– सारांश कनौजिया
जब कभी भी श्री राम और उनके राम राज्य की बात होती है, तो सनातन विरोधी उन पर एक बड़ा आरोप लगाते हैं कि उन्होंने माता सीता का परित्याग कर उनके साथ अन्याय किया था। ऐसे में उनको आदर्श मानना नारी शक्ति के साथ अन्याय होगा। लेकिन यह आरोप भ्रामक और असत्य है। श्रीराम, माता सीता से कितना अधिक प्रेम करते थे, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि जब राजाओं और आर्थिक रूप से सक्षम पुरुषों के द्वारा एक से अधिक विवाह करना सामान्य सी बात थी, तब प्रभु श्रीराम ने एक पत्नी व्रत लेकर अपनी अलग प्रकार की ही तपस्या को शुरु किया था।
एक धार्मिक मान्यता के अनुसार जब श्रीराम ने रावण का वध कर लंका युद्ध समाप्त किया, तब रणभूमि में रावण की पत्नी मंदोदरी आई और उन्होंने श्रीराम पर छल से उनके पति की हत्या करने का आरोप लगाया। मंदोदरी ने उनके मर्यादा पुरुषोत्तम होने पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया। एक दुःखी पत्नी की पीड़ा समझ श्रीराम कुछ नहीं बोले। लेकिन जब मंदोदरी इतना अधिक क्रोधित हो गईं कि वो श्रीराम को श्राप देना चाहती थीं। तब वहां खड़े लोगों ने मंदोदरी को समझाने का प्रयास किया कि आप अपने पति की मृत्यु से शोकाकुल हैं। आप का यह क्रोध समझा जा सकता है, लेकिन जो व्यक्ति परस्त्री की छाया से भी दूर रहता है, वह अपनी पत्नी के अपहरण से कितना दुःखी हुआ होगा, आप उसकी कल्पना करने का प्रयास करें।
ऐसा माना जाता है कि मंदोदरी जब रावण की ओर बढ़ रही थीं, तब सूर्य की दिशा के कारण उनकी छाया श्रीराम की ओर पड़ रही थी। इसलिए जैसे-जैसे मंदोदरी आगे बढ़ रही थीं, श्रीराम उतने ही कदम पीछे हट रहे थे। मंदोदरी के क्रोध को देखते हुए उन्हें यह स्मरण कराते हुए कहा गया कि जो व्यक्ति दूसरी स्त्री की छाया से भी दूर रहता हो, ऐसा व्रती व्यक्ति कोई अनैतिक कार्य कैसे कर सकता है। मंदोदरी को भी ध्यान देने पर इस बात का आभास हुआ और उन्हें अपनी गलती भी समझ में आई। माता सीता से इतना प्रेम करने वाले श्रीराम उनका परित्याग स्वप्न में भी नहीं कर सकते हैं। उपरोक्त घटना से इसे समझा जा सकता है।
विभिन्न हिन्दू संतों और विद्वानों के अनुसार श्रीरामचरित मानस में लव-कुश काण्ड नहीं है। इसे बाद में जोड़ा गया है। मूल रामायण में श्रीराम के राज्याभिषेक तक का ही विस्तृत वर्णन है। इसलिए माता सीता का दूसरा वनवास कभी हुआ ही नहीं। यदि माता सीता को दूसरी बार वनवास जाना ही नहीं पड़ा, तो श्रीराम के द्वारा उनका परित्याग करने की घटना अपने आप ही झूठी हो जाती है।
एक अन्य मत के अनुसार माता सीता ने श्रीराम की दुविधा देखकर स्वयं उनसे अपना परित्याग करने का आग्रह किया था। श्रीराम को अपनी प्रजा में से किसी व्यक्ति ने माता सीता के अपहरण का उदाहरण देते हुए अपनी पत्नी से कहा कि मैं राम नहीं जो अपनी पत्नी को दूसरे के निवास स्थान पर ठहरने के बाद भी स्वीकार कर लूं। मैं ऐसा नहीं कर सकता। यह बात जैसे ही श्रीराम के कानों में पड़ी, उन्हें बहुत दुःख हुआ। अन्य कोई राजा होता तो वो ऐसा कहने वाले को दण्डित करता, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे विचार करने लगे कि मुझे एक व्यक्ति द्वारा ऐसे आचरण की जानकारी मिली है। हो सकता है कि मेरी प्रजा में से अन्य कई लोग ऐसा विचार रखते हों, लेकिन मेरे सम्मान अथवा संकोच के कारण मुझसे ऐसा नहीं कह पाते। उस व्यक्ति ने भी अपनी पत्नी से ऐसा कहा था, न की मुझसे। ऐसे में क्या किया जा सकता है?
