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जलियांवाला बाग नरसंहार

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रॉलेट एक्ट 1919

13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में आयोजित एक शांतिपूर्ण बैठक में शामिल लोगों पर ब्रिगेडियर जनरल डायर ने गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें असंख्य निहत्थे स्त्री, पुरुष और बच्चे मारे गए। भारतीय इतिहास में यह घटना ‘जलियावाला बाग नरसंहार’ के नाम से जानी जाती है। ये सभी लोग रॉलेट एक्ट 1919 का शांतिपूर्ण विरोध कर रहे थे।

रॉलेट एक्ट 1919 – प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान भारत की ब्रिटिश सरकार ने कई दमनकारी कानून बनाए। इनका एकमात्र उद्देश्य क्रांतिकारी गतिविधियों का मुकाबला करना था। इस संदर्भ में सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता वाली राजद्रोह समिति की सिफारिशों पर यह अधिनियम पारित किया गया था। इस अधिनियम ने सरकार को राजनैतिक गतिविधियों पर जबरन दमन करने के अधिकार प्रदान किये और दो साल तक बिना किसी मुकदमे के राजनीतिक कैदियों को हिरासत में रखने की अनुमति दी।

महात्मा गांधी इस तरह के अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करना चाहते थे, जो 6 अप्रैल 1919 को शुरू हुआ। फिर 9 अप्रैल को पंजाब में दो राष्ट्रवादी नेताओं सैफुद्दीन किचलू और डॉ सत्यपाल को ब्रिटिश अधिकारियों ने बिना किसी वारेंट के गिरफ्तार कर लिया।

इससे भारतीयों में आक्रोश पैदा हो गया और 10 अप्रैल को वे हजारों की संख्या में अपने नेताओं के प्रति एकजुटता दिखाने के उद्देश्य से शांतिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे। पंजाब में तब ब्रिगेडियर-जनरल डायर को तैनात किया गया था।

घटना का दिन

13 अप्रैल 1919, बैसाखी के दिन पंजाब के अमृतसर में भारी संख्या में लोग जालियांवाला बाग में एकत्रित हो गए। ब्रिगेडियर-जनरल डायर भी अपने सैनिकों के साथ घटनास्थल पर पहुँच गया। सैनिकों ने जनरल डायर के आदेश के तहत बाग को चारों तरफ से घेर लिया और एकमात्र निकास द्वार को भी अवरुद्ध कर दिया। कुछ ही देर में उन्होंने निहत्थी-निर्दोष मासूम लोगों पर ताबड़तोड़ गोलियाँ चला दीं। जिसमें 1000 से अधिक पुरुषों और महिलाओं सहित बच्चों का नरसंहार हो गया।

‘खूनी’ जनरल डायर का कहना था, “चूँकि शहर फौज के कब्जे में था और इस बात का एलान कर दिया गया कि कोई भी सभा करने की इजाजत नहीं दी जाएगी। तो भी लोगों ने उसकी अवहेलना की, इसलिए वह उन्हें एक सबक सिखा देना चाहता था ताकि उसकी खिल्ली न उड़ा सकें।“

आगे उसने कहा, “मैंने और भी गोली चलाई होती अगर मेरे पास कारतूस होते। मैंने 1,600 ही गोली चलवाई क्योंकि मेरे पास कारतूस खत्म हो गए थे।“

यह सच है कि यदि डायर के पास अधिक गोला-बारूद होता तो वह किसी भी व्यक्ति को जिन्दा नहीं छोड़ता। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार उसने भागते हुए बच्चों और महिलाओं पर निर्दयतापूर्वक गोली चलवाई। आश्चर्य की बात यह है कि पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकेल ओडवायर ने जनरल डायर के इस पाशविक हत्याकांड की तारीफ तक की और उसे तार भेजकर कहा कि “लेफ्टिनेंट गवर्नर तुम्हारे इस कार्य की सराहना करते है।“

पंजाब में दमन और क्रूरता

ब्रिटिश सरकार ने पंजाब के अमृतसर और लाहौर सहित अनेक शहरों में मार्शल लॉ लागू कर दिया था। सरकार बिना किसी कारण निर्दोष लोगों पर दमन और क्रूरता करने लगी थी। उन्हें पेट के बल रेंगकर चलने के लिए जबरन मजबूर किया गया।

