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रानी ईश्वरी कुमारी

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गोरखपुर के निकट एक बहुत ही छोटा सा साम्राज्य था तुलसीपुर। क्षेत्रफल और जनसंख्या के अनुसार भले ही इसका महत्व उतना न हो, लेकिन वीरता इतनी कि अंग्रेज भी टकराने से बचते थे। इस साम्राज्य के शासक दृगनाथ सिंह अंग्रेजों से लगातार लोहा ले रहे थे, उनका विरोध कर उनकी सत्ता के लिए चुनौती बने हुए थे। वो उन राजाओं से भी सम्बन्ध नहीं रखते थे, जिनकी मित्रता अंग्रेजों से होती थी। इस कारण कई भारतीय राजाओं को भी उनसे परेशानी थी। अंग्रेजों ने 1857 से पहले ही किसी तरह से उन्हें गिरफ्तार करने में सफलता प्राप्त कर ली। किन्तु फिर भी साम्राज्य बिना राजा के नहीं हुआ। उनकी पत्नी रानी ईश्वरी कुमारी ने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली। अंग्रेजों ने बहुत प्रयास किया कि वो रानी को किसी प्रकार मानसिक आघात पहुंचाकर, डराकर या लालच देकर झुकने के लिए मजबूर कर दें। लेकिन राजा दृगनाथ और रानी ईश्वरी कुमारी दोनों में से किसी ने हार नहीं मानी। अंग्रेजों की प्रताड़नाओं के कारण राजा का बलिदान हो गया, लेकिन रानी ईश्वरी कुमारी ने तब भी अपनी प्रजा को अंग्रेजों के हवाले नहीं किया।

छोटा सा साम्राज्य और सिमित संसाधनों के बाद भी वो अंग्रेजों से मुकाबला करती रहीं। अंग्रेजों ने कई बार उन पर आक्रमण किये लेकिन वो कभी रानी ईश्वरी कुमारी को गिरफ्तार नहीं कर पाए। अंग्रेज कमिश्नर मेजर बैरव के अनुसार छः अंग्रेजी फरमानों के बाद भी जब रानी ईश्वरी कुमारी ने अंग्रेज सत्ता स्वीकार नहीं की, तो अंग्रेजों ने उनका साम्राज्य बलरामपुर राज्य के साथ मिला दिया और उन्हें निर्वासन के लिए मजबूर कर दिया। अंग्रेजों ने एक बार फिर रानी ईश्वरी कुमारी को प्रस्ताव भेजा कि वो गुलामी स्वीकार कर लें, तो उनका साम्राज्य उन्हें वापस कर दिया जाएगा, लेकिन रानी ने इसे भी अस्वीकार कर दिया। अंग्रेज क्यों चाहते थे कि ईश्वरी कुमारी उनकी गुलामी स्वीकार कर लें, इसको समझने के लिए उनके और अंग्रेजों के बीच हुए एक संघर्ष को उदहारण के रूप में लिया जा सकता है। बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों के द्वारा उन्हें उनकी रियासत से बेदखल कर देने के बाद निर्वासन का जीवन चुना था। किन्तु अंग्रेज इससे भी संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि यदि बेगम जीवित रहीं, तो वो उनके लिए सिरदर्द बनी रहेंगी।

जब बेगम ने रानी ईश्वरी कुमारी के साम्राज्य के अचवागढ़ी नामक स्थान पर शरण ली, तो अंग्रेज उनका पीछा करते हुए वहां भी पहुंच गये। अंग्रेज अधिकारी जनरल होपग्रांट और ब्रिगेडियर रोक्राफ्ट ने रानी ईश्वरी कुमारी को प्रस्ताव दिया कि वो बेगम को उन्हें सौप दे, तो रानी को अंग्रेज कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। रानी ने खुली घोषणा कर दी, ‘जब तक बेगम हजरत महल यहां से सुरक्षित निकल नहीं जाती, अंग्रेज आगे नहीं बढ़ पायेंगे’। हुआ भी ऐसा ही, सिर्फ कुछ मुट्ठी भर सैनिकों की सहायता से रानी ईश्वरी कुमारी ने अंग्रेजों को तब तक रोके रखा, जब तक की बेगम अपने विश्वासपात्रों के साथ वहां से सुरक्षित नहीं निकल गईं। रानी को पता था कि वो अंग्रेजों को रोक सकती हैं, लेकिन हरा नहीं सकती। इसलिए जैसे ही उनको बेगम के निकलने की जानकारी मिली, उन्होंने भी वहां से निकलना ही ठीक समझा। रानी ईश्वरी कुमारी का निर्वासन के बाद अंतिम समय नेपाल में बीता। उनकी मृत्यु भले ही गुमनामी में हुई हो, लेकिन उनकी वीरता के कारण वो तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियो को भी बहुत याद आती थीं। यह बातें उस समय के अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे गए दस्तावेजों से सिद्ध होती है।

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