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मणिपुर हिंसा : जिन लड़कों को अंग्रेजी पढ़ाई, उन्हीं ने स्कूल को जला दिया : लाएम हाओकिप

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इंफाल. मैं लाएम हाओकिप हूं। मणिपुर के चुराचांदपुर जिले का रहने वाला। मेरा मणिपुर इस समय जल रहा है। हालांकि इसे जलाने वाली लपटें कभी भी ठंडी नहीं हुई थी। आतंकी कहर से यहां आग लगती रही है। दंगों की वजह से बर्बादी की इंतहा हम सब ने देखी है। मैं एक ईसाई हूं, कुकी समुदाय से हूं। चुराचांदपुर जिले में एक ऐसी जगह रहता हूं जो मैतेई और कुकी समुदाय का सीमावर्ती इलाका है। हमारी जॉइंट फैमिली है। हम सब मिलकर एक ईसाई मिश्नरी स्कूल चलाते थे। लगभग 35 एकड़ में फैला था हमारा स्कूल। मैं अपने इस फैमिली स्कूल में म्यूजिक और अंग्रेजी पढ़ाता था। आपको पता है हमारा स्कूल मैतेई और कुकी गांवों के ठीक बीच में है।

इसी स्कूल के कैंपस में हमारा घर था। जमीन जायदाद भी ठीक-ठाक है। जिंदगी पटरी पर चल रही थी। सब कुछ अच्छा था। स्कूल में मैतेई और कुकी दोनों समुदायों के बच्चे एक साथ पढ़ते थे। कई टीचर्स भी मैतेई समुदाय से थे। हम सब के बीच कोई भेदभाव नहीं था। आज तक कभी एहसास तक नहीं हुआ था कि वे लोग मैतेई हैं और हम कुकी हैं। हमारी शादियों में वे लोग आते थे, उनकी शादियों में हम लोग जाते थे। उनके त्योहारों का हमें इंतजार रहता था और हमारे त्योहारों का वे लोग शिद्दत से इंतजार करते थे।

मैतेई समुदाय का एक त्योहार होता है ‘निंगोल चाकोबा’। यह मैतेई समुदाय का सबसे बड़ा त्योहार है। मुझे यह त्योहार बहुत पसंद है। निंगोल का मतलब है शादीशुदा महिला और चाकोब का त्योहार के लिए बुलावा। इस स्पेशल दिन को ये महिला अपने माता-पिता के घर में सेलिब्रेट करती हैं। ‘निंगोल चाकोबा’ के एक हफ्ते पहले पिता या मायके का सबसे बड़ा बेटा उसे इनवाइट करने आता है। उस दिन पकवान बनते हैं, पड़ोसी, दोस्त और रिश्तेदारों को बुलाया जाता है। इस त्योहार को मनाने की वजह बेहद खूबसूरत है। माता-पिता इससे अपनी बेटी के ससुराल वालों को सौहार्द, प्रेम का संदेश देते हैं। दोनों परिवारों के रिश्ते गहरे हों, इसकी कामना करते हैं। सोचिए कितना इमोशनल त्योहार है ये।

इसी प्रकार से हमारे कुकी समुदाय में ‘क्रिसमिस’ और ‘कुट’ का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। हमारे त्योहार में मेरे मैतेई दोस्त और स्टूडेंट्स आते थे। आज आप देखिए कितना जहर घुल गया है हम सबके बीच। हम एक दूसरे के दुश्मन ही हो गए हैं। इंसानियत शब्द का मतलब तो कोई याद ही नहीं रखना चाहता। ये सोच-सोचकर मुझे दुख होता है। हमारा स्कूल उस इलाके का जाना-माना स्कूल है। जहां लगभग 450 बच्चे पढ़ते थे। पता नहीं हमारे स्कूल से कितने ही मैतेई बच्चे पढ़ लिखकर नेता और ऑफिसर बन गए। जानते हैं जो मैतेई बच्चे इस स्कूल से पढ़कर निकले और जो पढ़ रहे थे उन्होंने ही इस स्कूल को आग लगाकर राख कर दिया।

जिस दिन यह घटना हुई उसे मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा। उस दिन हम सभी हर दिन की तरह सुबह उठे। अपने-अपने कामकाज किए। समय पर स्कूल गए। मणिपुर में मैतेई और कुकी के बीच हिंसा की खबरें आ रही थीं। हमें कोई फर्क नहीं पड़ रहा था शायद इसलिए क्योंकि अभी तक इस आग में हमारे हाथ नहीं जले थे। हमें इसकी गंभीरता का अंदाजा भी नहीं था। हम लोग पढ़ने-पढ़ाने में मसरूफ थे। शाम को मैं घर पर कोचिंग के लिए आए बच्चों को पढ़ा रहा था। परिवार के सभी लोग अपना-अपना काम कर रहे थे। महिलाएं खाना पकाने की तैयारी कर रही थीं और पापा शायद स्कूल संबंधी कुछ कागज खंगाल रहे थे।

