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राष्ट्र के पिता नहीं, राष्ट्र के तो लाल होते हैं

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नई दिल्ली. अभिनेत्री व सांसद कंगना रनौत ने लाल बहादुर शास्त्री की जयंती पर पोस्ट किया कि ‘देश के पिता नहीं, देश के तो लाल होते हैं। धन्य है भारत माता का यह लाल।’ उनके इस सोशल मीडिया पोस्ट पर विवाद हो गया। संविधान में कहीं भी गांधीजी को राष्ट्रपिता नहीं लिखा गया है। क्या हमें उन्हें राष्ट्रपिता कहना चाहिए? इस पर विचार करने से पहले गांधीजी से जुड़े कुछ तथ्य हम आपके सामने रख रहे हैं। यह सामग्री ‘भारत : 1885 से 1950 (इतिहास पर एक दृष्टि) ( https://www.amazon.in/-/hi/Saransh-Kanaujia/dp/8197053626 )’ व ‘भारत : 1857 से 1957 (इतिहास पर एक दृष्टि) ( https://www.amazon.in/-/hi/Saransh-Kanaujia/dp/9392581181 )’ पुस्तकों से ली गई है। बिना इन पुस्तकों का संदर्भ लिखे, इस सामग्री का किसी भी प्रकार से उपयोग करना दण्डनीय अपराध है।

अंग्रेजों की तरह दिखना चाहते थे गांधीजी

गांधीजी और विवादों का पुराना नाता रहा है। चाहे वो मांस खाना रहा हो या फिर उनके आस-पास महिलाओं का अधिक होना। उनके वैचारिक विरोधियों ने ऐसे सभी विषयों की चर्चा की और उस पर पुस्तकें भी लिखीं। किन्तु अपने आलोचकों को आलोचना करने के लिए प्रमाण गांधीजी ने स्वयं ही उनको दिए। इसे मैं एक उदहारण के साथ बताना चाहता हूँ। गांधीजी जब वकालत की पढ़ाई पढ़ने के लिए लंदन गए, तो वहां की आधुनिकता में खो गए।

बी.आर. नंदा की पुस्तक महात्मा गांधी : एक जीवनी के अनुसार, ‘‘गांधीजी लंदन गए तो थे बैरिस्टर बनने, लेकिन उन पर अंग्रेजों जैसा बनने का शौक सर चढ़ कर बोलने लगा। उन्होंने अंग्रेजों की तरह दिखने के लिए महंगे कपड़े सिलवाये। अपनी घड़ी में सोने की चेन लगवाई। यहां तक गांधीजी ने अंग्रेजों की तरह बातचीत करने, नाचने व गाने के लिए इन क्षेत्रों के विशेषज्ञों से प्रशिक्षण प्राप्त किया’’।

गांधीजी पंडित जवाहरलाल नेहरू की तरह समृद्ध परिवार से नहीं थे। उनके माता-पिता ने किसी तरह उनको लंदन पढ़ने के लिए भेजा था। ऐसे में वकालत की पढ़ाई के लिए फीस देना ही मुश्किल रहा होगा और गांधीजी उस पैसे का क्या उपयोग कर रहे थे, यह विचार करने वाली बात थी। इस महंगे शौक के बाद एक धोती में रहने वाले गांधीजी उस समय कैसे दिखते थे? इसका वर्णन सच्चिदानंद सिन्हा ने एक लेख में किया है। इस लेख के अनुसार, ‘‘फरवरी 1890 में सिन्हा की भेंट गांधीजी से लंदन में एक सर्कस देखने के बाद हुई। उस समय गांधीजी ने एक चमचमाती रेशमी हैट, ग्लैडस्टन शैली का कॉलर वाली रेशमी कमीज और उस पर इन्द्रधनुषी रंग वाली टाई पहन रखी थी। इस कमीज पर उन्होंने धारीदार पतलून और उसी से मिलती हुई बेल्ट पहनी हुई थी। इसके ऊपर उन्होंने मार्निंग कोट पहना हुआ था। गांधीजी ने पैर में पेटेंट चमड़े वाले बूट और टखनों पर गारमोन वाली पट्टियां पहनी थीं। उनके हाथों में चमड़े के दस्ताने और हाथ में चांदी की मूठवाली घड़ी पहनी हुई थी। इस लेख में सिन्हा ने गांधीजी को दिलफेंक रंगीला कहा है’’।

(अमृत बाजार पत्रिका, 26 जनवरी 1950, गणतंत्र विशेषांक)

एक गरीब परिवार का छात्र आखिर इस प्रकार की जिंदगी कब तक व्यतीत कर सकता था। मात्र 3 महीने में ही गांधीजी के लिए भोजन तक के पैसे की व्यवस्था करना मुश्किल होने लगा। इस कारण उन्हें वापस अपनी वास्तविक जीवनशैली में आना पड़ा। किसी तरह गांधीजी ने अपनी वकालत पूरी की और 1891 में भारत वापस लौट आये। मुंबई में एक साधारण मुकदमे में भी वो जज के सामने कुछ नहीं बोल पाए। शायद उन्होंने बैरिस्टर की डिग्री तो हासिल कर ली थी, लेकिन उनका मन वकालत की जगह अभी भी अंग्रेजी जीवनशैली को छोड़ने के दुःख से दुखी था।

गांधीजी ने जो दक्षिण अफ्रीका में किया, वही अंग्रेजों ने गांधीजी से भारत में करवाया

गांधीजी किसी तरह अपनी जिंदगी काट रहे थे, तभी उनकी किस्मत बदली। एक मुस्लिम व्यापारी ने उनके सामने अपना वकील बनकर दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव रखा। गांधीजी को एक सुनहरा मौका मिला था। कोई भी होता तो इस तरह का मौका नहीं छोड़ता। गांधीजी ने भी वैसा ही किया। वो मई 1893 में अफ्रीका के डरबन बंदरगाह पहुंच गए। उन्हें यहां से प्रिटोगया जाना था। गांधीजी के पास अब अंग्रेजों की तरह रहने के लिए पैसे थे। इसलिए उन्होंने ट्रेन की प्रथम श्रेणी में यात्रा करने का निर्णय लिया। इस डिब्बे में बैठे अंग्रेजों को यह बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। उन्हें इस रंगभेद का सामना अक्सर करना पड़ता था। लेकिन अभी भी उनका मानना था कि कुछ अंग्रेजों के कारण हम सभी को इस बात के लिए दोषी नहीं मान सकते। यही कारण था कि इस रंगभेद नीति के बाद भी उनके मन में अंग्रेजों के लिए किसी प्रकार की नफरत नहीं थी।

गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में लगभग 20 वर्षों तक रहे। इस कालखण्ड में उन्होंने कभी अंग्रेजों को दक्षिण अफ्रीका छोड़कर जाना पड़े, ऐसा प्रयास नहीं किया। हां, उन्होंने अग्रेजों की आधीनता स्वीकार करते हुए भारतीयों और अश्वेतों को दक्षिण अफ्रीका में अधिक अधिकार मिले, इसके लिए प्रयास जरुर किया। यही कारण था कि वो दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों के मध्य काफी प्रसिद्ध हो गए थे। गांधीजी के जीवनीकार लुई फिशर के अनुसार गांधीजी यह सिद्धांत स्थापित करना चाहते थे कि भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक हैं और उन्हें अंग्रेजों के कानून के अनुसार भारतीयों को समानता का अधिकार मिलना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका अंग्रेजों का देश नहीं था। वो दक्षिण अफ्रीका के लोगों को गुलाम बनाकर रखते थे। इसके बाद भी फिशर के उल्लेख से स्पष्ट था कि गांधीजी किसी भी प्रकार से दक्षिण अफ्रीका को अंग्रेजों से मुक्त नहीं कराना चाहते थे। इस कारण वो अफ्रीका में भारतीयों और अंग्रेजों की रंगभेद नीति से प्रताड़ित लोगों के नेता तो बन गए, लेकिन इससे इन लोगों को दिलासा अधिक मिला और स्वतंत्रता न के बराबर।

कांग्रेस भी भारत में कुछ ऐसा ही कर रही थी। अभी तक गांधीजी और कांग्रेस में किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं था, लेकिन कांग्रेस को ऐसे ही नेता की जरुरत थी। अंग्रेजों को अच्छा मानने वाले लोगों का प्रभाव कांग्रेस में कम हो रहा था। 1914 में लोकमान्य तिलक जेल से बाहर आ चुके थे। वो अब कांग्रेस के ही नहीं पूरे देश के सर्वमान्य नेता बन चुके थे। तिलक अंग्रेजों को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते थे, इस कारण अंग्रेजों को भी कांग्रेस में उनकी उपस्थिति अच्छी नहीं लगती थी। गोपाल कृष्ण गोखले कांग्रेस के बड़े नेता तो थे, लेकिन इतने बड़े नहीं कि वो तिलक को टक्कर दे सके। गांधीजी को भारत लाने के लिए 1912 में गोखले दक्षिण अफ्रीका पहुंचे।

इतिहासकार बी.एल. नंदा के अनुसार, ‘‘गोखले की इस यात्रा को ब्रिटिश सरकार की भी मंजूरी थी। यही कारण था कि गोखले दक्षिण अफ्रीका में सरकारी अतिथि बनकर रहे। दक्षिण अफ्रीका में गोखले के साथ शाही व्यवहार किया गया अर्थात उन्हें वो सम्मान व सुविधाएं मिली, जो किसी अपने प्रतिष्ठित व्यक्ति को दी जाती थीं’’।

(बी.आर. नंदा, महात्मा  गांधी : एक जीवनी, पृष्ठ 89)

अब प्रश्न यह उठता है कि यदि कांग्रेस और गांधीजी अंग्रेजों के सबसे बड़े दुश्मन थे। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका और कांग्रेस भारत में अंग्रेज सत्ता के लिए बड़ी चुनौती थी, तो फिर कांग्रेसी नेता गोखले को ब्रिटिश सरकार के पैसे पर इतनी सुविधाएं क्यों दी गई? ब्रिटिश सरकार क्यों चाहती थी कि गांधीजी ने जैसा दक्षिण अफ्रीका में किया वैसा ही वो भारत में भी करें।

गांधीजी का हिन्दू-मुस्लिम एकता का सिद्धांत

गांधीजी और उनका अनुसरण करने वाले आज भी हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते हैं। लेकिन गांधीजी के मन में हिन्दू-मुस्लिम एकता की क्या परिभाषा थी, इसे सबसे पहले समझना चाहिए। 1921 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार गांधीजी से मिले। इस मुलाकात में डॉ. हेडगेवार ने स्पष्ट रूप से गांधीजी से सीधे पूछा, ‘‘देश में अनेक संप्रदाय हैं, फिर आप सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम एकता ही बात क्यों करते हैं’’? इसके उत्तर में गांधीजी ने कहा, ‘‘मैंने इस नारे के माध्यम से मुसलामानों के मन में देश के संबंध में आत्मीयता उत्पन्न की है, जिसे आप प्रत्यक्ष रूप में देख रहे हैं कि वे राष्ट्रीय आंदोलनों में कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं’’। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या तत्कालीन मुसलामानों के मन में देश प्रेम नहीं था।

गांधीजी के आने के पहले से कई मुस्लिम नेता कांग्रेस के साथ काम कर रहे थे, गांधीजी के नए नारे से इनकी संख्या में कोई आश्चर्यजनक वृद्धि नहीं हुई। जिन्ना ने कांग्रेस की सदस्यता 1896 में ली थी, तब तक किसी ने कांग्रेस में गांधीजी का नाम भी नहीं सुना था। इसके उलट मोहम्मद अली जिन्ना, बाल गंगाधर तिलक के जीवित रहते कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में से एक थे और 1920 में उन्होंने कांग्रेस से अलग राह पकड़ ली। यह वही समय था, जब कांग्रेस में तिलक युग समाप्त हो रहा था और गांधीयुग प्रारंभ। इससे स्पष्ट है कि जिन्ना जैसे कई मुस्लिम नेता गांधीजी के नारे के कारण नहीं बल्कि तिलक जैसे कांग्रेसी नेताओं के प्रभाव के कारण कांग्रेस से जुड़े थे। यह अलग बात है कि जिन्ना लम्बे समय से सिर्फ मुस्लिमों की ही बात करते रहे और उनके लिए अधिक संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए दिखे, इसके बाद भी तिलक के प्रभाव के कारण उनकी भाषा में अलगाव कम था और गांधीजी के आने के बाद यह इतना बढ़ गया कि जिन्ना ने भारत विभाजन करवा दिया।

यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इस विभाजन के लिए उन्होंने वर्षों पहले गाँधीजी को जिम्मेदार बता दिया था। कांग्रेस छोड़ने के बाद जिन्ना ने कहा था कि गान्धीजी के जनसंघर्ष का सिद्धांत हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन को बढ़ायेगा कम नहीं करेगा। कांग्रेस की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्षा एनी बेसेंट (ईसाई) ने भी गांधीजी के कार्यों को भारत के लिए नुकसानदायक बताया था।

