भारत : 1885 से 1950 (इतिहास पर एक दृष्टि) –
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव और भी कई अवसरों पर इतिहास के पुनर्लेखन पर जोर दिया है। तब से मेरे मन में एक प्रश्न है कि इसकी आवश्यकता मोदी जी को क्यों लगती है? हमारा इतिहास किसने लिखा और उसने भारतीय संस्कृति और सभ्यता की सही तस्वीर क्यों नहीं प्रस्तुत की? तो ध्यान में आता है कि कई बार भारत का इतिहास उसकी गौरवशाली परंपरा को ध्यान में रखते हुए लिखा ही नहीं गया।
सबसे पहली बात जो इतिहास में बताई गई कि देश स्वतंत्रता की लड़ाई अंग्रेजों के आने के बाद शुरू की, बिल्कुल गलत है। जब से भारत पर आक्रान्ताओं की कुदृष्टि पड़ी, तब से हम अपनी स्वतंत्रता को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह बात हमसे क्यों छुपाई गई, तो ध्यान में आता है कि हमारे देश के नेताओं को अंग्रेजों के पहले का सही इतिहास बताने से मुस्लिम समाज नाराज हो जाने का डर था। कुछ नेताओं ने अपनी पूरी राजनीति हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर की। यदि वास्तविकता सबके सामने आ जाती तो फिर ऐसे नेता क्या करते?
स्वतंत्रता के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री बने। उनके पास मौका था कि वो इस भूल को सुधार सकते थे। लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि नेहरूजी ऐसा करते ही क्यों? क्योंकि मुसलमानों के वोट तो उन्हें भी चाहिए थे। इसलिए उनके कार्यकाल में इतिहास की जो शिक्षा प्रदान की जानी शुरू की गई, उसमें भी कुछ बातों का ध्यान रखा गया। मुस्लिम आक्रांताओं से संघर्ष करने वाले भारतीय योद्धाओं के बारे में अधिक नहीं लिखा जाए, जो लिखा जाए उसमें भी इस बात का ध्यान रखा जाए कि मुस्लिम समाज उस इतिहास से नाराज न हो।
कांग्रेस ने हमेशा यह कहा कि उसके प्रयासों से भारत को स्वतंत्रता मिली। यदि क्रांतिकारी व अन्य लोगों के स्वतंत्रता संग्राम में संघर्ष को इतिहास में पर्याप्त स्थान दिया जाता, तो लोगों को यह लगता कि कांग्रेस से अधिक भारत की स्वतंत्रता के लिए अन्य लोगों ने काम किया। ऐसे में आज तक भारत की स्वतंत्रता के नाम पर कांग्रेस को जो वोट मिलते रहे हैं, उसका क्या होता? यही कारण है कि कांग्रेस कभी नहीं चाहेगी कि सही इतिहास लोगों के सामने आये।
ऐसा माना जाता है कि लेखन के मामलों में वामपंथी विचारधारा वाले लोग सबसे आगे रहे। उन्होंने साहित्य और इतिहास लेखन के द्वारा अपनी विचारधारा का प्रचार-प्रसार बहुत अच्छी प्रकार से किया। लेकिनं वे भी सही इतिहास क्यों लिखते? उनके पास इसका क्या कारण था? यह विचार करने की आवश्यकता है। अंग्रेज एक काम अच्छा करते थे। वो जो कुछ भी भारत में करते थे, उसकी पूरी लिखित कार्रवाई होती थी। यदि वामपंथी चाहते, तो उससे जानकारी लेकर सही इतिहास प्रकाशित कर सकते थे। लेकिन उनकी आस्था पहले सोवियत संघ (रूस) और फिर चीन में रही अर्थात भारत से बाहर। इसलिए उनके पास भारतीय संस्कृति और सभ्यता को आधार मानकर इतिहास लिखने का कोई कारण नहीं था।
यदि सिर्फ अंग्रेजों के शासन की ही बात करें, तो लोग गुमनाम योद्धाओं के बारे में अधिक से अधिक जाने इसके लिए केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से प्रभावित होकर कई लोग व संस्थाएं काम कर ही रही हैं। इसको ध्यान में रखते हुए मैंने इसका दूसरा पहलू लोगों के सामने लाने का निर्णय लिया। यह पक्ष था इतिहास में स्थापित कुछ झूठे तथ्यों का सच उजागर करना। इसी प्रयास में मैंने स्वयं को इतिहास का विद्यार्थी मानकर अध्ययन करना प्रारंभ किया। जो कुछ तथ्य और सत्य इससे निकला, उसे मैंने अपनी पहली पुस्तक भारत : 1857 से 1957 (इतिहास पर एक दृष्टि) में लिखा।
अध्ययन इसके बाद भी जारी था। इस प्रयास में मुझे कुछ और तथ्य मिले। इन तथ्यों को पिछली पुस्तक के दूसरे संस्करण के रूप में दूँ या नई पुस्तक लिखूं। ध्यान में आया कि अभी जो तथ्य मिले हैं, उनका कालखंड और इन तथ्यों का श्रोत दोनों ही अलग हैं, इसलिए इन्हें अलग ही रखना उचित होगा। इस बार मैंने प्रयास किया है कि अपनी बातों को सिद्ध करने के लिए संदर्भ आत्कथाओं, जीवनियों और कांग्रेस द्वारा लिखवाये गए अपने स्वयं के इतिहास से भी हो। यदि कोई व्यक्ति स्वयं बयान देकर मेरी बात को सिद्ध कर रहा है, तो इससे अच्छा इतिहास और क्या हो सकता है। इस पुस्तक में संविधान से जुड़े कुछ विश्लेषण भी इसे मेरी पहली पुस्तक से अलग करते हैं।
इस पुस्तक की प्रस्तावना प्रसिद्ध इतिहासकार कृष्णानंद सागर ने लिखी है। वास्तव में इतिहास पर लेखन करना चाहिए यह विचार मेरे मन में उनके लेखन से प्रेरणा लेकर ही आया था, इसलिए पुस्तक हेतु उनकी प्रस्तावना मिलना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। पुस्तक की भूमिका धर्मप्रकाश गुप्त ने लिखी है। नई-नई बातों को जानना और समझने का प्रयास करना तथा तदोपरांत आवश्यकतानुसार उन पर लेखन करना उनकी विशेषता है। भूमिका लेखन के लिए मैं उनका भी आभारी हूँ।
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