नई दिल्ली. देश में 85 प्रतिशत किसान ऐसे हैं, जिन्हें असल में आंदोलन से कोई मतलब नहीं. इनमें दो हेक्टेयर या उससे कम जमीन पर खेती करने वाले वे अन्नदाता हैं, जिन्हें छोटी जोत या सीमांत किसान कहा जाता है. जो खेती सिर्फ इसलिए करते हैं ताकि उनके परिवार को खाने भर का अनाज मिल जाए. दिल्ली आने पर अड़े किसान यहां डेरा डालकर सरकार पर दबाव बनाना चाहते हैं. ये जानते हुए भी कि उनके इस प्रदर्शन से मुसीबत सिर्फ दिल्ली वालों की बढ़ती है.
किसान और सरकार फिर आमने-सामने है, दिल्ली कूच का ऐलान एक आंदोलन बन चुका है. हरियाणा से लेकर दिल्ली तक के बॉर्डर सील हैं, लेकिन किसान पीछे हटने को तैयार है. खास तौर से पंजाब हरियाणा बॉर्डर पर किसान और सुरक्षाबलों के बीच झड़प हो रही है. कभी किसान पथराव करते हैं, तो कभी जोर जबरदस्ती बैरीकेडिंग हटाते हैं. जब किसान हटते नहीं तो पुलिस को भी आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़ते हैं, ताकि किसी तरह किसान थम जाएं.
यह सारी कवायद की जा रही है, देश की राजधानी दिल्ली और दिल्ली वालों को सुरक्षित रखने के लिए. वही दिल्ली जो तीन करोड़ लोगों का घर है. किसान अगर दिल्ली तक पहुंचे तो हालात क्या होंगे ये पूरा देश देख चुका है. दो साल पहले जब कृषि कानूनों की वापसी के लिए किसानों में दिल्ली में डेरा जमाया था तो देश की राजधानी के हर व्यक्ति ने परेशानी उठाई थी. खासतौर से दिल्ली की सीमाओं या आसपास रहने वाले लोग हर दिन मुसीबत झेलते थे. अब फिर वही हालात बन रहे हैं. इसी से बचने के लिए किसानों को रोका जा रहा है, उनसे बातचीत की जा रही है. केंद्रीय मंत्री बैठकें कर चुके हैं. समझाने की कोशिश की जा रही है, मगर किसान अड़े हैं. ताकि दिल्ली में डेरा जमाकर जबरदस्ती अपनी मांगे मनवा सकें.
आंदोलन के अगुवा हैं पंजाब-हरियाणा के मुट्ठी भर किसान?
किसानों का ये आंदोलन पिछले आंदोलन से अलग है. पिछली बार जब किसान दिल्ली में जमा हुए थे तो उनका विरोध कृषि क़ानूनों को लेकर था. प्रदर्शन में 32 संगठनों के सैकड़ों किसान थे, लेकिन इस बार मसला अलग है. इस बार दिल्ली कूच का नारा देने वालों में तकरीबन 170 से ज्यादा छोटे-बड़े किसान संगठन हैं. लेकिन किसानों की संख्या पिछले बार के मुकाबले बेहद कम है. सबसे खास बात ये है कि इस बार आंदोलन में पिछली बार अगुवा रहे गुरनाम सिंह चढूनी ही नहीं है.
किसानों की ओर से दावा किया जा रहा है कि पंजाब के साथ-साथ हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के किसान भी उनके साथ शामिल हैं. हालांकि असल में ऐसा है नहीं. आंदोलन पूरी तरह पंजाब और हरियाणा के किसानों पर केंद्रित है. ये वे किसान हैं जो सही मायनों में संपन्न हैं. छोटी जोत वाले किसान न पिछली बार ही आंदोलन का हिस्सा बने और न ही इस बार उन्हें आंदोलन में कोई दिलचस्पी है.
छोटी जोत के किसान क्यों नहीं बनते आंदोलन का हिस्सा?
देश में यदि कृषि पर निर्भर राज्यों की बात की जाए तो इनमें सबसे आगे बिहार हैं, जो 77 फीसदी कृषि पर आश्रित है, इसके बाद 75 प्रतिशत के साथ पंजाब का नंबर है और तीसरा नंबर उत्तर प्रदेश का है, जो 65% कृषि पर निर्भर है. इसके बावजूद आंदोलन में बिहार और यूपी नहीं बल्कि पंजाब के किसानों की सक्रियता इसलिए है, क्योंकि वहां के किसान संपन्न हैं. देश के अन्य हिस्सों में सबसे ज्यादा आबादी छोटे, मंझले और सीमांत किसानों की है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ऐसे किसान तकरीबन 85 प्रतिशत हैं, जिन्हें असल में आंदोलन से कोई मतलब नहीं. इनमें दो हेक्टेयर या उससे कम जमीन पर खेती करने वाले छोटी जोत के किसान कहे जाते हैं, एक हेक्टेयर से कम पर खेती करने वाले सीमांत किसान कहे जाते हैं जो खेती सिर्फ इसलिए करते हैं ताकि उनके परिवार को खाने भर का अनाज मिल जाए. ऐसे में न तो उन्हें कृषि कानूनों से कोई मतलब था और न ही उन्हें एमएसपी से कोई दिक्कत है.
