अंग्रेजों ने पहले कोलकाता को अपनी राजधानी बना रखा था। इस कारण बंगाल कई क्रांतिकारी घटनाओं का गवाह बना। इनमें से एक था नील विद्रोह। इसे मैं क्रांतिकारी घटना इस लिए कह रहा हूं क्योंकि गांधी जी के इस आंदोलन में शामिल होने से पहले तक किसानों और उनके समर्थकों ने अंग्रेजों का हर उपलब्ध माध्यम से विरोध किया। इसमें सशस्त्र विरोध भी शामिल था। अंग्रेज भारत से नील ब्रिटेन ले जाकर वहां इसका प्रयोग छपाई में करते थे और उसके बाद हमारे ही कच्चे माल से तैयार कपड़े हमें ही बेचते थे, इसलिए उन्हें भारतीय नील की बहुत आवश्यकता थी। इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि 1810 ईस्वी तक अंग्रेज अपनी आवश्यकता का 95 प्रतिशत तक नील भारत से ले जाने लगे थे।
ब्रिटेन में भारतीय नील की मांग को देखते हुए कई अंग्रेज स्वयं अपने शासन का सहयोग लेकर जमींदारों और किसानों से जबरन नील की खेती करवाते थे। इस कारण जमींदारों के आधीन मजदूरों और किसानों को बहुत परेशान किया जाता था। अंग्रेजों के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जबरन भारतीय किसानों व मजदूरों को नील की खेती करने के लिए विवश किया जाता था। ऐसा न करने पर उन्हें यातनायें दी जाती। उनके साथ मारपीट की जाती। किसानों की जमीन छीन कर उन्हें अपनी ही जमीन पर मजदूर बना दिया जाता था। यह क्रम कई दशकों तक चलता रहा। इसके बाद किसानों और मजदूरों ने भी विद्रोह के लिए कमर कस ली।
1858 का नील विद्रोह
1855 आते-आते नील की खेती से जुड़े किसान और मजदूर इन अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष का मन बना चुके थे। पश्चिम बंगाल और बिहार में पहले 1855 का संथाल विद्रोह और बाद में 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज डरे-सहमे थे। वो और कोई बड़ा विद्रोह नहीं चाहते थे, जो उनके लिए नई परेशानी का कारण बने। किन्तु धन की उनकी भूख भी शांत नहीं हुई थी। इस कारण नील की खेती से अधिक लाभ कमाने की उनकी मंशा अभी भी उनसे अत्याचार करवा रही थी। बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गांव में सितंबर 1858 में दिगंबर विश्वास और विष्णु विश्वास के नेतृत्व में नील की खेती बंद कर दी गयी। एक वर्ष के अंदर पूरे बंगाल और फिर बिहार से भी ऐसी ही विभिन्न घटनाओं के समाचार मिलने लगे। 1859 में जब यह आंदोलन व्यापक हुआ, तो इसमें कई पत्रकार और बुद्धीजीवी भी शामिल हो गए। इस कारण अब यह विद्रोह सिर्फ किसानों या मजदूरों का नहीं रहा, यह तो जनआंदोलन बन चुका था।
उस समय तक अंग्रेजों के पास ऐसा कोई साधन या व्यक्ति नहीं था, जिससे वो इन उग्र आंदोलनकारियों को अहिंसा के रास्ते पर ला सकें। अतः उन्होंने एक आयोग गठित कर इन अत्याचारों के लिए तत्कालीन जमींदारों को दोषी सिद्ध करते हुए अपना बचाव किया। साथ ही एक आदेश पारित कर दिया कि कोई भी किसी को नील की खेती के लिए बाध्य नहीं कर सकता है। वास्तविकता इसके बिल्कुल उलट थी। अंग्रेज स्वयं जमींदारों को इन किसानों और मजदूरों से नील की खेती करने के लिए विवश करते थे। उधर अंग्रेजों ने 1860 तक 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को पूरी तरह से कुचल दिया था, लेकिन वो फिर से इन सबके लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार नहीं थे। इसलिए कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि अंग्रेजों के अत्याचार किसानों और मजदूरों पर बंद हो गए हैं। लेकिन धीरे-धीरे ये फिर बढ़ने लगे।
इसी का परिणाम था कि 1905-08 तक संथाल जैसा ही एक और सशस्त्र विद्रोह मोतिहारी और बेतिया में हुआ। पहले 1855 और फिर 1905 अंग्रेज समझ गए थे कि यदि नील की खेती से लाभ लेते रहना है, तो इन किसानों और मजदूरों के द्वारा किये जाने वाले सशस्त्र विरोध से स्वयं को सुरक्षित रखना होगा। लगभग 8 वर्षों बाद ही अंग्रेजों को यह सुख भी मिला। 1916 में बिहार के नील आंदोलन में किसानों और मजदूरों का नेतृत्व करने के लिए गांधी जी को आमंत्रित किया गया। गांधी जी 1917 में बिहार के चंपारण पहुंचे और उन्होंने आंदोलनकारी किसानों में जोश भरने की जगह उन्हें अहिंसा का पाठ पढ़ाया और शांति से काम लेने की सीख दी। गांधी जी कांग्रेस के बड़े नेता थे। उनके पीछे कांग्रेस के साथ-साथ कई बड़े किसान (एक प्रकार से जमींदार) थे।
एक पूरा अभियान चलाया गया और किसानों व मजदूरों का यह आंदोलन अब राजनीति का विषय बन गया। इसके बाद चर्चा किसानों-मजदूरों और अंग्रेजों की जगह मध्यस्थ कांग्रेस के साथ होने लगी। इसके बाद अपने अधिकारों के लिए नील की खेती करने वाले किसानों ने कभी कोई सशस्त्र आंदोलन नहीं किया। इसकी परिणिति यह हुई कि जहां 1857 के बाद अंग्रेज कई बार झुकते हुए नजर आये थे, वहीं अब वो निश्चिन्त हो गए कि नील विद्रोह के कारण उनकी जान को किसी भी प्रकार का खतरा नहीं है। कुछ इतिहासकार नील आंदोलन को 1860 में ही सफल घोषित कर देते हैं। यदि ऐसा है तो फिर 1917 में गांधी जी को चंपारण जा कर वहां किसानों को अंग्रेजों के विरुद्ध हिंसा न करने के लिए मनाने की क्या जरुरत थी? वास्तव में 1917 में नील आन्दोलन बिना खड्ग, बिना ढाल के सिर्फ शब्दों के चक्रव्यूह में उलझाकर कुचल दिया गया। भोले-भाले किसान राजनीति नहीं जानते थे, उन्हें तो सिर्फ खेती आती थी। अंग्रेजों ने इसी का लाभ उठाया।
फोटो साभार : विकीपीडिया
उपरोक्त लेख पुस्तक ‘भारत : 1857 से 1957 (इतिहास पर एक दृष्टि)’ से लिया गया है. पूरी पुस्तक अपने घर/कार्यालय पर खरीदकर मंगाने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें.