इतिहास में इनमें से कुछ नामों का उल्लेख मिलता है। ऐसा ही एक नाम है बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे बाबू कुंवर सिंह का। उनका जन्म 1777 में हुआ था, इस अनुसार 1857 में उनकी आयु 80 वर्ष थी। इसके बाद भी जिस वीरता के साथ उन्होंने अंग्रेजों से मुकाबला किया, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी कम है। यहां एक बात और है, जिस पर हमें ध्यान देना चाहिए। 1857 से पहले तक बाबू कुंवर सिंह के अंग्रेज अधिकारियों से अच्छे संबंध थे, लेकिन जब बात भारत की स्वतंत्रता की आई, तो इस देश के लाल ने कुछ विचार नहीं किया। 27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, बिहार के अन्य जवानों व अपने कुछ साथियों को साथ लेकर इनके द्वारा आरा नगर पर अधिकार स्थापित कर लिया गया। उनके द्वारा आरा जेल से कैदियों को स्वतंत्र कर दिया गया और अंग्रेजों के खजाने पर भी कुंवर सिंह का कब्जा हो गया। इससे उत्साहित बाबू कुंवर सिंह ने बीबीगंज में अंग्रेजों के खिलाफ 2 अगस्त 1857 को मोर्चा खोल दिया। इसके बाद अंग्रेजों से उनका बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में भीषण संघर्ष हुआ।
सितंबर 1857 में कुंवर सिंह की भेंट नानासाहब से हुई। यह वह समय था जब कुंवर सिंह बिहार से होते हुए उत्तर प्रदेश पहुंचे थे। यहां वो रामगढ़ के सिपाहियों के साथ बाँदा, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर व गोरखपुर में लोगों के बीच जनजाग्रति का संचार कर रहे थे। लेकिन यहां भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया, तात्या टोपे की हार के बाद उन्होंने बिहार वापस लौटने का निर्णय लिया। जब वे बिहार के जगदीशपुर की ओर वापस लौटने के लिए नदी पार कर रहे थे, तो एक अंग्रेज की गोली उनके हाथ में लग गई। इस गोली के कारण शरीर के अन्य भागों में असर न हो जाये, इसलिए इस वीर नायक ने अपने हाथ का वो भाग ही काट कर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहां अंग्रेजों से उनके संघर्ष में वो विजयी रहे लेकिन इस घायल अवस्था ने उन्हें बहुत कमजोर कर दिया। वो किसी तरह 23 अप्रैल 1858 को वापस बिहार तो पहुंच गए, लेकिन 26 अप्रैल 1858 को उनकी मृत्यु हो गई।