में बड़े सम्मान के साथ बिना किसी कष्ट के बिताया। जो देश भारतीयों पर इतने जुल्म कर रहा था, वो दादा भाई को इतनी सुविधाएं क्यों प्रदान कर रहा था, यह समझने की जरुरत है। बदरुद्दीन तैयब कांग्रेस के तीसरे राष्ट्रीय अध्यक्ष बने।
उन्होंने मुस्लिमों की शिक्षा के लिए अंजुमन ए इस्लाम नाम की संस्था बनाई। कांग्रेस के लोग एक मुस्लिम चेहरा खोज रहे थे, उन्हें लगा की उनकी खोज पूरी हो गई, लेकिन वो शायद गलत थे। पेशे से वकील बदरुद्दीन जब जज बने तो उन्होंने जो कुछ फैसले लिए उनमें से एक बाल गंगाधर तिलक को देशद्रोह के आरोप में जमानत देना भी था। जबकि तिलक उस गरम दल से जुड़े थे, जो क्रांतिकारियों का समर्थन करते थे, जबकि कांग्रेस संस्थापक ह्यूम और बाद में गांधी जी क्रांतिकारियों के समर्थन को हिंसा फैलाने वालों का सहयोग मानते थे। यही वह विचार था जिसने धीरे-धीरे कांग्रेस में दो गुट बना दिए। एक गुट जहां यह मानता था कि अंग्रेजों को देश छोड़ने की कोई जरुरत नहीं है, सिर्फ थोड़े से सुधार के लिए प्रयास करना ही पर्याप्त है। सशस्त्र विद्रोह से देश का माहौल खराब होता है। इस हिंसा से अराजकता का वातावरण निर्माण होता है।
ह्यूम ने कांग्रेस स्थापना के समय यही विचार भारतीयों में भरने का प्रयास किया था, जिसे बाद में गांधीजी ने आगे बढ़ाया। दूसरा विचार यह था कि अंग्रेजों के भारत से जाने पर ही देश का भला हो सकता है, इसके लिए क्रांतिकारियों का मार्ग भी ठीक है। बाद में इस विचार को गरम दल के बाल, लाल और पाल ने कांग्रेस में आगे बढ़ाया, तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस से अलग होकर इसका विस्तार किया। कांग्रेस जैसे-जैसे नए लोगों को जोड़ने का प्रयास कर रही थी। उसके साथ कई ऐसे लोग भी जुड़ने शुरू हो गए, जिनकी शिक्षा या जीवन का कुछ समय तो ब्रिटेन में बीता, लेकिन उनके मन में अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने का स्वप्न था। इसी स्वप्न के बल पकड़ने पर ह्यूम को भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया। ह्यूम कांग्रेस स्थापना के समय स्वयं कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बना था और उसने एक भारतीय को अध्यक्ष बनाया, जिससे कांग्रेस की स्वीकार्यता भारत में अधिक हो। किन्तु ऐसा लगता है कि उसका यह प्रयास प्रारंभ में अधिक सफल नहीं हो सका।
इसीलिए 1904 तक जार्ज यूल, बिलियम वेडरबर्न, अल्फ्रेड वेब व हेनरी कॉटन कांग्रेस के अध्यक्ष बने। जार्ज यूल लंदन में जार्ज यूल एंड कंपनी का संस्थापक था और वो उन अंग्रेज व्यापारियों में शामिल था, जो भारत अपनी व्यापारिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आये थे। वो भारत आने के बाद कोलकाता में एंड्रयू यूल कंपनी का अध्यक्ष बना। विलियम वेडरबर्न को अंग्रेजों ने सर की उपाधि दी थी। वो 1893 से 1900 तक ब्रिटेन में सांसद रहा। वो वहां की लिबरल पार्टी का नेता था। उसकी मृत्यु भी ब्रिटेन में ही हुई। इससे पहले वह भारत में बंबई की ब्रिटिश सरकार में मुख्य सचिव भी रहा और उसके बाद कांग्रेस ने उसे 1889 में अपना अध्यक्ष चुना था। अल्फेड वेब भी ब्रिटेन में 1890 में सांसद चुना गया। दादा भाई नौरोजी ने उसे कांग्रेस से जोड़ा और बाद में उसे 1894 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया। उसका देहांत भी ब्रिटेन में ही हुआ।
1904 में कांग्रेस का अध्यक्ष बना हेनरी कॉटन भी ब्रिटेन की लिबरल पार्टी का एक प्रमुख नेता था। उसे भी अंग्रेजों ने सर की उपाधि दी थी। वह ब्रिटेन का कितना वफादार था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसकी पांच पीढ़ियों ने ब्रिटिश प्रशासन में रहते हुए वहां की सरकार के लिए काम किया था। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस से जुड़े हुए अंग्रेजों में अधिकांश कभी न कभी ब्रिटेन की राजनीति में सक्रिय रहे। इसके अतिरिक्त कुछ पहले ब्रिटिश सरकार में बड़े पदों पर रहे, तो कुछ भारत अपने व्यापारिक हितों को पूरा करने के लिए आये। इनमें से कोई भी ऐसा नहीं था, जिस पर उसके अंग्रेज साथियों ने ही उत्पीड़न किया हो और इस कारण वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ा। वास्तव में यह प्रयास कांग्रेस पर अंग्रेजों की ढीली होती पकड़ को फिर से मजबूत करने का था, जिसमें अंग्रेजों के वफादार कांग्रेसियों ने उनका साथ दिया। अंग्रेज कांग्रेस अध्यक्षों की पृष्ठभूमि देख कर तो ऐसा ही लगता है।
फोटो साभार : विकीपीडिया
उपरोक्त लेख पुस्तक ‘भारत : 1857 से 1957 (इतिहास पर एक दृष्टि)’ से लिया गया है. पूरी पुस्तक अपने घर/कार्यालय पर खरीदकर मंगाने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें.