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आधुनिक भारत के शिल्पी सरदार वल्लभ भाई पटेल

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– डॉ घनश्याम बादल

हर एक को उसका जायज हक मिले राजनीति में इतनी नौतिकता होनी चाहिए लेकिन सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ ऐसा नहीं हुआ । ऐसा क्यों नहीं हुआ ? के उत्तर में राजनैतिक दुराग्रह व पूर्वाग्रहों की कब्र खोदनी पड़ेगी जो आज उनकी जयंती पर अच्छा नहीं लगेगा । हालांकि राजनीति में जायज,नाजायज तय कर पाना एक टेढ़ा प्रश्न है पर सरदार बहुत पहले ही भारतरत्न के पात्र थे इसमें संशय नहीं है । ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उनसे कनिष्ठ व अपेक्षाकृत कम योगदान वाले राजनेताओं को यह सम्मान दिया गया ।

भारत के विश्व बिस्मार्क

 ‘स्टेच्यु ऑफ युनिटी के रूप में भारत का यह बिस्मार्क गुजरात में अपने कद के अनुरूप खड़ा एक नया भारत बनते देख रहा है । नमो सरकार ने उनकी मूर्ति को स्टेच्यु ऑफ युनिटी बहुत सही नाम दिया है क्योंकि सरदार पटेल ने ही आजादी के पूर्व देशी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य शुरु किया था। पटेल और मेनन ने स्थानीय राजाओं को व्यवहारिक तरीके से समझाया कि उन्हे स्वायत्तता देना सम्भव न होगा । इसके परिणामस्वरूप तीन को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। केवल जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद के राजाओं ने पटेल का मशविरा नहीं स्वीकारा। जूनागढ के नवाब के विरुद्ध भारी जनविरोध होने पर वह पाकिस्तान चला गया और जूनागढ भारत में मिल गया। जब हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहाँ सेना भेजकर निजाम का आत्मसमर्पण करा लिया। किन्तु नेहरु ने कश्मीर का मुद्दा एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या कहकर अपने पास रख लिया और जिस तरह से उन्होने उसे हल करने की कोशिश की उससे यह समस्या आजादी के बाद भी देश के लिए सरदर्द बनी नेहरु की दूरदर्शिता पर प्रश्न खड़े करती रही है ।

खत्म की रियासतों की सियासत

देश की स्वतंत्रता के पश्चात सरदार पटेल की महानतम देन थी 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में विलीनीकरण । विश्व के इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण किया हो। इसीलिए उन्हे भारत के बिस्मार्क की संज्ञा दी जाती है क्योंकि ऐसा ही काम बिस्मार्क ने जर्मनी के एकीकरण में किया था । पर , वहां की समस्या भारत की समस्या की तुलना में आधी भी विकट नहीं थी तो इस पैमाने पर उन्हे आधुनिक चाणक्य या कौटिल्य भी कहा जा सकता है जो राजनीति के हर दांव पेंच से वाकिफ थे और राष्ट्रीय व नैतिक मूल्यों की रक्षा भी करते थे।

व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से ऊपर

सरदार पटेल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से ऊपर रहे जबकि नेहरु पर एक से अधिक बार अपनी महत्वाकांक्षा को सर्वोच्च स्थान देने के आरोप लगे । पटेल देश के बारे में कैसे सोचते थे इस बात से पता चलता है कि एक बार उन्होंने सुना कि बस्तर की रियासत में कच्चे सोने के भंडार का बड़ा भारी क्षेत्र है और इस भूमि को दीर्घकालिक पट्टे पर हैदराबाद की निजाम सरकार खरीदना चाहती है। उसी दिन वे उड़ीसा पहुंचे और वहां के 23 राजाओं को भारत में अपने राज्य विलीन करने को राजी कर लिया फिर नागपुर के 38 राजाओं से मिले। इन्हें ‘सैल्यूट स्टेट कहा जाता था, यानी जब कोई इनसे मिलने जाता तो तोप छोड़कर सलामी दी जाती थी। पटेल ने इन राज्यों की बादशाहत को आखिरी सलामी दी। इसी तरह से उन्होने काठियावाड़ की 250 रियासतें चतुराई से बिना किसी रक्तपात के भारत में मिलाई कश्मीर रियासत के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने पर वें बेहद क्षुब्ध थे।

काश पटेल की सुनी जाती !

सरदार पटेल द्वारा रियासतों का एकीकरण विश्व इतिहास का एक आश्चर्य है। यह स्वतंत्र भारत की रक्तहीन क्रांति थी। महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को इन रियासतों के बारे में लिखा था, ‘रियासतों की समस्या इतनी जटिल थी जिसे केवल तुम ही हल कर सकते थे। पहली सरकार बनने पर विदेश विभाग नेहरू ने अपने पास ही रखा, परंतु उप प्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश विभाग समिति में उनका जाना होता था। उनकी दूरदर्शिता का लाभ यदि उस समय लिया जाता तो अनेक वर्तमान समस्याओं का जन्म न होता।

ख़ामियाजा देश ने भुगता

1950 में पंडित नेहरु को लिखे एक पत्र में पटेल ने चीन तथा उसकी तिब्बत नीति से सावधान किया था और चीन का रवैया कपटपूर्ण तथा विश्वासघाती बतलाया था। चीन को अपना दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा कहा था। जो बाद में सही भी साबित हुई पर तब शांति दूत बने नेहरु ने इस पर गौर ही नहीं किया जिसका खामियाजा देश को 1962 के युद्ध व बाद के बरसों में भी भुगतना पड़ा । 1950 में गोवा की स्वतंत्रता के संबंध में चली दो घंटे की कैबिनेट बैठक में लम्बी वार्ता सुनने के पश्चात सरदार पटेल ने केवल इतना कहा ‘क्या हम गोवा जाएंगे, केवल दो घंटे की बात है। नेहरू इससे बड़े नाराज हुए थे। यदि तब पटेल की बात मानी गई होती तो 1961 तक गोवा की स्वतंत्रता की प्रतीक्षा न करनी पड़ती और न ही पुर्तगाल से हमारा व्यापार बाधित होता ।

आधुनिक भारत के शिल्पी

महात्मा गाँधी की भाँति पटेल भी भविष्य में ब्रिटिश राष्ट्रकुल में स्वतंत्र भारत की भागीदारी में लाभ देखते थे। बशर्ते भारत को एक बराबरी के सदस्य के रूप में शामिल किया जाए। वह भारत में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास कायम करने पर जोर देते थे, लेकिन गाँधीजी के विपरीत, वह हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्वतंत्रता की पूर्व शर्त नहीं मानते थे। बलपूर्वक आर्थिक और सामाजिक बदलाव लाने की आवश्यकता के बारे में सरदार पटेल जवाहरलाल नेहरू से असहमत थे । पटेल वास्तव में आधुनिक भारत के शिल्पी थे। जिस अदम्य उत्साह असीम शक्ति से उन्होंने नवजात गणराज्य की प्रारम्भिक कठिनाइयों का समाधान किया, उससे विश्व राजनीति में उनका बहुत ऊंचा स्थान है । कई इतिहासकार मानते हैं कि यदि सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनते तो हम एक कहीं अधिक मज़बूत देश के रूप में सामने आते ।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.

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