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चुनावी बॉन्डों में पारदर्शिता का सवाल

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– प्रो. रसाल सिंह

लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली में वित्तीय लेन-देन की पारदर्शिता एक अपरिहार्य आवश्यकता है। सबसे अधिक आबादी वाले लोकतंत्र भारत में चुनावी बॉन्ड के माध्यम से 2017 में तथकथित साफ-सुथरे वित्तपोषण की शुरुआत की गयी। लेकिन प्रारम्भ से ही इस व्यवस्था ने एक तीखी बहस छेड़ दी है। यह बहस चुनावी बॉन्डों की गोपनीयता बनाम लोकतांत्रिक पारदर्शिता की है। चुनावी प्रक्रिया में भागीदारी करने वाले विभिन्न राजनीतिक दलों के अपारदर्शी और संदिग्ध लेन-देन को नियंत्रित करने के लिए चुनावी बॉण्ड योजना का सूत्रपात किया गया था। लेकिन अब यह व्यवस्था संदेह के घेरे में आ गयी है और भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा उसकी समीक्षा की जा रही है।

भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित संविधान पीठ के समक्ष प्रस्तुत याचिकाएं चुनावी बॉन्ड योजना (EBS) द्वारा अनुमत “चयनात्मक गोपनीयता” पर प्रश्न उठाती हैं। यह एक गंभीर मुद्दे को सामने लाती हैं कि क्या विशिष्ट व्यक्तियों या कंपनियों की गोपनीयता को अनुच्छेद 19 (1) द्वारा प्रदत्त सामान्य आबादी के सूचना के संवैधानिक अधिकार से अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए? मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में पांच जजों की संविधान पीठ ने 2 नवंबर, 2023 को चुनावी बॉण्ड की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना निर्णय सुरक्षित रखा है। इसके साथ ही, इस संविधान पीठ ने एक अंतरिम आदेश जारी करते हुए भारत के चुनाव आयोग को 30 सितंबर, 2023 तक भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त चंदे का समग्र और विस्तृत विवरण प्रकाशित करने को कहा है।

साथ ही, अदालत ने टिप्पणी की है कि प्प्रथमदृष्टया यह योजना ‘गंभीर त्रुटियों’ और ‘अपारदर्शिता’ से ग्रस्त है। इस पृष्ठभूमि में इस व्यवस्था की समीक्षा करना समीचीन है। भारत में चुनावी बॉण्ड योजना की घोषणा 2017 के बजट के  दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा की गई थी। इसका उद्देश्य राजनीतिक चंदे के लेन-देन में  पारदर्शिता लाना और देश के राजनीतिक वित्तपोषण परिदृश्य को स्वच्छ बनाना था। यह सुधार कॉर्पोरेट चंदे को व्यवस्थित करने और राजनीतिक क्षेत्र में प्रचलित अघोषित, अपारदर्शी वित्तपोषण की समाप्ति पर केंद्रित था।

चुनावी बॉन्ड व्यक्तियों और कंपनियों को यह सुविधा देते हैं कि वे गोपनीय ढंग से भारतीय राजनीतिक दलों को आर्थिक सहायता प्रदान कर सकते हैं। नियंत्रण और विनियमन  सुनिश्चित करने के लिए केवल वे राजनीतिक दल, जिन्होंने हालिया संपन्न राष्ट्रीय चुनावों में कम से कम 1 प्रतिशत मत हासिल किए हैं, इसप्रकार के बॉन्ड्स की प्राप्ति और नकदीकरण के पात्र हैं। 1000 रुपये से लेकर 100 करोड़ रुपये तक के इन बॉन्डों को केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की निर्धारित शाखाओं से ही खरीदा जा सकता है। इन्हें खरीदने के लिए बैंक हस्तांतरण या इलेक्ट्रॉनिक भुगतान जैसी पहचान योग्य लेन-देन पद्धतियों का इस्तेमाल करना अनिवार्य है। इसमें दानकर्ताओं की पहचान गुप्त रखी जाती है। राजनीतिक दल 15 दिनों की निश्चित अवधि में बॉन्ड को गोपनीय ढंग से भुना सकते हैं और इस राशि का उपयोग चुनावी प्रचार अभियान आदि में कर सकते हैं। इन चुनावी बॉन्डों की खरीद पर कोई संख्यात्मक सीमा निर्धारित नहीं है तथा इनका व्यक्ति अथवा कम्पनी की आय और अर्जित लाभ से भी कोई समानुपातिक संबंध नहीं है।

