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कैसे मिलेगा भुखमरी से छुटकारा ?

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– रमेश सर्राफ धमोरा

आज के आधुनिक युग में जहां पूरी दुनिया हाईटेक हो रही है। नित नए आविष्कार हो रहे हैं। दुनिया में तकनीकी का बोलबाला है। ऐसे में दुनिया भर के देशों में लोग भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। यह एक डरावना सत्य है। एक ओर जहां लोगों के रहन-सहन, जीवन-यापन के स्तर में काफी बदलाव देखने को मिलता है। लोग पहले की अपेक्षा अधिक सुख सुविधाओं के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। वही एक तबका ऐसा भी है जिनको खाने को भरपेट भोजन भी नहीं मिल रहा है। भोजन के अभाव में लोग भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। 21वीं सदी में आधुनिक होते जा रहे लोगों के लिए भुखमरी से होने वाली मौत एक करारे तमाचे से कम नहीं है। जब तक दुनिया के हर इंसान को दोनों वक्त भरपेट भोजन नहीं मिलेगा तब तक सारी तरक्की बेमानी है। लोगों को भुखमरी से निजात दिलाने की दिशा में सभी को सकारात्मक और प्रभावी कार्यवाही करनी होगी। ताकि आने वाले समय में किसी भी जिंदा इंसान की भुखमरी से मौत ना हो सके।

मानव जाति की मूल आवश्यकताओं की बात करें तो रोटी, कपड़ा और मकान का ही नाम आता है। इनमे रोटी सर्वोपरि है। रोटी यानी भोजन की अनिवार्यता के बीच आज विश्व के लिए शर्मनाक तस्वीर यह है कि वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी भुखमरी का शिकार है। अगर भुखमरी की इस समस्या को भारत के संदर्भ में देखे तो संयुक्त राष्ट्र द्वारा भुखमरी पर जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक भुखमरी से पीड़ित देशों में भारत का नाम प्रमुखता से है। खाद्यान्न वितरण प्रणाली में सुधार तथा अधिक पैदावार के लिए कृषि क्षेत्र में निरन्तर नये अनुसंधान के बावजूद भारत में भुखमरी के हालात बदतर होते जा रहे हैं। जिसकी वजह से भारत 116 देशों के वैश्विक भुखमरी सूचकांक (जीएचआई) 2021 में फिसलकर 101वें स्थान पर आ गया हैं। इस मामले में हम अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे है।

जीएचआई में भारत के खराब प्रदर्शन की बात करें तो यह बीते कुछ सालों से लगातार जारी है। 2017 में इस सूचकांक में भारत का स्थान 100वां था। साल 2018 के इंडेक्स में भारत 119 देशों की सूची में 103वें स्थान पर रहा। वहीं 2019 में देश 117 देशों में 102वें स्थान पर रहा था। वर्ष 2020 में भारत 94 वें स्थान पर था। भारत का जीएचआई स्कोर भी गिर गया है। यह साल 2000 में 38.8 था जो 2012 और 2021 के बीच 28.8- 27.5 के बीच रहा। जीएचआई स्कोर की गणना चार संकेतकों पर की जाती है। जिनमें अल्पपोषण, कुपोषण, बच्चों की वृद्धि दर और बाल मृत्यु दर शामिल हैं। रिपोर्ट के अनुसार पड़ोसी देश नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार और पाकिस्तान भी भुखमरी को लेकर चिंताजनक स्थिति में हैं। लेकिन भारत की तुलना में अपने नागरिकों को भोजन उपलब्ध कराने को लेकर बेहतर प्रदर्शन किया है। भूख और कुपोषण पर नजर रखने वाली वैश्विक भुखमरी सूचकांक की वेबसाइट पर बताया गया कि चीन, ब्राजील और कुवैत सहित अठारह देशों ने पांच से कम के जीएचआई स्कोर के साथ शीर्ष स्थान साझा किया है।

रिपोर्ट के मुताबिक भूख के खिलाफ लड़ाई पटरी से उतर गई है। वर्तमान जीएचआई अनुमानों के आधार पर पूरी दुनिया और विशेष रूप से 47 देश- 2030 तक लक्ष्य के निम्न स्तर को प्राप्त करने में विफल रहेंगे। इसमें यह भी कहा गया है कि खाद्य सुरक्षा पर कई मोर्चों पर बिगड़ती स्थितियां, वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन से संबंद्ध मौसम के बदलाव और कोविड -19 महामारी से जुड़ी आर्थिक और स्वास्थ्य चुनौतियां भुखमरी को बढ़ा रही हैं। सहायता कार्यों से जुड़ी आयरलैंड की एजेंसी कंसर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी के संगठन वेल्ट हंगर हिल्फ द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गई रिपोर्ट में भारत में भूख के स्तर को चिंताजनक बताया गया है। हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में बच्चों की उम्र के हिसाब से वृद्धि न होने की दर 1998-2002 के बीच 17.1 प्रतिशत थी। जो 2016-2020 के बीच बढ़कर 17.3 प्रतिशत हो गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में लोग कोविड -19 और महामारी संबंधी प्रतिबंधों से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। दुनिया भर में सबसे अधिक चाइल्ड वेस्टिंग की दर यहीं है।

