– डॉ0 घनश्याम बादल
कहने को तो बेटा-बेटी बराबर हैं । दोनों को बराबर हक है। भेदभाव पर कानूनन दंड का भी प्रावधान है पर हकीकत में समाज में ऐसा दिखाई नहीं देता है । शहरों , महानगरों या राजधानी क्षेत्रों को छोड़ दें तो गांवों , कस्बों व अर्द्धमहानगरीय इलाकों की डरी-सहमी लड़की आज भी बाहर निकलने से पहले दस बार सोचती है । अखबारों के लेखों में, मीड़िया व चैनलों पर एंकर , समाज सुधारक, नेता, एन जी ओ चलाने वाले , तेज तर्रार औरतें या मर्द जो दावे करते हैं हकीकत में खोखले हैं ।
लड़की के संकट
कामकाजी , पढ़ने जाती या घूमने – फिरने मौज मस्ती करने जाने वाली लड़कियों के चेहरे या शरीर कब तेज़ाब से नहा जाएं, कब उनके साथ अश्लील हरकत हो जाए, कोई बलात्कारी उन पर टूट पड़े या कब लव जेहादी बहका कर उसे बर्बाद कर दे अथवा कब किसी डेरे का बाबा उसे मां बाप की आंखों मे धूल झोंककर या गुमराह करके किसी बच्ची को तबाह कर दे कहना मुश्किल है ।
एक्सरे करती दूषित निगाहें
वैसे तो निचली अदालतों से न्याय पाना ही बहुत टेढ़ा है वहां के काले कोट क्या क्या न पूछें अंदाज़ा लगाना भी रुह कंपा देने को काफी है। दलालों , बिचौलियों छुटभैए नेताओं की अंदर तक एक्सरे करती निगाहें , समाज की अवहेलना व बदनामी का सारा टोकरा लड़की पर फोड़ना बहुत ही आम बात है। यदि लड़की के साथ कुछ हो जाए तो फिर हर बात उस पर ही शक या आरोप के साथ शुरु व खत्म होती है ।
दुर्भाग्य की तहरीर
दुर्भाग्य यह भी कि तथाकथित नारी विमर्शकार व उसके हित- चिंतक ही समाज में उसके दोहन के औजारों को बल देते दिखते हैं , उसके चरित्र पर उंगलियां उठाते पाए जाते हैं । मुश्किल से 30 प्रतिशत पीड़िताएं अदालत का दरवाजा खटखटाती हैं, उनमें से भी एक तिहाई ही केस को लड़ने व किसी मुकाम तक पंहुचाने की हिम्मत दिखाती हैं और करीब साठ फीसदी बीच में ही मुकदमे की जिल्लत व सामाजिक प्रताड़ना और अपमान से त्रस्त हो हथियार डाल देती हैं । आधे से ज्यादा को वकील ज़लील कर देता है और जिन्हे न्याय मिला भी वें परिवार व समाज के लिए हेय व बोझ बनकर ही जीने को मज़बूर हो जाती हैं ।
दिखावे के ‘नारीवादी‘
लड़की के साथ अगर गलत हुआ तो हर हाल में उसके हंसने , बोलने , उठनें – बैठने , ज़रुरत से ज्यादा ही बिंदास होने चरित्र होने और कुछ नहीं तो भड़काऊ कपड़े पहनने का ही आरोप तो लगेगा ही । क्या आप यही बात उसे बर्बाद करने वाले शोहदों पर भी लागू करते हैं ? शायद नहीं । क्योंकि दिखावे के लिए नारीवादी होने में और असलियत में उसे आगे बढ़ने में हाथ बढ़ाने में उसके हक में खड़े होने में तो बड़ा फर्क है और इसी दंश झेल रही है आज भी तथाकथित प्रगतिवादी समाज की लड़की ।
नहीं बदली पुरुषवादी सोच
पुरुष अभी भी खुद को कितना ही प्रगतिवादी, उदार, नई सोच का सिद्ध करते हों पर, यथार्थ के धरातल पर सब न सही पर अधिकांश को हम संकुचित सेाच के गहरे गर्त में पाते हैं जो अपनी पुरुषवादी सोच में बुरी तरह उलझे हैं । हां, दिखावे में वें आधुनिकता का मास्क लगाए, समाज को उपदेश देते मिलेंगें पर जब बात अपने पर आती है तो बेटे को बेटी पर तरजीह देने में शर्माते नहीं है वें ।
यथार्थ का धरातल
