नई दिल्ली (मा.स.स.). जल संरक्षण और नदी कायाकल्प के महत्वपूर्ण पहलुओं पर आयोजित तीन दिवसीय भारत जल प्रभाव शिखर सम्मेलन का 7वां संस्करण उपयोगी विचार-विमर्श के बाद संपन्न हुआ। इसमें बड़े बेसिनों के संरक्षण के लिए छोटी नदियों के पुनरुद्धार पर विशेष जोर दिया गया। इस सम्मेलन के तीसरे और अंतिम दिन जल, पर्यावरण और प्रशासनिक क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने सर्वसम्मति से देश में एक राष्ट्रीय नदी ढांचा बनाने की तत्काल जरूरत पर सहमति व्यक्त की। यह ढांचा नदी की स्वच्छता, प्रक्रिया और उत्तरदायित्व की निगरानी के लिए मानदंड निर्धारित करेगा। इसके अलावा सभी विशेषज्ञों के इस पर एकसमान विचार थे कि केवल जैव रासायनिक मापदंडों के आधार पर नदी की स्वच्छता की दिशा का पता नहीं लगाया जा सकता है। नदी में मौजूद जलीय जीवन की स्थिति नदी के स्वास्थ्य का सूचक हो सकती है। इस प्रक्रिया में व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए नदी में विकसित विदेशी प्रजातियों की जगह जलीय जीवन की स्वदेशी प्रजातियों को शामिल किया जाना चाहिए।
- एनएमसीजी के महानिदेशक ने भारत जल प्रभाव शिखर सम्मेलन के 7वें संस्करण के समापन सत्र की अध्यक्षता की
- सभी हितधारकों के बीच एक राष्ट्रीय नदी ढांचा तैयार करने की जरूरत पर सहमति
- जल से संबंधित मुद्दों पर आधिकारिक सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए एक प्रणाली स्थापित करने की काफी अधिक जरूरत महसूस की गई
- एनएमसीजी के महानिदेशक ने इसके निष्कर्षों को जमीनी स्तर पर कार्यान्वित करने पर जोर दिया
इस सम्मेलन के समापन सत्र की अध्यक्षता राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) के महानिदेशक जी अशोक कुमार ने की। वहीं, इसका संचालन स्वच्छ गंगा के प्रोफेसर विनोद तारे ने किया। एनएमसीजी के महानिदेशक ने इसके कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करने पर जोर दिया और उन्होंने आशा व्यक्त की कि आगे सकारात्मक बदलाव जमीन पर दिखाई देंगे। कुमार ने कहा, “इस विचार-विमर्श ने हमें उन क्षेत्रों की पहचान करने में सक्षम बनाया है, जिन पर हमें काम करना है। अब यह लागू करने और जमीन पर इसके परिणामों को देखने का समय है।” उन्होंने कहा कि भारत में जल अपनी उच्च स्थिति में है और पिछले 6-7 वर्षों में देश में जल से संबंधित मुद्दों पर बेहतर जागरूकता आई है। जी अशोक कुमार ने कहा, “मानव जाति के अस्तित्व के लिए जल महत्वपूर्ण है और आखिरकार वह सम्मान और मूल्य प्राप्त कर रहा है, जिसका उसे अधिकार है।” उन्होंने आगे कहा, “हम सभी देख सकते हैं कि अब जिला प्रशासन के स्तर पर भी जल से संबंधित मुद्दों पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है, यह लगभग एक दशक पहले नहीं था।”
उन्होंने कहा कि नमामि गंगे ने जल प्रबंधन, चक्रीय अर्थव्यवस्था, संसाधनों को फिर से प्राप्ति को सुनिश्चित करने में अग्रणी भूमिका निभाई है, जिससे कि नदियां प्रदूषित न हों। साथ ही, इसने नदी-शहर गठबंधन जैसी पहल की है, जो शहरी नियोजन स्तर पर नदियों के संरक्षण को शामिल करने पर केंद्रित है। उन्होंने यह भी कहा कि एनएमसीजी की पहल के कारण जल को अब पर्यटन, स्वास्थ्य देखभाल आदि के माध्यम से स्थानीय जिलों की जीडीपी बढ़ाने के लिए एक संसाधन के रूप में देखा जा रहा है। कुमार ने इस साल के भारत जल प्रभाव शिखर सम्मेलन की विषयवस्तु पर कहा कि इसमें छोटी नदियों के पुनरुद्धार पर काफी चर्चा हुई, जो बड़े बेसिनों के कायाकल्प के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अलावा उन्होंने साइलो को तोड़ने और जल को एक संसाधन के रूप में देखने की जरूरत पर भी जोर दिया। महानिदेशक ने आगे कहा, “जल की कोई भौगोलिक सीमा नहीं है और इसके साइलोफिकेशन को तोड़ने की जरूरत है।” उन्होंने नमामि गंगे को एक आत्मनिर्भर मॉडल बनाने के लिए अर्थ गंगा के तहत अपशिष्ट जल और गाद के मुद्रीकरण, प्राकृतिक खेती, आजीविका उत्पादन आदि की दिशा में किए जा रहे कार्यों के बारे में बताया।