भारत में असहयोग आंदोलन के नाम से चलाया गया खिलाफत आंदोलन

30 जनवरी 1948 को मोहनदास करमचंद गांधी उपाख्य महात्मा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या हो गयी। देश में क्रांतिकारियों को अपना आदर्श मानने वाले बहुत से लोग महात्मा गांधी से असहमत हो सकते हैं, लेकिन इस कारण उनकी हत्या को सही नहीं कहा जा सकता। वैसे तो महात्मा गांधी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा रहा, लेकिन मैं यहां उनकी भारत वापसी के बाद चलाये गए एक आंदोलन का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहता हूं। ऐसा इसलिये क्योंकि इसी आंदोलन ने भारत-पाकिस्तान विभाजन और तुष्टीकरण की नींव हमारे देश में रखी। किसी भी बात को रखने के लिये तर्क आवश्यक होते हैं। जिस समय गांधी जी की दुभाग्यपूर्ण हत्या हुई, उस समय मेरा जन्म नहीं हुआ था और न ही मैं इतिहासकार हूं। यही कारण है कि मैंने इस लेख का आधार वरिष्ठ इतिहासकार और गांधी जी के समय जो लोग जीवित थे, उनसे वार्ता कर चुके कृष्णानंद सागर के कुछ लेखों को आधार बनाकर उन्हें अपने शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास किया है।

खिलाफत आंदोलन उस समय इस्लाम में महत्वपूर्ण पद खलीफा को समाप्त करने के विरुद्ध चलाया गया एक अभियान था। गांधी जी इससे क्यों जुड़े, इसके पीछे बहुत से कारण बताये जाते हैं। गांधी जी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात की। जब 1921 में उनसे सवाल किया गया कि भारत में मुस्लिमों के अतिरिक्त अन्य संप्रदाय भी रहते हैं, फिर सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात ही क्यों? इस पर गांधी जी ने उत्तर दिया कि हम मुस्लिमों के मन में आत्मीयता लाना चाहते हैं। यह उत्तर सवाल खड़े करता है कि क्या 1921 में मुस्लिम स्वयं को भारत से अलग मानते थे? जो उनमें आत्मीयता उत्पन्न करने के लिये अलग से एक नारा देने की आवश्यकता पड़ी।

खिलाफत आंदोलन क्या था और क्यों भारत में इसे असहयोग आंदोलन के नाम से चलाया गया? इसको समझना भी आवश्यक है। इस्लाम को मानने वाला एक वर्ग तुर्की के सुल्तान को खलीफा मानता था अर्थात पृथ्वी पर इस्लाम का सबसे बड़ा और पूज्यनीय व्यक्ति। तुर्की में ही इसे लेकर विरोध शुरु हो गया और एक वर्ग ने खलीफा के पद को मानने से इनकार कर दिया। ऐसे में सुल्तान समर्थकों ने इसे धार्मिक रंग देने का प्रयास किया और इस सत्ता विरोधी आंदोलन को कुचलने के लिये खिलाफत आंदोलन चलाया। जैसा आज भी होता है कि विश्व में कहीं भी इस्लाम के विरुद्ध कुछ भी होता है तो उसकी प्रतिक्रिया भारत में भी होती है। वैसा ही उस समय भी हुआ। भारत में तुर्की के सुल्तान का समर्थक करने के लिये कुछ लोगों ने खिलाफत आंदोलन को खड़ा करने का प्रयास किया। सुल्तान का विरोध करने वालों पर आरोप यह था कि खलीफा विरोधी अंग्रेजों के समर्थन से इस विद्रोह को चला रहे हैं। इसलिये भारत में खिलाफत आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा हो रहा था। भारत में यह आंदोलन 1918 में शुरु हुआ और इसी आंदोलन से निकले कुछ नेताओं के कारण बाद में भारत-पाकिस्तान विभाजन हुआ। कुछ मुस्लिम नेताओं को भारत के साथ जोड़े रखने के लिये उन्हें उच्च पद या अन्य महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गयी, जो बाद में तुष्टीकरण का आधार बना।

गांधी जी के जीवनीकार लुई फिशर के अनुसार 1919 में पहली बार गांधी जी को भी खिलाफत आंदोलन के समर्थन में होने वाले कार्यक्रम के लिये निमंत्रण मिला था। विदेशी कपड़ों की होली जलाने का सुझाव सर्वप्रथम इसी कार्यक्रम में आया था। इस बैठक में उपस्थित मौलाना अब्दुल कलाम आजाद भी उपस्थित थे। इन बैठकों के बारे में गांधी जी के जीवनीकार बी.आर. नंदा ने भी विस्तार से लिखा है। कई खलीफा ऐसे हुये जिन पर आरोप लगे कि उन्होंने हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाले, हिन्दू मंदिरों को तोड़ने वाले आक्रांताओं को गाजी का दर्जा देकर सम्मानित किया। अकबर को भी हिन्दू राजा को मारने के बाद ही गाजी की उपाधि मिल सकी थी और उसकी महानता का गुणगान शुरु हुआ था। ऐसे में हिन्दू खलीफा के समर्थन में आंदोलन करेंगे, इस पर संदेह था। यही कारण है कि गांधी जी ने भारत में खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन के रूप में चलाने का निर्णय लिया। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विदेश कपड़ों की होली जलाना (स्वदेशी का विचार) और असहयोग आंदोलन (खिलाफत आंदोलन) की नींव खिलाफत आंदोलन के समर्थन में पड़ी थी । खिलाफत आंदोलन और भारत का स्वतंत्रता आंदोलन दोनों ही अंग्रेजों के विरुद्ध थे। इस कारण गांधी जी को लगा कि वो इसके लिये कांग्रेस को मना लेंगे। प्रारंभ में कांग्रेस के अंदर इस पर सहमति नहीं बन सकी, लेकिन बाद में गांधी जी के लगातार प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस ने इसे अपना पूरा समर्थन और सहयोग देने का निर्णय लिया।

अधिकांश आंदोलन की रूपरेखा 1920 में बन चुकी थी। ये आंदोलन किस प्रकार भारत-पाकिस्तान विभाजन और मुस्लिम तुष्टीकरण का आधार बना, इसका उदाहरण एक वर्ष बाद ही 1921 में धार्मिक दंगों से मिलने लगा था। 1921 में केरल के अंदर मोपला के दंगे हुए। यहां खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने वाले मोपला के मुस्लिमों ने हिन्दुओं की हत्या, हिन्दू महिलाओं के साथ बलात्कार और लूटपाट जैसी घटनाओं को अंजाम दिया। उस समय सर्वेण्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की एक रिपोर्ट के अनुसार इन दंगों में लगभग 1500 हिन्दू मारे गये और 20,000 हिन्दुओं का धर्मांतरण कर दिया गया। क्योंकि यह आंदोलन पहले अंग्रेजों के विरुद्ध शुरु हुआ था और बाद में इसने हिन्दू विरोधी रुख ले लिया। इसलिये अंग्रेजों का विरोध करने के कारण गांधी जी ने अपने एक लेख में इन मोपला के मुस्लिमों को वीर मोपला कहकर संबोधित किया था। हर जुर्म होने से पहले अपनी दस्तक देता है। गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इस दस्तक को अनसुना करते हुए दंगों को आपसी लोगों के बीच हुई हिंसक झड़प मानकर इसकी निंदा की और परिणाम 1947 में सामने आ गया।

उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन को जारी रखने के लिये इसे असहयोग आंदोलन के रूप में चलाया और क्रांतिकारियों के एक प्रयास को हिंसा का नाम देकर पूरा आंदोलन वापस लेने वाले गांधी जी ने हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार को तुष्टीकरण के लिये नजरअंदाज कर दिया। गांधी जी को मानने वाले नेताओं ने बाद में उनके ऐसे ही बयानों व कार्यों को आधार बनाकर अपनी राजनीति की और आज भी वो इस तुष्टीकरण को सही मानते हैं।

खिलाफत आंदोलन : कुछ तथ्य

गांधीजी ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए खिलाफत आंदोलन को भारत में असहयोग आंदोलन के रूप में चलाया, इसकी चर्चा मैं अपनी पुस्तक ‘‘भारत : 1857 से 1957 (इतिहास पर एक दृष्टि)’’ में कर चुका हूँ। इस पुस्तक में कुछ नए तथ्य आपके सामने रख रहा हूँ। इस्लाम को मानने वाले मुहम्मद साहब को आखिरी पैगम्बर मानते हैं, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद, इस्लाम का प्रतिनिधित्व कौन करे, इस पर मुसलामानों के बड़े समूह ने तुर्की के सुल्तान को उनके प्रतिनिधि के रूप में खलीफा की उपाधि दी। अंग्रेजों ने खलीफा का पद समाप्त करने के प्रयास शुरू कर दिए थे। अंग्रेजों के इस कदम के विरोध में भारत ही एक मात्र ऐसा गैर मुस्लिम देश था, जहां पर खिलाफत आंदोलन 1918 में शुरू किया गया। मौलाना अबुल कलाम आजाद इसके प्रमुख नेताओं में से एक थे।

भारत में खिलाफत आंदोलन को अधिक सफलता नहीं मिल रही थी। इसका एक कारण बहुसंख्यक आबादी का हिन्दू होना था, जिसे खलीफा के जाने से कोई दिक्कत नहीं थी। इसलिए मुस्लिम नेता विचार करने लगे कि किस प्रकार हिन्दुओं को भी खिलाफत आंदोलन में शामिल किया जाए। उन्हें गाँधीजी में वो सारे गुण नजर आये जो उनके लिए उपयुक्त थे। 1919 की दिल्ली में मुस्लिम कांफ्रेंस के लिए गांधीजी को भी आमंत्रित किया गया। इसी बैठक में सर्वप्रथम विदेशी कपड़ों को आग में डालने का सुझाव आया था। गांधीजी विचार कर रहे थे कि इसे खिलाफत आंदोलन की जगह और क्या नाम दिया जाये, जिससे हिन्दू भी इससे जुड़ जाये। इसके लिए एक उपसमिति का गठन किया गया। इसमें अबुल कलाम आजाद, हकीम अजमल खां और गांधीजी थे। इसी उपसमिति में गांधीजी के दिमाग में असहयोग आंदोलन नाम ध्यान में आया (बी.आर. नंदा, महात्मा गांधी : एक जीवनी, पृष्ठ 142)। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि असहयोग आंदोलन या विदेशी कपड़ों को जलाने का अभियान दोनों गांधीजी की स्वदेशी भावना की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि खिलाफत आंदोलन का नया रूप थे।

मुस्लिम नेताओं को समझाने के लिए इसे इस प्रकार परिभाषित किया गया कि खिलाफत और असहयोग दोनों का अर्थ विरोध होता है, इसलिए दोनों एक ही बात है। हिन्दुओं के लिए असहयोग आंदोलन को अंग्रेजों के विरुद्ध किया गया एक प्रयास बताया गया। इस प्रकार दोनों आंदोलनों का उद्देश्य अलग-अलग होते हुए भी हिन्दू और मुस्लिम एक मंच पर आ गए। अहिंसा की बात हिन्दुओं को समझाने वाले गांधीजी जब मुस्लिमों की बात करते हैं, तो वो 22 जून 1920 को तत्कालीन वायसराय को पत्र लिखकर सचेत करते हैं, ‘‘यदि खिलाफत की समस्या का समाधान मुस्लिमों की इच्छा के अनुसार नहीं हुआ, तो उनके पास सिर्फ तीन विकल्प हैं, तलवार से जिहाद, हिजरत (देश त्यागना) और असहयोग आंदोलन’’।

(ले. काजी मुहम्मद अदील अब्बासी, खिलाफत आंदोलन, संस्करण – 2008, पृष्ठ – 115)

मुसलमानों ने देश छोड़ने की बात कभी नहीं कही, असहयोग आंदोलन गांधीजी का विचार था अर्थात पहली बात तलवार के दम पर जिहाद मुस्लिमों के मन की बात हो सकती है। गांधीजी ने 28 जुलाई 1920 को देशवासियों से 1 अगस्त से असहयोग आंदोलन करने की बात कही।

गांधीजी ने स्वयं अंग्रेज सरकार से मिले विभिन्न पदक 1 अगस्त 1920 को वापस कर दिए। ये पदक वापस करते समय भी उन्होंने तत्कालीन वायसराय को जो पत्र लिखा, उसमें स्पष्ट किया कि ये सभी पदक मुसलामानों के समर्थन में वापस किये जा रहे हैं (ले. काजी मुहम्मद अदील अब्बासी, खिलाफत आंदोलन, संस्करण – 2008, पृष्ठ – 112)। किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि हम असहयोग आंदोलन को देश की स्वतंत्रता के लिए चलाया गया आंदोलन मानते हैं। कुछ लोग तो इससे भी एक कदम आगे बढ़ गए और उन्होंने प्रचारित कर दिया कि गांधीजी ने जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में ये पदक वापस किये, जबकि स्वयं गांधीजी के अनुसार इसका कारण कुछ और ही था।

प्रारंभ में गांधीजी को खिलाफत आंदोलन के लिए कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं का भी साथ नहीं मिला था। जिन्ना ने भी खिलाफत आंदोलन का विरोध करते हुए इसे विभाजनकारी बताया था। तिलक भी इस आंदोलन के पक्ष में नहीं थे। 30 मई 1920 को कांग्रेस की बनारस बैठक में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा, लेकिन उन्हें कोलकाता अधिवेशन में प्रस्ताव विचार करने के लिए कह कर टाल दिया गया। गांधीजी को इसकी उम्मीद कम थी कि कोलकाता अधिवेशन में भी कुछ हो पायेगा।

