– सारांश कनौजिया
ऐसी धार्मिक मान्यता है कि देवउठनी एकादशी (कार्तिक शुक्ल एकादशी) के दिन भगवान विष्णु अपनी योग निद्रा से जागे थे। भगवान विष्णु को सृष्टि का संचालक कहा जाता है, किन्तु जब वो योग निद्रा में होते हैं, तो भगवान शिव के हाथों में सृष्टि का संचालन होता है। योग निद्रा से जागने के बाद एक बार फिर भगवान विष्णु के हाथों में सृष्टि संचालन आ जाता है। इसी के साथ सभी मांगलिक कार्य भी पुनः प्रारंभ हो जाते हैं।
एक अन्य धार्मिक मान्यता के अनुसार इसके साथ ही देवी तुलसी का विवाह, विष्णु जी के एक रूप शालिग्राम से होता है। इस अवसार पर भगवान सत्यनारायण की कथा सुनी जाती है तथा व्रत भी रखा जाता है। धार्मिक विद्वान विशेषतः इस दिन चावल न खाने, मास-मंदिरा से दूर रहने, क्रोध से बचने तथा ब्रह्मचर्य का पालन करने को प्राथमिकता देते हैं। इस दिन गंगा स्नान और दान-पुण्य का भी विशेष महत्व है। लोक मान्यताओं के अनुसार इस दिन तुलसी के पत्तों को तोड़ना नहीं चाहिए। पूजा के लिये आवश्यक तुलसी के पत्ते एक दिन पूर्व तोड़ कर रखे जा सकते हैं।
देवउठनी एकादशी और तुलसी विवाह क्यों मनाया जाता है? इसको लेकर भी कई धार्मिक मान्यताएं और लोक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार जब भगवान विष्णु ने अपने वामन अवतार में राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी थी, उस समय बलि को पाताल भेज दिया था। तभी उन्होंने बलि को एक वचन भी दिया कि वो चार्तुमास पाताल में निवास करेंगे। यह कालखण्ड देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी के मध्य का है। अर्थात् भगवान विष्णु इस कालावधि में अपने बैकुण्ठ धाम के स्थान पर पाताल में निवास करते हैं।
देवी तुलसी से भगवान शालिग्राम का विवाह प्रत्येक वर्ष कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वादशी को मनाया जाता है। इसके पीछे की एक प्रचलित धार्मिक कथा के अनुसार वृंदा नामक स्त्री का विवाह जालंधर नामक राक्षस से हुआ था। वृंदा बहुत पतिव्रता स्त्री थी। उनके इसी समर्पण के कारण जालंधर का वध नहीं हो पा रहा था। वृंदा भगवान विष्णु की भी परमभक्त थी। इस कारण देवताओं व अन्य के लिये यह कार्य अत्यंत कठिन हो गया था। इसी को देखते हुए भगवान विष्णु ने छल से वृंदा की आराधना भंग कर दी, जिससे जालंधर का वध संभव हो पाया।
इससे नाराज वृंदा ने भगवान विष्णु को शिला बनने का श्राप दे दिया। जब समझाने पर वृंदा को अपनी गलती का एहसास हुआ, तब उन्होंने अपने श्राप के प्रभाव को सीमित कर दिया और साथ ही स्वयं का अंत भी। भगवान विष्णु ने आशीर्वाद दिया कि उसे उसकी भक्ति के कारण अगले जन्म में भगवान विष्णु के इसी शालग्राम स्वरूप से विवाह करने का सौभाग्य प्राप्त होगा। इसी आशीर्वाद के कारण हम हर वर्ष तुलसी-शालिग्राम विवाह मनाते हैं।
एक अन्य मान्यता के अनुसार तुलसी वन में तपस्या कर रही थीं। वहीं भगवान गणेश भी ध्यान में लीन थे। तब तक उनका विवाह नहीं हुआ था। तुलसी उनके ध्यान के तेज से प्रभावित होकर उन्हें विवाह का प्रस्ताव देती हैं, लेकिन भगवान गणेश किसी से भी विवाह करने की अनिच्छा प्रकट करते हैं। इस पर क्रोधित होकर तुलसी उन्हें दो युवतियों से विवाह होने का श्राप देती हैं। बदले में भगवान गणेश ने भी उन्हें पौधा बनने का श्राप दे दिया। तुलसी को उनकी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने भगवान गणेश से क्षमा याचना की। इसी के परिणाम स्वरूप तुलसी-शालीग्राम विवाह हुआ। भगवान गणेश को इसी कारण पूजा में कभी भी तुलसी नहीं चढ़ाई जात है। यद्यपि पहले वाली मान्यता अधिक प्रचलित है।
लेखक मातृभूमि समाचार के संपादक हैं।
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