पहले ₹20,000 से अधिक के राजनीतिक चंदे के लिए चुनाव आयोग को सूचित करना अनिवार्य था, जो दानदाताओं के लिए आयकर कटौती प्राप्त करने का भी आधार था। हालाँकि, चुनावी बांड की शुरुआत के बाद दानकर्ता अब पिछली प्रकटीकरण आवश्यकताओं से बचते हुए गुमनाम और गोपनीय ढंग से ₹20 करोड़ से लेकर ₹200 करोड़ तक की बड़ी राशि का योगदान कर सकते हैं। इस विधायी संशोधन ने राजनीतिक दलों को तीन महत्वपूर्ण स्वतंत्रताएँ प्रदान की हैं। पहली, आयकर अधिनियम- 1961 और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम- 1951 के तहत चुनावी बॉन्ड से प्राप्त योगदान की सूचना देने या प्रकाशित करने की अनिवार्यता से मुक्ति। इससे पारदर्शिता न्यूनतम हो गयी है। दूसरी, कंपनी अधिनियम- 2013 के तहत कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले दान की ऊपरी सीमा की समाप्ति। इससे अनियंत्रित और असीमित वित्तीय सहयोग का मार्ग प्रशस्त हो गया है। तीसरी, विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम- 2010 के तहत विदेश से धन प्राप्ति के मामले में राजनीतिक दलों के लिए विशेष छूट का प्रावधान।  इससे राजनीतिक दलों के नीति-निर्माण और निर्णय-प्रक्रिया में बाहरी प्रभाव और अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की आशंका बढ़ गई है।

चुनावी बॉन्ड का इरादा राजनीतिक वित्त पोषण को स्वच्छ बनाने का था, लेकिन इसने अनेक आशंकाओं को जन्म दिया है। इस व्यवस्था के आलोचकों के अनुसार गोपनीयता का प्रावधान मुख्यरूप से सत्तारूढ़ दल का हितसाधन करता  है। चुनावी बॉण्ड का जारीकर्ता भारतीय स्टेट बैंक है, जोकि एक सरकारी बैंक है। इससे सरकार द्वारा विपक्षी दलों को चंदा देने वाले दानकर्ता की पहचान की ट्रैकिंग की आशंका बनी रहती है और उसके संभावित उत्पीड़न या बदले की कार्रवाई की चिंताएं करती है। इससे सत्तारूढ़ दल को चुनावी बॉन्डों की प्राप्ति में अवांछित वरीयता, बढ़त और लाभ मिलती है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (एडीआर) नामक याचिकाकर्ता ने तीन बुनियादी आधारों पर चुनावी बॉन्ड योजना की संवैधानिकता को चुनौती दी है:

पहला, जानकारी का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भाषण के अधिकार के अंतर्गत आता है, जोकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) (a) में वर्णित है। हालांकि, यह योजना चयनात्मक गोपनीयता को प्रश्रय देती है, जिसमें दान प्राप्तकर्ताओं को तो दानकर्ता की जानकारी होती है, लेकिन उसकी पहचान जनता से अप्रकट रहती है।

दूसरा, यह भेदभावपूर्ण है क्योंकि इससे राजनीतिक दल आसानी से विदेशी अनुदान प्राप्त कर सकते  हैं, जबकि मीडिया और गैर-सरकारी संगठनों आदि के लिए सख्त नियमावली और पाबंदियां हैं।

तीसरा, यह व्यवस्था अनुचित प्रभाव, पक्षपात और प्रताड़ना की संभावना को बल देती है, क्योंकि कॉर्पोरेट संगठन बड़े चंदे के जरिए सत्तारूढ़ दलों के साथ अनुकूलता बनाते हुए अपने पक्ष में नीति-निर्माण करा सकते हैं। यह चुनावी बॉन्ड व्यवस्था में अंतर्निहित गोपनीयता की आड़ में सहज संभव है।