अब उनकी रजनीतिक प्रतिष्ठा दाव पर लगी थी। इसलिए उन्होंने दूसरा रास्ता खोजा और प्रस्ताव को गुजरात प्रांतीय परिषद में पारित करवा लिया। यह पहला अवसर था जब गांधीजी राष्ट्रीय नेतृत्व की इच्छा के विरुद्ध जाकर कोई प्रस्ताव पारित करवाना चाहते थे। वे रेलगाड़ी भरकर अपने समर्थकों के साथ कोलकाता अधिवेशन में पहुंचे थे। अब तक असहयोग आंदोलन को चलते लगभग एक माह हो चुका था और कांग्रेस के कई मुस्लिम सदस्य उनसे काफी प्रभावित थे। अगस्त में तिलक का देहांत हो चुका था। चितरंजन दास और लाला लाजपत राय जैसे कई नेताओं ने सितंबर 1920 के कोलकाता अधिवेशन में प्रस्ताव का विरोध किया, लेकिन बहुमत गांधीजी के साथ होने के कारण प्रस्ताव पारित हो गया।

खिलाफत आंदोलन में हिंसा से गांधीजी को दिक्कत नहीं

गांधीजी सदैव अहिंसा की बात करते थे, लेकिन क्या उनका यह ज्ञान सिर्फ हिन्दुओं के लिए ही था? क्या वे मानते थे कि मुसलमान हिंसा तो करेंगे ही? क्या इस पर गांधीजी ने अपनी सहमति भी व्यक्त की थी? ऐसे विभिन्न प्रश्न गांधीजी के द्वारा स्वयं लिखी गई अपनी जीवनी से भी मन में आते हैं। गांधीजी ने कभी भी हिन्दू विरोधी दंगों में शामिल लोगों (सामान्यतः मुसलमान) के खिलाफ कड़ी सजा की मांग नहीं की। इस पुस्तक में भी हम अभी तक पढ़ चुके हैं कि किस प्रकार गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को भारत में असहयोग आंदोलन के नाम से चलाया। जबकि गांधीजी को स्वयं विश्वास था कि इस आंदोलन में मुसलमान  हिंसक भी होंगे।

गांधीजी ने स्वयं अपनी जीवनी के 42वें अध्याय ‘‘असहयोग का प्रवाह’’ में लिखा है, ‘‘…अली भाइयों का खिलाफत के बारे में आंदोलन तो चल ही रहा था। स्व. मौलाना अब्दुल बाड़ी आदि उलेमाओं के साथ इस विषय में खूब चर्चा हुई। मुसलमान शांति का, अहिंसा का किस हद तक पालन कर सकते हैं – इस विषय में विवेचनाएं हुई और अंत में तय पाया कि एक ख़ास हद तक नीति के रूप में इतना पालन करने से रूकावट नहीं है। …अंत में असहयोग का प्रस्ताव खिलाफत कांफ्रेंस में रखा गया और वह बड़े बहस-मुबाहिसे के बाद पास हुआ’’।

(आत्मकथा, पृष्ठ 316-317)

गांधीजी के उपरोक्त कथनों से दो बाते स्पष्ट थीं। पहली उन्होंने खिलाफत और असहयोग दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया है अर्थात दोनों आंदोलन एक ही थे। दूसरा मुसलमान एक खास हद तक ही अहिंसा और शांति पर सहमत थे अर्थात उस हद के बाद अशांति और हिंसा होने ही वाली थी। यह हद क्या होगी, इसकी परिभाषा निश्चित नहीं की गई। इसलिए मुसलामानों के द्वारा आंदोलन को अशांत और हिंसक किया जा सकता है, इसकी पूरी संभावना थी। इसके बाद भी गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन के लिए कितना परिश्रम किया, इसके कुछ उदहारण हमने पहले दिए हैं।

गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को कांग्रेस का समर्थन दिलवाने के लिए स्वराज्य का नारा स्वीकार किया था। इसे उन्होंने स्वयं अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है। असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में लाने पर वे  लिखते हैं, ‘‘…विजय राघवचार्य को यह न रुचा। विजय के अनुसार अगर असहयोग करना ही है तो किसी खास अन्याय के लिए क्यों? स्वराज्य का अभाव बड़े से बड़ा अन्याय है, उसके लिए असहयोग करना चाहिए। …मैंने तुरंत यह सुझाव स्वीकार कर लिया और स्वराज्य की मांग भी प्रस्ताव में शामिल कर ली’’।

(आत्मकथा, पृष्ठ – 318)

यहां एक और विचित्र बात को स्पष्ट करने की आवश्यकता है, गांधीजी के स्वराज्य में अंग्रेजी शासन से मुक्ति नहीं था, बल्कि उनकी गुलामी स्वीकार करते हुए देश के लिए होने वाले निर्णयों में भारतीयों की अधिक भागीदारी सुनिश्चित करना था।

गांधीजी ने अंग्रेजों के विरुद्ध खिलाफत आंदोलन में मुसलामानों का साथ क्यों दिया? इसको लेकर कई मत हैं। एक मत है कि गांधीजी इस आंदोलन के माध्यम से भारत के हिन्दू और मुसलमान दोनों के सर्वमान्य नेता बनना चाहते थे। इस आंदोलन के सहारे वो कांग्रेस के बड़े नेता तो बन भी गए। यह अलग बात है कि मुस्लिम नेताओं का जुड़ाव गांधीजी और कांग्रेस से उतना नहीं हुआ, जिसकी उम्मीद शायद गांधीजी को रही होगी। दूसरा मत यह भी है कि उस समय कई मुस्लिम नेता कांग्रेस को हिन्दू पार्टी बताकर मुसलमानों का समर्थन हासिल कर रहे थे। अंग्रेजों को डर था कि यदि मुसलमान आक्रोशित हुआ, तो उनके लिए समस्या खड़ी हो सकती है। यदि भारत का मुसलमान शरीयत के अनुसार शासन की मांग करने लगा, तो अंग्रेजों के लिए शासन करना संभव नहीं होगा। अंग्रेज स्वयं शरीयत के नियमों को नहीं मान सकते थे। इसलिए उन्हें भी अहिंसा का पाठ पढ़ा कर थोड़ा शांत करने की आवश्यकता है और इस कार्य को गांधीजी से अधिक अच्छी प्रकार से कोई और नहीं कर सकता है।

मुस्लिम नेता किस प्रकार मुसलामानों को भड़का रहे थे, इसके उदहारण स्वरूप डॉ. सैफुद्दीन किचलू के 28 मार्च 1920 को दिए गए एक भाषण लिया जा सकता है, जिसमें वो कहता है, ‘‘जिहाद हर समय कर्तव्य है और हर उस समय जब इस्लाम पर कोई ताकत हमला करे और मजहबी युद्ध हो, उस समय मुसलामानों का फर्ज है कि वे जिहाद के लिए तैयार रहें। …आपने अगर एक-दो दर्जन अंग्रेज मार डाले तो उससे क्या लाभ हुआ? एक हवाई जहाज आपके लिए काफी है’’।

(ले. काजी मुहम्मद अदील अब्बासी, खिलाफत आंदोलन, पृष्ठ – 104)

ये गुस्सा अंग्रेजों के खिलाफ था, लेकिन जहां अंग्रेज नहीं मिले, इन जिहादियों का गुस्सा हिन्दुओं पर फूटा। गांधीजी के कारण जो हिन्दू खिलाफत आंदोलन में साथ आये थे, अब वो ही मुसलामानों का शिकार हो रहे थे।

मोपला के दंगों को स्वतंत्रता के लिए किया गया आंदोलन बताया गया। जबकि मोपला में हिन्दुओं का नरसंहार हुआ था। सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की रिपोर्ट के अनुसार इन दंगों में हिन्दू स्त्रियों के बलात्कार की कोई सीमा ही नहीं थी। 1500 हिन्दुओं की हत्या हुई और 20,000 हिन्दुओं का बलपूर्वक धर्मांतरण कर उन्हें मुसलमान बना दिया गया। उस समय हिन्दुओं की 3 करोड़ रुपये की संपत्ति लूट ली गई, जब एक रुपये एक बार में खर्च करने वाला व्यक्ति भी धनवान माना जाता था। एनी बेसेंट के अनुसार जिन लोगों ने धर्म परिवर्तन स्वीकार नहीं किया, मुसलामानों ने उन्हें भगा दिया, लगभग एक लाख लोगों के सिर्फ तन पर जो कपड़ा था, वो बचा, बाकी सब छीन कर उन्हें बेघर कर दिया गया। जहां कांग्रेस ने इस घटना पर दुःख व्यक्त कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ली, तो वहीं गांधीजी अपने लेख में इन मुसलामानों को वीर मोपला कहकर संबोधित करते हैं। 12 फरवरी 1922 को चौरी-चौरा की घटना को कारण बताकर गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को भी वापस ले लिया था। शायद अब उन्हें खिलाफत आंदोलन की जरुरत नहीं रही होगी।

एक वर्ष में स्वराज्य के नाम पर मिला सिर्फ धोखा

लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जब तक जीवित रहे, उनकी बात को काटने का साहस कांग्रेस में किसी का नहीं था। एक संगठन के दो प्रमुख नहीं हो सकते, यह बात गांधीजी को पता थी, लेकिन अगस्त 1920 को तिलक की मृत्यु के बाद स्थिति बदल चुकी थी। गांधीजी ने अपने राजनीतिक कौशल का प्रदर्शन करते हुए पूरी कांग्रेस को असहयोग (खिलाफत) आंदोलन का समर्थन करने के लिए मजबूर कर दिया था। इसके साथ ही उन्होंने स्वयं की भारतीय जनमानस में पैठ बनाने के लिए दूसरा प्रयास किया। उन्होंने 1 वर्ष में स्वराज्य दिलाने का वादा देश की जनता से किया। अभी तक तिलक स्वराज्य की बात तो करते थे, लेकिन वो कभी कोई निश्चित समयसीमा या एक वर्ष जितना छोटा समय घोषित नहीं कर सके थे। इसलिए गांधीजी की इस योजना ने जहां खिलाफत आंदोलन से लोगों को जोड़ा, वहीं उन्हें आम भारतीयों का भी समर्थन मिलने लगा।

तिलक का देहांत हो चुका था, इसलिए अब कोई गांधीजी से यह पूछने की हिम्मत भी नहीं रखता था कि वो सिर्फ एक वर्ष में कैसे यह करेंगे? गांधीजी ने इसका लाभ उठाने का निर्णय लिया। गांधीजी ने कांग्रेस महासमिति के माध्यम से दो कोष बनाने का निर्णय लिया, पहला – तिलक स्मारक कोष और दूसरा – स्वराज्य कोष। बाद में इन दोनों कोषों को एक कर नाम दिया गया ‘‘अखिल भारतीय तिलक स्मारक कोष’’। 31 मार्च से 1 अप्रैल 1922 को विजयवाडा की कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में तय किया गया कि उपरोक्त कोष में 1 करोड़ रुपये एकत्रित किये जायेंगे। फिर क्या था, सभी औपचारिकतायें पूरी कर ली गई और गांधीजी चंदा एकत्रित करने निकल पड़े। वो तिलक स्वराज्य फंड के नाम से लोगों से पैसे मांगते, क्योंकि इस नाम में तिलक और स्वराज्य दोनों शब्दों का समावेश था।

लोग पैसों के साथ-साथ सोने-चांदी के जेवर, चांदी व तांबे के सिक्के खुले मन से दान दे रहे थे। कई इतिहासकारों के अनुसार पूरे चंदे का मूल्य एक करोड़ से भी अधिक था। ऐसे समय जब 100 रुपये जेब में रखने वाले व्यक्ति को भी अमीर माना जाता था, गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अथाह धन, सोना व चांदी जमा कर लिए था। इन सब में गांधीजी सबसे आगे थे या ये भी कह सकते हैं कि पूरा धन संग्राम उनके ही नेतृत्व में हुआ था। इस तरह गांधीजी कांग्रेस और लोगों के सर्वमान्य नेता तो बन गए, लेकिन स्वराज्य के लिए कोई प्रयास हुआ ही नहीं।

गांधीजी के वस्त्र त्यागने के पीछे का रहस्य

जब तक बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस में रहे गांधीजी को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। यदि तिलक सितंबर 1920 के कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन तक वो जीवित रहते, तो शायद गांधीजी खिलाफत आंदोलन में भाग लेने के लिए कांग्रेस को तैयार नहीं कर पाते। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या अब कोई कांग्रेसी ऐसा नहीं था, जो कांग्रेस को अंग्रेजों की भक्ति से मुक्ति दिला सके। लाला लाजपत राय तब भी कांग्रेस में उपस्थित थे। यह अलग बात है कि अंग्रेजों ने उन्हें 13 वर्षों तक भारत से दूर रखा, इसलिये वो 1907 में भारत छोड़ने के बाद हुए घटनाक्रमों के साक्षी नहीं थे। उन्हें इसकी बारीकियां समझने में समय लगने वाला था।

तब तक तिलक के नाम पर गांधीजी धन भी संग्रह कर चुके थे और इस निमित्त की गई उनकी यात्रा के कारण उन्हें लोकप्रियता भी मिल चुकी थी। लेकिन उनके सामने दो संकट अभी भी थे, पहला वरिष्ठता के अनुसार लाला लाजपत राय का कद अधिक बड़ा था, दूसरा उन्होंने स्वराज्य की बात तो ऐसे ही कह दी थी, वो कभी अंग्रेजों से देश को मुक्त कराना ही नहीं चाहते थे। लाला लाजपत राय मुखर होकर अंग्रेजों का विरोध करते थे, इसलिए लोग उन्हें बहुत पसंद करते थे, जबकि गांधीजी लोगों से अंग्रेजों के खिलाफ भी शांति और अहिंसा का व्यवहार करने पर बल देते थे। इस कारण उनकी पहली आशंका कभी भी सत्य हो सकती थी। 1 वर्ष बीत जाने के बाद लोग स्वराज्य कब मिलेगा, यह प्रश्न भी पूंछ सकते हैं, इससे गांधीजी को अपनी छवि और खराब होने की आशंका थी।

