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सरकारें घुमन्तु समाज को ओबीसी का दर्जा देकर करें मुख्यधारा में जोड़ने की पहल – डॉ अतुल मलिकराम

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भारतीय संस्कृति और सभ्यता की असली ताकत इसकी विविधिता में बसती है। लेकिन यही विविधिता कई बार कुछ समुदायों को हाशिये पर धकेलने का कारक बन जाती है। देश के घुमन्तु समाज की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। यह समाज दशकों से उपेक्षा और असमानता का शिकार रहा है। जन्मजात अपराधी की दृष्टि से देखे गए या यूँ कहें देखे जा रहे इस समाज को आज आजादी के लगभग आठ दशक बाद भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। न रहने का कोई ठिकाना, न बच्चों की शिक्षा, न कोई स्वास्थ्य सुविधा। घुमन्तु समाज की वर्तमान स्थिति देखकर लगता है जैसे रूढ़िवादी सोच और प्रशासनिक उदासीनता के तहत एक समाज को लावारिस छोड़ दिया गया है। जिसके पास संवैधानिक रूप से वोट देने का अधिकार तो है लेकिन वोटर आईडी कार्ड नहीं है। वह भारतीय नागरिक तो हैं लेकिन खुद की नागरिकता साबित करने का कोई जन्म या निवास प्रमाणपत्र नहीं रखते। ये राशन लेने के कानूनी हकदार तो हैं लेकिन राशन कार्ड बनवाने के पात्र नहीं हैं। इन्हे सरकारी योजनाओं का लाभार्थी तो होना चाहिए लेकिन इसके लिए आवश्यक दस्तावेजों की पूर्ति करने वाला कोई नहीं हैं। कुल मिलाकर देखें तो घुमन्तु समाज के पास अवसर तो हैं लेकिन पहुँच बेहद सीमित से भी निम्न है। मेरी नजर में इसका एक ही उपाय है, घुमन्तु समाज को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में शामिल किया जाना। यह एक ऐसा कदम होगा जो उन्हें सम्मानजनक जीवन, शिक्षा और समान अवसरों की ओर ले जाने का रास्ता खोलेगा।

दरअसल, केंद्र और राज्य सरकारें अगर चाहें तो इस दिशा में एक छोटी-सी पहल से बड़े परिवर्तन की नींव रख सकती हैं। जिस समाज को पीढ़ियों से अपराधी ठहराया गया, उसे अगर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार से जोड़ा जाए तो यह समाज न केवल आत्मनिर्भर बनेगा, बल्कि देश के विकास में भी बराबर की भागीदारी निभाएगा। सरकारी योजनाओं और आरक्षण का लाभ इन्हें उपलब्ध कराने के लिए ओबीसी श्रेणी में सम्मिलित करना पहला और सबसे बड़ा कदम होगा।

आज घुमन्तु समाज के बच्चे शिक्षा से कोसों दूर हैं क्योंकि उनके परिवारों का कोई स्थायी निवास नहीं है। उनकी पहचान और दस्तावेज़, साल-दर-साल अधूरे ही बने रहते हैं, जिससे वह सरकारी योजनाओं का लाभ लेने से भी वंचित रहते हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर ऐसे स्कूलों और आवासीय व्यवस्थाओं की शुरुआत कर सकती हैं, जो इनके जीवन-यापन के अनुकूल हों। मोबाइल स्कूल, सामुदायिक छात्रावास और स्किल ट्रेनिंग जैसे प्रयास इनके भविष्य को नई दिशा दे सकते हैं।
सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो घुमन्तु समाज का योगदान भारतीय परंपराओं और संस्कृति में अद्वितीय रहा है। इनके पास लोककला, संगीत, हस्तशिल्प और अनेक पारंपरिक हुनर, पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित रहे हैं। लेकिन जब इन्हें पहचान और अवसर नहीं मिलेगा, तो यही कला धीरे-धीरे विलुप्त होने लगेगी। यदि सरकार इनके हुनर को बढ़ावा दे और उन्हें बाजार से जोड़े, तो यह न केवल इनकी आजीविका को मजबूत करेगा बल्कि भारतीय सांस्कृतिक विरासत को भी समृद्ध बनाएगा।

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम घुमन्तु समाज को अपराधी नहीं, बल्कि देश की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा मानें। हमें यह भी समझना होगा कि इन्हे हाशिये से उठाकर मुख्यधारा में लाने का रास्ता केवल आरक्षण या सरकारी योजनाओं से नहीं बनेगा, बल्कि समाज की सोच बदलने से भी बनेगा। जब हम उन्हें बराबरी से अपनाएँगे, तभी यह पहल सच्चे अर्थों में सफल होगी।

लेखक राजनीतिक रणनीतिकार हैं.

नोट : लेखक द्वारा व्यक्त विचारों से मातृभूमि समाचार का सहमत होना आवश्यक नहीं है.

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