छोटे-छोटे अपराधियों को भी खुले आम कोड़ों की सजा दी जाने लगी। अधिवक्ताओं को बिना किसी कारण के कांस्टेबल बना दिया गया और उनसे मामूली कुलियों सा काम लिया जाने लगा। बिना किसी अपराध के सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें हवालात में रखा गया और भयानक यातनाएं दी गई। लाहौर में कॉलेज के छात्रों को अंग्रेज झण्डे को सलामी देने के लिए तपती धूप में 16 मील दौड़ाया गया। एक निरपराध बारात के लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। दुल्हे को जेल में डाल दिया गया तथा पुरोहित और अन्य लोगों पर कोड़े बरसाये गए।

यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि पंजाब के प्रायः सभी नगरों में बिना किसी वजह बहुत लंबे अरसे तक मार्शल लॉ जारी रखा गया। इस दौरान फौजी अदालतें बैठी थी। उन्होंने तो फैसला करने भी क्रूरता की हदें पार कर दी थी। दरअसल, जिन लोगों ने रॉलेट एक्ट के खिलाफ भाषण दिया था, उनपर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। उन्हें न केवल आजीवन काले पानी की सजा दी गई बल्कि उनकी सब जायदाद भी जब्त कर ली गई। कई लोगों को अकारण ही फांसी पर लटका दिया गया। अतः मोतीलाल नेहरू ने हस्तक्षेप किया और तत्कालीन स्टेट सेक्रेटरी मांटेग्यु के पास तार भेजकर पंजाब के हालातों की जानकारी साझा की। इस घटना के विरोध में राष्ट्रीय कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने वर्ष 1915 में प्राप्त नाइटहुड की उपाधि का त्याग कर दिया था।

ब्रिटिश संसद और जनरल डायर

19 जुलाई 1920 को ब्रिटिश संसद के एक प्रस्ताव में कहा गया, “जनरल डायर बहुत क्षमता वाले अधिकारी हैं, उससे भी ज्यादा, उन्होंने कुशलता और मानवता के गुणों से अत्यंत प्रभावित किया हैं।” (पार्लियामेंट ऑफ यूनाइटेड किंगडम, 19 जुलाई 1920)

ब्रिटेन का यह नजरिया क्रूरता, फासीवाद और तानाशाही का एक उदाहरण था। इससे भी खतरनाक और शर्मनाक था कि कांग्रेस ने इस प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं दी।

डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटीहंटर आयोग

  • दिखावे के तौर पर भारत की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने घटनाकी जाँच का आदेश दिया, जिसने डायर की सतही निंदा की और उसे सेना से इस्तीफा देने का आदेश दिया।
  • ब्रिटिश सरकार ने 1920 में डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित की।
  • नरसंहार के दिन 5,000 से ज्यादा लोग वहां मौजूद थे।
  • जनरल डायर के साथ 90 लोगों की फौज थी जिसमें 50 के पास राइफल्स और 40 के पास खुर्की (छोटी तलवार) थी।
  • जनरल डायर ने लिखित में बताया कि जितनी भी गोलियां चलाई गई, वह कम थी। अगर उसके पास पुलिस के जवान ज्यादा होते तो जनहानि भी अधिक होती।
  • वह यह तय करके आया था कि अगर उसके आदेश नहीं माने गए तो वह गोलियां चला देगा।
  • बिना चेतावनी के वह लगातार 10 मिनट तक वह गोलियां चलता रहा।

मृतकों की संख्या

एक ब्रिटिश अधिकारी जे.पी. थोमसन ने एच.डी. क्रैक को 10 अगस्त 1919 को पत्र लिखा, “हम इस स्थिति में नहीं है जिसमें हम बता सके कि वास्तविकता में जलियांवाला बाग में कितने लोग मारे गए। जनरल डायर ने मुझे एक दिन बताया कि यह संख्या 200 से 300 के बीच हो सकती हैं। उसमें बताया कि उनके फ्रांस के अनुभव के आधार पर 6 राउंड शॉट से एक व्यक्ति को मारा जा सकता हैं। उस दिन कुल 1,650 राउंड गोलियां चलाई गयी। उसके बाद ब्रिटिश सरकार ने डायर के अनुमान के आधार पर 291 लोगों के मारे जाने की पुष्टि कर दी। इसमें 186 हिन्दू, 39 मुस्लिम, 22 सिख और 44 अज्ञात बताये गए। इस प्रकार वहां मरने वालों की संख्या निर्धारित की गयी। (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, होम पॉलिटिकल, 23-1919)

डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी ने तो 379 लोगों की जान और इसके तीन गुना लोग घायल होने की बात कही।

पंडित मदन मोहन मालवीय ने जलियांवाला बाग का दौरा किया था। उन्होंने बताया कि मरने वालों की संख्या 1,000 से ऊपर हैं। (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, होम पॉलिटिकल, 23-1919)

नरसंहार का राजनीतिकरण

स्वाधीनता के बाद, जलियांवाला बाग के लिए एक ट्रस्ट प्रस्तावित किया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस विधेयक को संसद के समक्ष प्रस्तुत न करके मंत्रिमंडल की मंजूरी से ही पारित करा देना चाहते थे। 11 मार्च 1950 को उन्होंने एक पत्र लिखा, “मैं चाहता हूँ कि इस विधेयक के ड्राफ्ट को जलियांवाला बाग मैनेजिंग कमिटी की बैठक में रखा जाए। उसके बाद, मुझे उसकी प्रति भेज दे। तब विधेयक को मंत्रिमंडल के समक्ष मंजूरी के लिए पेश किया जायेगा। जाहिर है इसे संसद के वर्तमान सेशन में नहीं रखा जा सकता, लेकिन यह मंत्रिमंडल के द्वारा पारित कराया जायेगा।” (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 Judicial)

इस विधेयक को नेहरू ने डॉ. बी.आर. अंबेडकर के पास भेज दिया। दरअसल यह गलत बताया गया है कि इस बिल का ड्राफ्ट डॉ. अंबेडकर ने तैयार किया था। असल में इसका ड्राफ्ट कांग्रेस के ही एक सदस्य टेकचंद ने बनाया था। डॉ. अंबेडकर के पास तो यह समीक्षा के लिए 24 मार्च 1950 को भेजा गया था। कुछ मामूली सुझावों के लिए उन्होंने इसे वापस भेज दिया। (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 न्यायिक )

जलियांवाला बाग मेमोरियल ट्रस्ट बिल, 1950 में नेहरू के साथ सरदार पटेल भी न्यासी थे। एक्स-ओफिसियो में पंजाब के राज्यपाल, पंजाब के मुख्यमंत्री और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष को रखा गया। इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार द्वारा पहले चार लोगों को नामांकित किया जा सकता था लेकिन अंत में यह संख्या तीन कर दी गयी। (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 न्यायिक)

आखिरकार, संसद के समक्ष 7 दिसंबर 1950 को यह विधेयक प्रस्तुत किया गया। तब तक सरदार पटेल बेहद अस्वस्थ हो गए थे। उनके स्थान पर राजकुमारी अमृत कौर के नाम पर विचार किया गया। बाद में नेहरू के सुझाव पर डॉ. सैफुद्दीन किचालू को न्यासी बनाया गया। (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 न्यायिक)

नरसंहार पर कांग्रेस का दृष्टिकोण

अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस पूरे मामलें में अलोकतांत्रिक रवैया अपनाया। किसी अन्य दल अथवा सामाजिक और राजनैतिक व्यक्ति से इस सन्दर्भ में चर्चा नहीं की। शुरुआत में विधेयक को संसद में न लाकर मंत्रिमंडल से ही पारित किया जाना था। बाद में नेहरू ने इसे संसद के समक्ष रखा तो इसमें सभी सदस्य कांग्रेस के ही थे। गौर करने वाली बात थी कि इसमें कांग्रेस के अध्यक्ष को भी रखा गया। यह नियम 1951 से लागू था जिसे 2018 में बदल दिया गया। अब इसमें कांग्रेस अध्यक्ष के स्थान पर लोकसभा में विपक्ष के नेता को रखा गया हैं। अगर विपक्ष में कोई दल नहीं होता तो उसी जगह विपक्ष की सबसे बड़े दल के नेता को शामिल किया जायेगा।

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