मैंने अपनी पुस्तक भारत : 1857 से 1957 में बताया था कि गांधीजी को अंग्रेजी रहन-सहन और वेशभूषा से कितना प्रेम है। उनका यह प्रेम भी उनके मिशन में रूकावट बन सकता था। इसलिए उन्हें एक तरीका ध्यान में आया। यदि स्वराज्य नहीं मिला तो जो पैसा उन्होंने इसके नाम पर जुटाया है, उसका भी हिसाब लिया जाता। ऐसे में उन्होंने पहले स्वराज्य मिल जाने के लिए जो 1 अगस्त 1921 की डेडलाइन तय की थी, उसे चार महीने बढ़ा दिया, जिससे गांधीजी को इस परिस्थिति से निकलने के लिए और अधिक समय मिल जाए। उन्हें तरीका मिल गया, लेकिन इसके लिए गांधीजी को अपना एक मोह जीवन भर के लिए छोड़ना पड़ा। गांधीजी ने वस्त्रों का त्याग कर दिया। अब वो सिर्फ एक धोती में नजर आने लगे।

इस कार्य से उनके कई लक्ष्य हासिल हो गए। अब त्याग में वो लोगों को लाला लाजपत राय से बड़े लगने लगे। वो एक महात्मा की तरह लगते थे, इसलिए जो धन उन्होंने एकत्रित किया था, उसके दुरूपयोग की आशंका को लेकर उठ रहे प्रश्न भी अब शांत हो गए। चारों ओर गांधीजी के वस्त्रों को त्यागने की चर्चा होने लगी। विदेशी वस्त्रों की होली तो उन्होंने खिलाफत आंदोलन के समर्थन में जलाई ही थी, उनके प्रशंसक वस्त्र त्याग को इससे जोड़कर भी देखने लगे। इसी सहारे धीरे-धीरे वो लोगों के लिए महात्मा गाँधी बन गए। स्वराज्य मिलने के लिए गांधीजी ने जो नयी डेडलाइन 1 दिसंबर रखी थी, वो दिन भी आ गया। अब तुलना गांधीजी के त्याग और तपस्या की उनके स्वराज्य के वादे से होने लगी। लोगों को निराशा हुई, लेकिन गांधीजी के वस्त्र त्याग के कारण भारतीयों को लगा की गांधीजी ने पूरी ताकत से स्वराज्य के लिए संघर्ष किया, किन्तु शायद उनके भाग्य में ही अभी स्वराज्य नहीं लिखा था। इस तरह न तो किसी ने गांधीजी पर स्वराज्य न मिलने के कारण प्रश्न उठाये और न ही किसी ने चंदे का हिसाब मांगा। लेकिन गांधीजी फिर कभी अपने प्रिय अंग्रेजी वस्त्रों को धारण नहीं कर सके। भारत के इतिहास में किसी व्यक्ति द्वारा किया गया पहला इतना बड़ा घोटाला हमेशा के लिए दब गया।

 स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती और महात्मा गांधी

देश में ऐसे अनगिनत स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हुये जो पहले कांग्रेस के साथ जुड़े या उसे अपना समर्थन दिया लेकिन बाद में वैचारिक मतभेद होने के कारण एक अलग राह बना ली। इनमें सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह व डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार जैसे अनेक नाम शामिल हैं। तो कुछ लोग कांग्रेस के बाहर से भी स्वतंत्रता के लिए प्रयासरत थे। ऐसे ही एक महान धार्मिक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे स्वामी श्रद्धानंद। महात्मा गांधी इनसे इतने असहमत थे, कि स्वामी जी की हत्या के बाद हुई कांग्रेस की बैठक में उनके हत्यारे की ही वकालत करने लगे थे और गांधी जी ने उनकी हत्या को भी सही सिद्ध करने का प्रयास किया था।

स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती के बचपन का नाम मुंशीराम विज था। उनका जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब में हुआ था। वे आर्य समाज के विचारों से प्रभावित संत थे। प्रसिद्ध गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना उन्होंने ही की थी। ऐसे ही विभिन्न अन्य शिक्षण संस्थानों की स्थापना के पीछे उनका उद्देश्य हिन्दू मान्यताओं का प्रचार-प्रसार था। जबकि गांधी जी हिन्दू मान्यताओं और हिन्दुओं के गौरवशाली इतिहास के शिक्षण को घृणा फैलाने वाला कार्य मानते थे। गांधी जी को अंग्रेजी शिक्षण पद्धति से कोई समस्या नहीं थी। हिन्दू समाज में फैले हुये जातिगत भेदभाव के विरुद्ध स्वामी जी के कार्यों को देखकर 1922 में डॉ. भीमराव राम आंबेडकर ने उन्हें अछूतों का महानतम और सच्चा हितैषी बताया था।

स्वामी जी ने सर्वप्रथम जालंधर में आर्य समाज के जिलाध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली थी। उस समय वो वकालत करते थे। किंतु दयानंद सरस्वती की 1883 में हत्या के बाद श्रद्धानंद जी ने स्वयं को पूरी तरह आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। उनका जीवन इस बात का भी उदाहरण है कि आर्य समाज हिन्दू धर्म की बुराईयों के विरुद्ध है न की हिन्दुत्व के सिद्धांत के। इस कारण स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिये हिन्दुओं के संगठन पर जोर देते थे। गांधी जी इस विचार से असहमत थे। गांधी जी को संदेह था कि मुस्लिम समाज स्वयं को हिन्दुस्थान से जुड़ा हुआ महसूस नहीं कर रहा, इसके लिये हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात कर, उसे जोड़े रखना बहुत जरुरी है। हिन्दुत्व के विचार का प्रचार-प्रसार इसमें बाधक है।

ऐसा नहीं है कि स्वामी जी और गांधी जी के बीच यह मतभेद हमेशा से थे। गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार करते हुये सुधारों की वकालत कर रहे थे, तो भारत में उनकी जो सकारात्मक छवि बन रही थी, उससे श्रद्धानंद जी भी प्रभावित थे। उनके द्वारा स्थापित गुरुकुल कांगड़ी के विद्यार्थियों ने उस समय 1500 रूप ये एकत्रित करके गांधी जी को भेजे थे। स्वतंत्रता से पूर्व 1 रूप ये भी बहुत बड़ी राशि होती थी। ऐसे में प्रश्न उठता है कि गांधी जी के भारत आने के बाद ऐसा क्या हुआ, जो स्वामी जी से गांधीजी नाराज हो गये?

