– संजय कुमार मिश्रा
प्रकृति दो शब्दों से बना है प्रकृति। प्र का अर्थ है प्रकृष्ट, सर्वोत्तम। कृति का अर्थ है रचना। अर्थात ऐसी रचना, जो सर्वोत्तम है। उपभोगवादी अप्राकृतिक जीवन शैली अपनाकर हम सर्वोत्तम रचना प्रकृति का विनाश करते चले जा रहे हैं। ‘योग’ हमें प्रकृतिस्थ बनाता है। योग का अर्थ है जुड़ना। योग की विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से हम प्रकृति से जुड़ते हैं। प्रकृति ही हर जीव-जाति के लिए जीने के साधन जुटाती रही है। पृथ्वी पर साफ पानी, साफ हवा और वनस्पति तथा खनिज उपलब्ध कराती है। आज हमारी प्रकृति और पर्यावरण खतरे में है। ऐसे में योग ही ऐसा माध्यम है, जो जीवन की होड़ और दौड़ को सही रास्ते पर लाने में मार्गदर्शन कर सकता है।
आदियोगी शिव प्रकृतिपुरुष हैं। शिव ही महायोगी हैं। शिव प्रथम गृहस्थ हैं। यह सुनने में भले ही अटपटा लगे परंतु वास्तविकता यही है कि प्रकृतिपुरुष शिव स्वयं परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच सामंजस्य बनाए रखने के सुंदरतम प्रतीक हैं। शिव का जो प्रचलित रूप है, वह है शीश पर चंद्रमा और गले में अत्यंत विषैला नाग। चंद्रमा आदिकाल से ही शीतलता प्रदान करने वाला, लेकिन नाग? अपने विष की एक बूँद से किसी भी प्राणी के जीवन को कालकवलित कर देने वाला।
अनियंत्रित उर्जाप्रवाह यानी गंगा को अपनी जटाओं में बाँधकर नियंत्रित करने वाले और समुद्रमंथन से निकले हलाहल को कंठ में धारण करनेवाले नीलकंठ। कैसा अद्भुत संतुलन है। शिव अर्धनारीश्वर हैं। पुरुष और प्रकृति (स्त्री) का सम्मिलित रूप। वे अर्ध नारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। प्रकृति यानी पार्वती उनकी पत्नी हैं, लेकिन हैं वीतरागी। शिव गृहस्थ होते हुए भी श्मशान में रहते हैं। मतलब काम और संयम का सम्यक संतुलन। भोग भी, विराग भी; शक्ति भी, विनयशीलता भी। आसक्ति इतनी कि पत्नी उमा के यज्ञवेदी में कूदकर प्राण दे देने पर उनके शव को लेकर शोक में तांडव करने लगते हैं। विरक्ति इतनी कि पार्वती से शिव के विवाह की प्रेरणा पैदा करने के लिए प्रयत्नशील कामदेव को भस्म करने के बाद वे पुनः ध्यानरत हो जाते हैं।
योगिक संस्कृति में शिव को ईश्वर नहीं, आदि योगी माना जाता है। यह शिव ही थे, जिन्होंने मानव-मन में योग का बीज बोया। योग विद्या के मुताबिक 15 हजार साल से भी पहले शिव ने योग सिद्धि प्राप्त की और हिमालय पर एक प्रचंड और भाव विभोर कर देने वाला नृत्य किया। कुछ देर वे परमानंद में पागलों की तरह नृत्य करते, फिर शांत होकर पूरी तरह से निश्चल हो जाते। इस अनोखे अनुभव के बारे में लोग अनजान थे, आखिरकार लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और वे इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे उनके पास पहुँचे। लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा, थक-हारकर वापस लौट आए। परंतु उनमें से सात लोग थोड़े हठी किस्म के थे। उन्होंने ठान लिया कि वे शिव से इस राज को जानकर ही रहेंगे।
शिव ने उन्हें डराया, कहा इस रहस्य को जानने के लिए बहुत कठिन साधना की आवश्यकता है। तुम लोग कभी इसे हासिल नहीं कर पाओगे। उन्होंने शिव की बात को चुनौती की तरह लिया, वर्षों-वर्ष साधना करते रहे, लेकिन शिव थे कि उन्हें नजरअंदाज करते जा रहे थे। उनकी 84 साल की लंबी साधना के बाद शिव ने इन तपस्वियों को देखा तो पाया कि हाँ, अब ये इतने पक चुके हैं कि योग का ज्ञान हासिल कर सकते हैं। अब उन्हें और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इनका गुरु बनने का निर्णय लिया। इस तरह शिव स्वयं आदिगुरु बने। तभी से इस दिन को ‘गुरु पूर्णिमा’ कहा जाने लगा। केदारनाथ से थोड़ा ऊपर जाने पर एक झील है, जिसे कांति सरोवर कहते हैं। इस झील के किनारे शिव दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर बैठ गए और अपनी कृपा लोगों पर बरसाने लगे। इस तरह आम जन में योग विज्ञान का संचार हुआ।
शिव के दो रूप हैं, सौम्य और रौद्र। जब शिव अपने सौम्य रूप में होते हैं, तो प्रकृति में लय बनी रहती है। पुराणों में शिव को पुरुष और प्रकृति का पर्याय माना गया है। यानी पुरुष और प्रकृति का सम्यक संतुलन ही आकाश, पदार्थ, ब्रह्मांड और ऊर्जा को नियंत्रित रखते हुए गतिमान बनाए रखता है। प्रकृति में जो कुछ भी है, आकाश, पाताल, पृथ्वी, अग्नि, वायु, सबमें संतुलन बनाए रखने का नाम ही शिवत्व है। वेदों में शिव को रुद्र कहा गया है। काफी बाद में रचे गए पुराणों और उपनिषदों में रुद्र का ही नाम ‘शिव’ हो गया और रौद्र स्वरूप में ‘रुद्र’ को जाना गया। वस्तुतः प्रकृति और पुरुष के बीच असंतुलन होने के परिणामस्वरूप रौद्र रूप प्रकट होता है। प्रकृति में जहाँ कहीं मानव असंतुलन की ओर अग्रसर हुआ है, तब शिव ने रौद्र रूप धारण किया है। लय और प्रलय में संतुलन बनाए रखने वाले शिव की भूमि रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी तथा अन्यत्र अनेक प्राकृतिक आपदा इसके उदाहरण हैं।
हमें योगी शिव के समन्वयी स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। अपने भीतर के संतुलन के साथ-साथ प्रकृति के संतुलन को भी बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। तभी जीवन में लय को कायम रख सकेंगे। योगिक क्रियाओं के माध्यम से योग इंसान को अपने अंदर अनेक तरह के बीमारियों एवं दूषित विचारों को दूर करने का अवसर देता है। योग हर इंसान को स्वयं को नियंत्रित कर प्रकृतिस्थ यानी सरल-सहज बनाता है। यह स्वस्थ मन, स्वस्थ तन, स्वस्थ पर्यावरण एवं स्वस्थ समाज की ओर लौटने का अवसर देता है। मानव द्वारा अपने निजी स्वार्थ, लोभ और लालसा के लिए पर्यावरण का इतना विनाश करने के बावजूद, अभी भी हमारे पास रामबाण इलाज ‘योग’ है, जिसके माध्यम से हम इस ब्रह्मांड और मानव सभ्यता को बचा सकते हैं। यदि हम अभी भी नहीं चेते और अनियंत्रित अप्राकृतिक उपभोगवाद की ओर भागते रहे तो सर्वस्व विनाश से कोई नहीं बचा सकता। शिव जब शक्ति यानी प्रकृति युक्त होता है, तभी समर्थ और रचनात्मक होता है। शक्ति के वियोग में शिव भयंकर विनाशकारी नृत्य करते हैं! अतः योग की शरण में जाना ही सहज उपाय है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक हैं.
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