भुखमरी की स्थिति के लिहाज से दुनिया के 119 देशों को खतरनाक, अत्याधिक खतरनाक और गंभीर जैसी तीन श्रेणियों में रखा गया है। इनमें भारत गंभीर की श्रेणी में है। रिपोर्ट के अनुसार भारत की इस स्थिति के कारण ही दक्षिण एशिया का प्रदर्शन हंगर इंडेक्स में और बिगड़ा है। भारत एक ऐसा देश जो अगले एक दशक में दुनिया के सर्वाधिक प्रभावशाली देशो की सूची में शामिल हो सकता हैं। वहां से ऐसे आंकड़े सामने आना बेहद चिंतनीय माना जा रहा है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में विश्व भर में भूख के खिलाफ चल रहे अभियान की उपलब्धियों और नाकामियों को दर्शाया जाता है। भुखमरी को लेकर यह रिपोर्ट भारत सरकार की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करती हैं। श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार हमसे आर्थिक से लेकर तमाम तरह की मोटी मदद पाते हैं। मगर भुखमरी पर रोकथाम के मामले में हमारी हालत उनसे भी बदतर क्यों हो रही है? इस सवाल पर ये तर्क दिया जा सकता है कि श्रीलंका व नेपाल जैसे कम आबादी वाले देशों से भारत की तुलना नहीं की जा सकती। यह बात सही है लेकिन साथ ही इस पहलू पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि भारत की आबादी श्रीलंका और नेपाल से जितनी अधिक है। भारत के पास क्षमता व संसाधन भी उतने ही अधिक हैं।

खाद्य की बर्बादी की ये समस्या सिर्फ भारत में नही बल्कि पूरी दुनिया में है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष 1.3 अरब टन खाद्यान्न खराब होने के कारण फेंक दिया जाता है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक तरफ दुनिया में इतना खाद्यान्न बर्बाद होता है और दूसरी तरफ दुनिया के लगभग 85 करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं। क्या यह अनाज इन लोगों की भूख मिटाने के काम नहीं आ सकता? पर व्यवस्था के अभाव में ये नहीं हो पा रहा है। महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि हर वर्ष हमारे देश में खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होने के बावजूद क्यों देश की लगभग एक चैथाई आबादी को भुखमरी से गुजरना पड़ता है? यहां मामला यह है कि हमारे यहां हर वर्ष अनाज का रिकार्ड उत्पादन तो होता है। पर उस अनाज का एक बड़ा हिस्सा लोगों तक पहुंचने की बजाय कुछ सरकारी गोदामों में तो कुछ इधर-उधर अव्यवस्थित ढंग से रखे-रखे सड़ जाता है। संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के मुताबिक देश का लगभग 20 फीसद अनाज भण्डारण क्षमता के अभाव में बेकार हो जाता है। इसके अतिरिक्त जो अनाज गोदामों में सुरक्षित रखा जाता है। उसका भी एक बड़ा हिस्सा समुचित वितरण प्रणाली के अभाव में जरूरतमंद लोगों तक पहुंचने की बजाय बेकार पड़ा रह जाता है।

भारत में भुखमरी से निपटने के लिए अनेको योजनाएं बनी हैं लेकिन उनकी सही तरीके से पालना नहीं होती है। महंगाई और खाद्य पदार्थों की कीमतों में उछाल ने गरीबों और कम आय वाले लोगों को असहाय बना दिया है। हमारे देश में सरकार द्वारा भुखमरी को लेकर कभी उतनी गंभीरता दिखाई ही नहीं गई जितनी कि होनी चाहिए। यहां सरकार द्वारा हमेशा भुखमरी से निपटने के लिए सस्ता अनाज देने सम्बन्धी योजनाओं पर ही विशेष बल दिया गया। कभी भी उस सस्ते अनाज की वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने को लेकर कुछ ठोस नहीं किया गया। आज सार्वजनिक वितरण प्रणाली हांफ रही है और मिड-डे मील जैसी आकर्षक परियोजनाएं भ्रष्टाचार और प्रक्रियात्मक विसंगतियों में डूबी हुयी हैं।

लेखक मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं.

नोट : लेखक द्वारा व्यक्त विचारों से मातृभूमि समाचार का सहमत होना आवश्यक नहीं है.

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