इसके उत्तर के लिये विदर्भ प्रांत के एक तत्कालीन बड़े कांग्रेसी नेता डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार की चर्चा करना चाहता हूं। डॉ. हेडगेवार चाहते थे कि कांग्रेस पूर्ण स्वराज्य के अंतर्गत अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिये कहे। जबकि गांधी जी दक्षिण अफ्रीका की तरह ही हिन्दुस्थान में भी अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार करते हुये सुधारों की वकालत कर रहे थे। गांधी जी के स्वराज्य का अर्थ था कि अंग्रेज प्रमुख बने रहे और उनके आधीन रहते हुये हिन्दुस्थानी हिन्दुस्थान का काम देखें। गांधी जी के इन विचारों से डॉ. हेडगेवार सहित कई अन्य कांग्रेसी सहमत नहीं थे। इस कारण कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नेताजी सुभाष चंद्र बोस सहित कई वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। जब गांधी जी हिन्दुस्थान आये और कांग्रेस से जुड़े, तो उनके वास्तविक विचारों से स्वामी श्रद्धानंद अवगत हुये।

स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती हिन्दुस्थान का पुराना गौरवशाली हिन्दू इतिहास याद दिलाने का प्रयास निरंतर कर रहे थे। उनका मानना था कि यदि हम इतिहास के वास्तविक महापुरुषों से सीख लेंगे, तो हमें स्वतंत्रता भी मिलेगी और हम सदैव स्वतंत्र बने भी रहेंगे। स्वामी जी को इसके लिये क्रांतिकारियों का सहयोग लेने में भी कोई दिक्कत नहीं लगती थी, जबकि गांधी जी क्रांतिकारियों को हिंसावादी मानते थे। गांधी जी की तुलना में स्वामी जी के विचार डॉ. हेडगेवार से अधिक मिलते थे। गांधी जी ने मोपला सहित हिन्दुओं के विरुद्ध हुये सांप्रदायिक दंगों के विरोध में एक भी मुस्लिम आतंकवादी की निंदा नहीं की, जबकि स्वामी जी ने इन सबका मुखर होकर विरोध किया। इस कारण कई मुस्लिम नेताओं को स्वामी जी खतरा लगने लगे। 23 दिसंबर 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक आतंकवादी ने स्वामी जी की हत्या कर दी।

यह हत्या दुखद थी। कांग्रेस में कुछ लोग इस हत्या को साम्प्रदायिक सौहार्द की भावना के विरुद्ध मानते थे। लेकिन गांधी जी अहिंसा के सिद्धांत के इतर कितने प्रसन्न थे, यह बात स्वामी जी की हत्या पर उनकी प्रतिक्रिया से समझी जा सकती है। यंग इंडिया में प्रकाशित वर्ष 1926 की एक रिपोर्ट के अनुसार गांधी जी ने 26 दिसंबर 1926 को गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में स्वामी जी की हत्या पर शोक सभा को संबोधित करते हुये कहा था कि मैं अब्दुल रशीद को भाई मानता हूं। मैं उन्हें स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। एक दूसरे के विरुद्ध घृणा पैदा करने वाले लोग इस हत्या के दोषी हैं। इसलिये हमें आंसू नहीं बहाने चाहिए। मैं स्वामी श्रद्धानंद की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती की हत्या हमारे दोष को धो देगी। इससे हृदय निर्मल होगा।

स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती ने कांग्रेस द्वारा आयोजित कई कार्यक्रमों में भाग लिया था। इनमें से कांग्रेस नेता के रूप में डॉ. हेडगेवार द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम को श्रद्धानंद सरस्वती ने संबोधित भी किया था। इसके बाद भी अहिंसा के पुजारी के रूप में प्रसिद्ध गांधीजी के स्वामी जी के बारे में जो विचार थे, वो गांधी जी की अहिंसा के प्रति उनकी अत्याधिक श्रद्धा को दर्शाते हैं। अति सर्वत्र वर्जयेत की नीति के अनुसार अहिंसा की अति भी वर्जनीय होनी चाहिए।

सच कहने की हिम्मत रखने वाली एनी बेसेंट बनी कांग्रेस अध्यक्ष

कांग्रेस में गांधीजी के आने के बाद भी बाल गंगाधर तिलक की 1920 में मृत्यु तक गरम दल के लोगों का प्रभाव अधिक था। इस कारण बाल-लाल-पाल की तिकड़ी कई मुखर होकर कार्य करने वालों को कांग्रेस में प्रवेश कराने में सफल हुई। इन्हीं में से एक नाम था एनी बेसेंट का। आयरिश मूल की एनी बेसेंट का विवाह एक पादरी से हुआ था, जिन्हें उन्होंने स्वयं पसंद किया था, किन्तु अपने पति के धार्मिक विचारों से असहमत होने के कारण उनका तलाक हो गया। बेसेंट की भारत को नजदीक से देखने और कार्य करने की उनकी इच्छा उन्हें 1893 में भारत ले आई। वो भारत एक समाजसेवी के रूप में आई थीं। लेकिन बाद में उनका संपर्क बाल गंगाधर तिलक से हुआ। उनसे प्रभावित होकर वो कांग्रेस से भी जुड़ गईं। क्रांतिकारी विचारों की समर्थक एनी बेसेंट 1917 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्ष बनी।

भगत सिंह की तरह ही एनी बेसेंट भी गांधीजी के आंदोलन चलाने के तरीकों और उसके उद्देश्यों से सहमत नहीं थीं। भगत सिंह ने जहां इस ओर अधिक ध्यान न देते हुए अलग क्रांति का रास्ता अपना लिया, तो वहीं एनी बेसेंट ने गांधीजी की खुली निंदा करने में भी संकोच नहीं किया। भारत आने से पहले ही गांधीजी के बारे में जो सकारात्मक माहौल बनाया गया था, उनके वक्तव्य उस पर बड़ा तमाचा थे, लेकिन दुर्भाग्य से इस मामले में किसी ने उनका साथ नहीं दिया या संभव है की 1920 में तिलक की मृत्यु के बाद कोई चाह कर भी उनका साथ नहीं दे सका। एनी बेसेंट के अनुसार, “ गांधीजी के आन्दोलन अराजकतावादी तथा घृणा पैदा करने वाले हैं। गांधीजी के दर्शन एवं नेतृत्व स्वतंत्रता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हैं। गांधीजी अस्पष्ट स्वराज देखने वाले और रहस्यवादी राजनीतिज्ञ हैं। गांधीजी के सच्चे हृदय से पश्चाताप, उपवास, तपस्या आदि पर मुझे विश्वास नहीं होता है, यह संदेह पैदा करते हैं। मैं भारत की जनता को चेतावनी देती हूं कि यदि गाँधीवादी प्रणाली को अपनाया गया, तो देश पुनः अराजकता के खड्ड में जा गिरेगा।” स्वतंत्रता के समय एनी बेसेंट की ये भविष्यवाणियां सही होती दिखी।

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