ऐसे में हर 23 सितम्बर को बालिका दिवस मनाने वाले इस देश को बालिका कल्याण के लिए यथार्थ के धरातल पर अभी भी बहुत कुछ करने की जरुरत है । सबसे चिंतनीय बात तो यह है कि बलिका व बालक के भेद-भाव पर समाज कुछ सीखने को तैयार ही नहीं है । उसे अपनी बेटी का ऑनर किलिंग करने , गर्भ में उसे मार देने, उसके साथ हर कदम पर छल या बल का प्रयोग करने में शर्म का अहसास जब तक नहीं होता तब तक लड़की संकट में ही रहेगी ।
मौकापरस्त मर्द
और हां ऐसा किसी एक धर्म या जाति विशेष में ही हो रहा हो ऐसा भी नहीं है हर वर्ग व जाति तथा धर्म में बेटियों को अपनी मर्जी का जीवनसाथी तक चुनने का अधिकार हम देने को तैयार नहीं हैं और यदि वह अपना यह अधिकार लेने की हिम्मत करती है तो ऑनर किलिंग तक का शिकार बनती है । कभी जाति ,कभी गौत्र कभी वर्ग तो कभी सम्प्रदाय के बहाने से लड़की को काबू में रखने का कोई भी मौका पुरुष हाथ से नहीं जाने देता ।
हर कीमत चुकाई
लगातार बढ़ते अनाचार की सबसे ज्यादा मार लड़की पर ही पड़ी है । हां, उसके उत्थान व प्रगति का श्रेय सरकार और समाज लेने में पीछे नहीं है । उसकी उन्नति का श्रेय लेने के लिये सक्रिय संस्थाएं जमीन – आसमान करन देते हैं । मगर, इतना सब होने के बाद भी लड़की न हारती दिख रही है और न ही उसने सपने देखने छोड़े हैं अपने ही दमख़म पर उसने कई नए क्षितिज छुए हैं, पर, अपने अधिकारों को पाने के लिए उसने हर कीमत चुकाई है ।
रिश्तों की डोर तार – तार
कई बार तो सहज विश्वास नहीं होता कि हम ऐसे समाज में रह रहे हैं जिसमें लड़कियों की इज्जत करने की समृद्ध परंपरा रही है व जहां पर रिश्तो की एक ऐसी संस्कृति रही है जिसमें लड़कियों को देवी माना जाता रहा है । पर, आज लड़कियां अपने घर में भी सुरक्षित नहीं रह गई हैं रिश्तों की डोर तार – तार हो रही है।
काश , हम सोच पाएं
आज भी बालिकाओं के अस्तित्व पर कई संकट हैं जिनमें दहेज , असुरक्षा , बदनामी का डर , मान सम्मान जाने का भय,गर्भ में ही भ्रूण हत्या ऐसे हैं जिन्होने बालक – बालिका अनुपात गड़बड़ा दिया है । काश , हम सोच पाएं कि यदि यह चलता रहा तो कहां जाएंगें वें लड़के जिन्हे आने वाले समय में जीवन साथी ही नहीं मिलेगा । हमें हर हाल में पुरानी दकियानुशी सोच से निकलना होगा । निकले तो ही हम देख पाएंगें कि लड़की – लड़कों से कम नहीं वरन् बेहतर है ।
फिर भी बेमिसाल ल़डकी
शिक्षा में मीलों आगे , गुणवत्ता में भारी , आज्ञाकारिता में सोने पर सुहागा, मां बाप के प्रति समर्पण में अतुलनीय,कर्त्तव्य पालन को सदा तैयार , परम्परा व संस्कारों में जवाब नहीं , कमाए तो अकेली परिवार चला दे , बच्चें के पालन पोषण में महारथी, भाई को पढ़ा दे , बहन को बचाकर रखे यानि जितना कहें कम हैं ।
बेशक, बेमिसाल है ल़डकी । हमें भेदभाव की मानसिकता छोड लड़की को आसमान छूने का न केवल हक देना होगा वरन् उसके पंखों व सपनों में जान फूंकनी होगी ताकि देश, समाज व माहौल बदल सके । और अगर उसे यह हक सच में मिला तो वह जहान दुनिया बदल कर दिखा देगी ।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं.
नोट – लेखक द्वारा व्यक्त विचारों से मातृभूमि समाचार का सहमत होना आवश्यक नहीं है
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