इस सत्र के संचालन के दौरान प्रोफेसर तारे ने कहा कि क्षेत्रवार कार्यक्रमों का एकीकरण और समन्वय उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि क्षेत्र विशिष्ट ज्ञान व विशेषज्ञता वाली परियोजनाओं का कार्यान्वयन। उन्होंने बताया कि विचार-विमर्श में इस बात को रेखांकित किया गया कि बड़े बेसिन और राष्ट्रीय स्तर के समन्वय के साथ नीचे से ऊपर की ओर दृष्टिकोण (समुदाय संचालित छोटी नदी बेसिन समितियां) अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस सम्मेलन के समापन दिवस पर आयोजित ए3 सत्र ‘नदी निगरानी कार्यक्रमों के निर्माण और कार्यान्वयन’ पर केंद्रित था। इस सत्र का उद्देश्य नदियों के उद्धार और संरक्षण कार्यक्रमों में चुनौतियों का निर्धारण करना था। वहीं, ई2 सत्र की विषयवस्तु ‘छोटी नदियों के कायाकल्प पर भूमि उपयोग के प्रभाव’ थी। इस सत्र में रेखांकित किया गया कि कैसे सबसे छोटी धारा की स्वच्छता का अगले क्रम की धारा पर प्रभाव पड़ता है और यह जलीय जैव विविधता की समृद्ध विविधता लाने के लिए जिम्मेदार है। इस सत्र की चर्चा में खराब भूमि उपयोग योजना व विकास के प्रतिकूल प्रभावों से छोटी नदियों को बचाने के लिए नीतियों, हस्तक्षेपों और रणनीतियों के प्रारूपण के महत्व को प्रदर्शित किया गया। इसे अलावा ए4 सत्र सूचना/डेटा मिलान, उपयोगिता व प्रसार रणनीति और सी5 सत्र भौतिक/हाइब्रिड मॉडल पर आधारित था।
सत्रों में यह भी प्रदर्शित किया गया कि बड़े बेसिन/राष्ट्रीय स्तर के ज्ञान आधारित संगठनों को सभी नदियों की स्वच्छता की स्थिति के बारे में स्थायी रूप से जानकारी एकत्र करने के लिए नेतृत्व करना चाहिए। यह पाया गया कि अपशिष्ट से संसाधनों के पुनरुद्धार व प्राकृतिक संसाधनों (नदी प्रणाली व मिट्टियों) के उद्धार और संरक्षण में इसका फिर से उपयोग किया जाना चाहिए और अभिनव वित्तपोषण मॉडल/उपकरण बनाने के लिए आर्थिक दृष्टि से उचित रूप में इसका आकलन किया जाना चाहिए। इसके अलावा निर्दिष्ट सर्वश्रेष्ठ उपयोग जल गुणवत्ता मानदंड की जगह नदी की स्वच्छता को आरआरसी कार्यक्रमों की प्रगति के साथ-साथ इनकी स्थिति के मूल्यांकन के लिए एक महत्वपूर्ण मानदंड के रूप में उपयोग करने की जरूरत है। इसके अलावा नदियों के कायाकल्प में आ रही बाधाओं को दूर करने पर भी विचार-विमर्श किया गया। आज की चर्चाओं से तीन मुख्य बातें निकलकर सामने आई हैं। इनमें भूमि-उपयोग में बदलाव, भूजल दोहन पर रोक, बालू खनन और नदियों में ठोस व तरल अपशिष्ट को मिलाना शामिल है। वहीं, दूसरे सत्र में डेटा संग्रहण और सूचनाओं के आदान-प्रदान पर चर्चा की गई। इसके अलावा दोपहर के सत्र की चर्चा के दौरान जल से संबंधित मुद्दों पर आधिकारिक सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए एक प्रणाली स्थापित करने की भी जरूरत महसूस की गई।
सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय विषय पर आयोजित चर्चा में यूरोपीय संघ, नॉर्वे, जर्मनी और स्लोवेनिया के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। अंतरराष्ट्रीय प्रतिभागियों ने सर्वसम्मति से इस बात पर सहमति व्यक्त की कि भौगोलिक विविधता के तहत नदी और बेसिन प्रबंधन भारत को नदी विज्ञान की एक प्राकृतिक प्रयोगशाला बनाता है। उन्होंने पाया कि जिस तरह से नदियों के कायाकल्प की दिशा में काम हो रहा है, हर व्यक्ति कह सकता है कि भारत नदी विज्ञान के विश्व शिक्षक के रूप में सामने आएगा। अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जल को लेकर भी सीओपी सम्मेलन शुरू किए जाने पर जोर दिया। 7वें भारत जल प्रभाव शिखर सम्मेलन (आईडब्ल्यूआईएस- 2022) की विषयवस्तु ‘5पी’- लोग, नीति, योजना, कार्यक्रम और परियोजना के मानचित्रण व सम्मिलन’ के चुनिंदा पहलुओं पर जोर देने के साथ ‘एक बड़े बेसिन में छोटी नदियों का उद्धार और संरक्षण’ है।