इतने में पटाखे चलने की आवाज आई। हमें लगा कि मैतेई लोगों के यहां कोई त्योहार होगा। आवाज बंद नहीं हुई। मैंने मन ही मन सोचा, आज पूर्णिमा है और मैतेई इसे धूमधाम से मनाते ही हैं सो खुशी में पटाखे चला रहे होंगे। कुछ ही सेकेंड में पटाखों की आवाज और करीब से आने लगी। मैंने खिड़की में से देखा तो गुस्से से पागल लोगों की भीड़ हमारे स्कूल पर धावा बोल चुकी थी। भीड़ करीब आती जा रही थी। हम लोग बस देखते रह गए। हम कुछ नहीं कर पाए। किसी एक को भी नहीं रोक सके। उन्होंने स्कूल का सामान तोड़ना शुरू कर दिया। बहुत सारा सामान लूट लिया। इतना होने के बाद उन्हीं लोगों की भीड़ ने स्कूल जला दिया।

हम बेबस आंखों से बस अपने स्कूल को जलता हुआ देख रहे थे। स्कूल जलाने के बाद उन लोगों ने खुशी मनाई। मैं अभी तक समझ नहीं पा रहा हूं कि हमारे साथ क्या हुआ है। नफरत इस कदर हावी है, हवा में जहर इतना घुल चुका है कि जिनके साथ हमने बचपन बिताया, त्योहार, खुशियां और गम सांझे किए उन्होंने ही अपना स्कूल जला दिया। किसी तरह से हम पीछे की तरफ खड़ी अपनी कारों में सिर्फ अपने डॉक्यूमेंट्स और कुछ कपड़े लेकर वहां से उस रात भाग गए। मैंने जब से होश संभाला है शायद तब से मणिपुर की सड़कों पर खून खराबा, गोलियों की आवाज, आर्मी के बूटों की पदचाप ही सुनी है। सूनी, सहमी आंखें देखी हैं। सड़कों पर लाशें देखी हैं, भीड़ का गुस्सा देखा है। इन सब घटनाओं से हम उबर गए, काफी हद तक खुद को संभाल लिया था।

इसके बावजूद हमें कभी अपना मणिपुर, अपनी जमीन छोड़ने पर मजबूर नहीं होना पड़ा था। आज अपनों के साथ हुई इस लड़ाई ने हमसे हमारा मणिपुर ही छुड़ा दिया, हमें बेघर ही कर दिया, हमसे हमारी पहचान ही छीन ली। हम अपने घर छोड़कर अपने ही जिले में एक सेफ जगह पर आ तो गए थे, लेकिन हमारे भविष्य का क्या? खाने के लिए कुछ नहीं है, काम धंधा नहीं है। स्कूल बंद है, खेत खाली हैं, दुकानें बंद हैं, ऑफिस बंद हैं। इसका असर अगले कई साल तक रहेगा। अभी यहां खेती का सीजन है, काम नहीं होगा तो अगले साल खाएंगे क्या। मुझे लगा कि ऐसे तो नहीं चलेगा। अभी न जमीन अपने पास है न घर और अब तो स्कूल भी नहीं रहा। मुझे मेरे परिवार को पालना है।

मैंने कमाने के लिए दिल्ली का रुख किया। मेरे जैसे हजारों मणिपुरी लड़के दिल्ली, बेंगलुरु और मुंबई जा चुके हैं और लगातार जा रहे हैं। परिवार को पालने के लिए सबको रोटी और रोजगार चाहिए। हम लगातार नौकरी तलाशने में लगे हैं। जॉब इंटरव्यू के लिए जाने के लिए ऊबर-ओला या ऑटो में पैसे खर्च होते हैं। मणिपुर में जहां हम लोगों ने अपने- अपने परिवार को शिफ्ट किया है उन्हें देखने जाना होता है। उन्हें उनके खर्च के लिए पैसे भेजने होते हैं। यह सब मैनेज करना मुश्किल हो रहा है। मैं जॉब करना चाहता हूं, अपने घर लौटना चाहता हूं। अपने मणिपुर को खुशहाल देखना चाहता हूं। कुकी-मैतेई समुदाय के बीच अपने बचपन वाला अपनापन देखना चाहता हूं।

साभार : दैनिक भास्कर

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