किसानों के लिए सरकार ने क्या किया?
सरकार के खिलाफ हर बार आक्रोशित होने वाले किसान इस बात से परिचित हैं कि असल में सरकार उनके लिए क्या कर रही है, फिर भी एमएसपी समेत अन्य मांगों का झंडा बुलंद कर हमेशा दिल्ली कूच को निकल पड़ते हैं. सबसे खास बात ये है कि सरकार लगातार किसानों की नई मांगें मानने के लिए भी तैयार थी, बिजली अधिनियम, लखीमपुर खीरी में मारे गए किसानों को मुआवजा समेत कई मुद्दों पर सहमति भी बन गई थी, लेकिन एमएसपी पर सरकार ने समय मांगा और किसान अड़ गए कि आंदोलन करेंगे ही.
अगर सरकार की ओर से किसानों को मिलने वाली सुविधाओं की ही बात करें तो हर सीजन में सरकार किसानों को खूब फायदा देती है. सरकार के बजट का एक मुख्य हिस्सा ही कृषि के लिए होता है, इस हिस्से ही प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, फसल बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, कुसुम योजना, क्रेडिट कार्ड योजपना, किसान सम्मान निधि, मानधन योजना समेत अन्य शामिल हैं. इसके अलावा भी खाद, बीज और कृषि उपकरणों में भी सरकार लगातार सब्सिडी देती है.
किसानों को क्यों दी जाती है सम्मान निधि?
देश में छोटे और सीमांत किसानों की संख्या तकरीबन 85 प्रतिशत है, इन सभी किसानों को सरकार प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत लाभ देती है, इस स्कीम के तहत कसिानों के खाते में हर साल छह हजार रुपये तीन किस्तों में भेजे जाते हैं. यह एक तरह की आर्थिक सहायता है जो सरकार की ओर से किसानों को इसलिए दी जाती है, ताकि वह अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारकर आगे बढ़ सकें. यह राशि किसानों को सीधे उनके अकाउंट में ट्रांसफर की जाती है, ताकि उन्हें इधर-उधर भटकना न पड़े.
क्या है MSP और कितने किसानों को मिलता है लाभ?
MSP का मतलब है मिनिमम सपोर्ट प्राइस, यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य. ये वही दर होती है जिस पर किसान से सरकार फसल की खरीद करती है. यह किसानों के उत्पादन लागत से कम से कम डेढ़ गुना अधिक होती है. ये तय करने का काम सरकार करती है, इसके लिए कृषि मंत्रालय ने कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स एंड प्राइसेस संस्था बना रखी है. 2014 में बनी शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट की मानें तो अब तक देश के सिर्फ 6 फीसदी किसानों को ही इसका लाभ मिला है. कई राज्य तो ऐसे हैं जहां आज तक MSP की व्यवस्था लागू ही नहीं है. सरकार इस पर भी विचार को तैयार है, हाईपावर कमेटी बनाने की बात कही जा रही है, लेकिन किसान इसके लिए तैयार नहीं है.
दिल्ली वालों को मुसीबत देकर क्या करना चाहते हैं किसान संगठन?
संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनैतिक) के बैनर तले किसान आंदोलन पर अड़े हैं, इनकी कोशिश है कि किसी तरह दिल्ली पहुंचा जाए. 16 फरवरी को भारत बंद का भी ऐलान किया गया है. लेकिन केंद्र सरकार भी इसके लिए युद्ध स्तर पर तैनात है. शंभू बॉर्डर पर बवाल चल रहा है, इसके अलावा भी हरियाणा से लेकर दिल्ली तक सरकार ने सभी बॉर्डर सील कर दिए हैं. धारा 144 लागू है. इस सबके बीच सबसे ज्यादा डर दिल्ली की तीन करोड़ आबादी को है, जो इस बात से डरे हैं किसान यदि फिर यहां जम गए तो क्या होगा? सवाल यह भी है कि बार-बार दिल्ली आकर और यहां की जनता को मुसीबत देकर किसान संगठन आखिर क्या चाहते हैं.
साभार : टीवी9 भारतवर्ष
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