भारत के महाधिवक्ता तुषार मेहता द्वारा अदालत में यह कहना कि राजनीतिक वित्तपोषण में दानदाताओं और प्राप्तकर्ताओं के खुलासे को जनता या मतदाता के जानने के अधिकार के रूप में नहीं देखा जा सकता, चिंताजनक और गैर-जिम्मेदाराना है। इसके अलावा, उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि राजनीतिक दानों की गोपनीयता बनाए रखने के प्रावधान को अनुच्छेद 19(2) में निर्दिष्ट उचित प्रतिबंधों के तहत मूल्यांकित किया जाना चाहिए। उनका यह दृष्टिकोण उन पारदर्शिता मानकों के सर्वथा प्रतिकूल है जो कि एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति समर्पित राष्ट्र से अपेक्षित हैं। विडंबनापूर्ण है कि इन्हीं मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए चुनावी बॉन्ड व्यवस्था का सूत्रपात किया गया।

इस व्यवस्था में धनी-मानी लोग निगरानी व्यवस्था से बचते हुए बिचौलियों के माध्यम से अनेक चुनावी बॉन्ड खरीद सकते हैं, और कंपनियाँ इसी उद्देश्य के लिए अपने सहायक उपक्रमों की स्थापना कर सकती हैं। अनियंत्रित, असीमित और अपारदर्शी दान की अनुमति देने वाली यह व्यवस्था प्रत्यक्षतः ताकतवर लोगों को राजनीतिक दलों को प्रभावित करने की सहूलियत देती है। निश्चय ही, यह प्रभाव जनहित की कीमत पर व्यक्तिगत हितसाधन के लिए होगा। लोकतंत्र के रंगमंच पर, चुनावी बॉन्ड (अज्ञात) दानदाताओं और प्राप्तकर्ताओं के लिए एक मुखौटा बन गए हैं, जिससे मुख्य पात्र – जनता पर्दे के पीछे की हकीकत से वंचित रह जाती है।

इस बहस के पटाक्षेप और राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए चुनावी बॉन्डों के माध्यम से प्राप्त समस्त दान राशि की सूचना चुनाव आयोग और जनता को अनिवार्यतः देने का प्रावधान किया जाना चाहिए। इसके अलावा, व्यक्तियों या कंपनियों द्वारा चुनावी बॉन्डों की खरीद की एक सीमा तय की जानी चाहिए ताकि किसी भी एक दानदाता के अत्यधिक प्रभाव को नियंत्रित किया जा सके। बॉन्डों की राशि को व्यक्ति अथवा कंपनी द्वारा अर्जित लाभ के 5 % से अधिक नहीं होना चाहिए। पारदर्शिता को और बढ़ावा देने के लिए, बॉन्ड की खरीद और नकदीकरण की निगरानी और तत्काल घोषणा हेतु एक स्वतंत्र नियामक संस्था का गठन भी किया जा सकता है।

दानराशि के उचित उपयोग की जांच के लिए नियंत्रक और महालेखा परीक्षक जैसी संस्था द्वारा राजनीतिक दलों की नियमित लेखा-परीक्षा की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। चुनावी चक्रों के अनुसार चुनावी बांडों की प्रतिपूर्ति अवधि को सीमित करना भी अबाध और अपारदर्शी धन प्रवाह को रोक सकता है। चुनावी बांडों के माध्यम से विदेशी फंडिंग को पूर्णतः प्रतिबंधित किया जाना चाहिए ताकि आंतरिक नीति-निर्माण को बाह्य/विदेशी प्रभाव/दबाव से मुक्त रखा जा सके। निश्चित रूप से चुनावी प्रक्रिया की स्वच्छता और राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता का आपस में गहरा संबंध है। चुनाव में लगने वाला काला धन भ्रष्टाचार की जननी है। चुनाव, भ्रष्टाचार और कालेधन का विषैला चक्र है। इसे तोड़ना अति आवश्यक है। इसलिए चुनावों के लिए सार्वजनिक/सरकारी वित्तपोषण के  विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं।)

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