सिखों के 10वें गुरु गोबिंद सिंह का जन्म 22 दिसंबर 1966 को बिहार के पटना साहिब में हुआ था। उनके पिता सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर और उनकी मां का नाम गुजरी था। बचपन में उनका नाम गोबिंद राय था। इतिहास में उन्हें न केवल एक महान आध्यात्मिक नेता के रूप में, बल्कि एक निडर योद्धा, उत्कृष्ट कवि, दूरदर्शी दार्शनिक और अद्वितीय बलिदान की प्रतिमूर्ति के रूप में भी दर्ज किया गया है। उनका जीवन मुग़ल शासकों के अत्याचारों और धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध धर्म, न्याय और सत्य की रक्षा के लिए आजीवन संघर्ष और त्याग का एक सशक्त उदाहरण है।
जब गोबिंद राय मात्र नौ साल वर्ष के थे, तब उनके पिता गुरु तेग बहादुर कश्मीर के हिंदुओं की रक्षा करते हुए मुग़ल शासक औरंगज़ेब से युद्ध कर रहे थे और यहीं उनका बलिदान हो गया। गुरु तेग बहादुर के बलिदान के बाद, 1675 ई. में गोबिंद राय को छोटी सी आयु में सिख धर्म की गद्दी सौंप कर उन्हें दसवें गुरु की बड़ी जिम्मेदारी दे दी गई।
उनकी आयु भले ही छोटी थी, लेकिन उन्हें समझ और संघर्ष करने की शक्ति अपने पूर्वजों से मिली थी। इसी का उपयोग करते हुए गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की। उनका उद्देश्य एक ऐसे समुदाय का निर्माण करना था जो आध्यात्मिक रूप से दृढ़ हो और अत्याचार के सामने झुकने के स्थान पर सशस्त्र संघर्ष कर धर्म और न्याय की रक्षा कर सके।
1699 ई. में बैसाखी के दिन उन्होंने आनंदपुर साहिब में एक विशाल सभा बुलाई और पाँच व्यक्तियों को बलिदान देने के लिए आगे आने को कहा। उनके इस आह्वान पर जो पाँच सिख विभिन्न वर्गों से आगे आए, उन्हें उन्होंने ही ‘पंज प्यारे’ के नाम से जाना जाता है। इन पंच प्यारों को अमृत (पवित्र जल) चखाकर खालसा पंथ की दीक्षा दिलाई गई। स्वयं गोबिंद राय ने पंच प्यारों से यह अमृत चखा और वो गुरु गोबिंद सिंह कहलाए।
गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ के लिए ‘पंच ककार’ अर्थात पाँच अनिवार्य प्रतीक निर्धारित किए, जिन्हें धारण करना प्रत्येक खालसा के लिए अनिवार्य माना जाता है। ये पंच ककार हैं : केश (बिना कटे बाल), कंघा (लकड़ी की कंघी), कड़ा (लोहे का कंगन), कृपाण (छोटी तलवार), कच्छा (घुटने तक का अंतःवस्त्र)।
गुरु गोबिंद सिंह ने पूरे जीवन धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से कई युद्ध लड़े। ऐसे ही एक युद्ध में उनके पुत्रों का बलिदान भी हो गया। चमकाौर में मुग़लों से लड़ते हुए उनके पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह का बलिदान हुआ। इसके अतिरिक्त सरहिंद के नवाब वज़ीर खान ने उनके दो छोटे पुत्रों ज़ोरावर सिंह और फतेह सिंह को दीवार में जिंदा चुनवा दिया।
उन्होंने मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब को फ़ारसी में एक पत्र भी लिखा था। इस पत्र को ‘ज़फ़रनामा’ (विजय का पत्र) कहा जाता है। इसमें उन्होंने औरंगज़ेब को उसके अन्याय और धोखे की कड़ी आलोचना की।
गुरु गोबिंद सिंह का साहित्यिक और दार्शनिक योगदान
गुरु गोबिंद सिंह ने धर्म के साथ ही साहित्यिक और दार्शनिक क्षेत्र में भी बहुत योगदान दिया है। उनके दरबार में 52 कवियों और लेखक थे। उनके द्वारा कई ग्रंथों की रचना की गई। इनमें उनकी आत्मकथा ‘बिचित्र नाटक’ और रचनाओं का संकलन ‘दशम ग्रंथ’ प्रमुख रूस से उल्लेखित किया जा सकता है।
गुरु ग्रंथ साहिब को बनाया अंतिम गुरु
गुरु गोबिंद सिंह अपने अंतिम समय में महाराष्ट्र के नांदेड़ चले गए थे। यहाँ एक पठान ने उन पर 7 अक्टूबर 1708 को हमला कर दिया। इस हमले में वो गंभीर रूप से घायल हो गए और उनकी मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को सिखों का शाश्वत गुरु घोषित कर दिया था अर्थात गुरु ग्रंथ साहिब के बाद अब सिखों का कोई दूसरा गुरु नहीं होगा। इसी गुरु ग्रंथ साहिब की गुरु वाणी भविष्य में सिखों का मार्गदर्शन करेगी।
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