श्रीराम के पूर्वजों ने राजधर्म को ही सबसे श्रेष्ठ माना था। श्रीराम स्वयं भी मानते थे कि प्रजा के प्रति उनका उत्तरदायित्व अन्य सभी में सबसे पहले आता है। ऐसे में प्रजा की इस शंका (मिथ्या आरोप) का समाधान उन्हें समझ में नहीं आ रहा था। इसका एक ही हल हो सकता था, माता सीता का सदैव के लिये परित्याग। किन्तु माता सीता तो उन्हें प्राणों से भी प्रिय थीं। ऐसे में उनका परित्याग कर श्रीराम कैसे जीवित रह सकते हैं। राजधर्म उन्हें उचित उत्तराधिकारी न मिलने तक, राज गद्दी के परित्याग की अनुमति नहीं देता। इसलिए उनका राजा बने रहना भी आवश्यक था। इसी दुविधा के कारण श्रीराम दुःखी रहने लगे।
माता सीता श्रीराम के हृदय में रहती थीं। इसलिए हृदय द्रवित हो और माता सीता को उसकी जानकारी न हो। ऐसा संभव नहीं था। कई बार श्रीराम से उनके दुःख का कारण पूछने पर उन्होंने माता सीता को अपनी दुविधा बताई। माता सीता ने बिना देरी करे, श्रीराम से कहा, ‘आप अपना राजधर्म निभायें। मैं उस रघुकुल की बहू हूं, जो त्याग और तपस्या का अनुपम उदाहरण है। मेरे कारण यदि आप दुःखी रहते हैं, तो ऐसे जीवन का मेरे लिये कोई अर्थ नहीं है। इसलिए मेरा त्याग ही सर्वोत्तम हल है।’ माता सीता के इन वचनों को सुन श्रीराम ने भारी मन से उन्हें त्यागने का निर्णय लिया। उस समय माता सीता ने अपने गर्भवती होने की जानकारी श्रीराम को नहीं दी थी। क्योंकि उन्हें डर था, यदि श्रीराम को यह ज्ञात हुआ, तो कहीं वे अपने निर्णय से पीछे न हट जायें।
रामायण कई महान विद्वानों के द्वारा लिखी गई। बाद में लिखी गई एक अन्य रामायण में वर्णन मिलता है कि माता सीता एक बार विचरण कर रही थीं। तभी उन्होंने एक तोती को देखा और उसे सोने के पिंजरे में कैद कर लिया। तोती उस समय गर्भवती थी। तोते के वियोग में उसने उस सोने के पिंजरे में ही अपने प्राण त्याग दिये। अंतिम समय में उसने माता सीता को श्राप दे दिया कि जिस प्रकार मैंने अपनी गर्भावस्था में अपने पति का वियोग सहा और तत्पश्चात मेरी मृत्यु हो रही है। उसी प्रकार गर्भावस्था में तुम्हारा पति तुम्हे छोड़ देगा और तुम्हें भी उसके बाद पति का साथ कभी नहीं मिल पायेगा।
तीनों ही मतों से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि माता सीता का दूसरा वनवास हुआ भी था, तो उसके लिये प्रभु श्रीराम को दोषी नहीं माना जा सकता। उनकी छवि मर्यादा पुरुषोत्तम की थी। इसलिए वे चाह कर भी नियती को नहीं बदल सकते थे। किसी व्यक्ति ने राजा पर प्रश्नचिन्ह लगाया है, तो उसकी शंका का समाधान कर उसे संतुष्ट करना एक आदर्श राजा का कर्तव्य है। उन्होंने वही किया, जो रामधर्म था। यह श्रीराम की इच्छा के विपरीत था, किन्तु जो हुआ, उसमें माता सीता की सहमति भी थी। उन्होंने अंत तक वही किया, जो माता सीता की इच्छा थी।
लेखक मातृभूमि समाचार के संपादक हैं।
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