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वर्षों बाद आज भी सुल्तानपुर कर रहा है कुशभवनपुर या कुशनगरी होने का इंतजार

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लखनऊ. अयोध्या और प्रयागराज के बीच बसी कुशनगरी सुल्तानपुर अब अपने प्राचीन नाम कुशभवनपुर की वापसी की उत्सुक प्रतीक्षा में है. राम नायक ने उत्तर प्रदेश का राज्यपाल रहते इस विषय में मुख्यमंत्री को पत्र लिखा था. योगी आदित्यनाथ के पहले कार्यकाल में विधायक देव मणि द्विवेदी ने विधानसभा में सबसे पहले इस मुद्दे पर सरकार का ध्यान आकर्षित किया था. सांसद मेनका गांधी और जिले के चारों भाजपा विधायकों ने भी इसका समर्थन किया है. नगरपालिका परिषद वर्षों पहले इसका प्रस्ताव पारित कर चुकी है.

शौर्य फाउंडेशन सहित कुछ स्थानीय संगठन भी इस दिशा में लगातार सक्रिय हैं. जिला प्रशासन की गजेटियर के हवाले से पक्ष में रिपोर्ट और प्रदेश शासन के पत्र के बाद उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद ने नाम परिवर्तन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. नाम परिवर्तन तय माना जा रहा है. घोषणा शेष है. सुल्तानपुर अयोध्या के बाजू में बसा है. क्या यह घोषणा राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के मौके पर हो सकती है ! तब जबकि पूरा माहौल राम और मंदिर मय है, पढ़िए मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पुत्र कुश की बसाई नगरी का इतिहास , जहां वन जाते प्रभु राम -सीता और लंका विजय के बाद वापसी के साथ ही संजीवनी की तलाश में जाते हनुमान से जुड़े पौराणिक महत्व के पवित्र स्थल भी हैं.

राम-सीता की जुड़ी हैं स्मृतियां : पुत्र कुश ने बसाया

कुशभवनपुर या कुशपुर (सुल्तानपुर) का मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और अयोध्या नगरी से गहरा नाता है. सिर्फ इसलिए नहीं कि श्रीराम के ज्येष्ठ पुत्र कुश महाराज ने कोशल राज्य के दक्षिण इस नगर को बसाया. बल्कि इसलिए भी क्योंकि श्रीराम के वन गमन पथ का यहां का गोमती तट प्रमुख पड़ाव था. माता सीता के इस तट पर स्नान-विश्राम की स्मृतियाँ पवित्र ‘ सीताकुंड’ संजोए हुए है .’ रावण पर विजय के बाद वापसी में प्रभु श्रीराम ने पुनः इस धरा को धन्य किया. चांदा परगना के राजपति गांव में ‘धोपाप ‘ नामक पवित्र स्थल है.

ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति के लिए यहीं गोमतीं नदी में प्रभु श्रीराम ने स्नान किया. विष्णुपुराण में गोमतीं को ‘ धूतपापा ‘ बताया गया है. गंगा दशहरा और कार्तिक पूर्णिमा पर पापमुक्ति के लिए यहां स्नान के लिए अभी भी जनसमुदाय उमड़ता है. गोमती पार करके सायं श्रीराम ने पुनः स्नान किया और दीपदान किया. यह स्थान ‘ दीपनगर ‘ कहलाया और समय बीतने के साथ ‘ दिय रा ‘हो गया. दियरा से जुड़े ‘ हरिशयनी ‘ में उन्होंने रात्रि शयन और सुबह अयोध्या के लिए प्रस्थान किया.

कालनेमि का हनुमान ने यहीं किया था वध

प्रभु राम से यहां को जोड़ने वाला एक अन्य प्रमुख पवित्र स्थल विजेथुवा है . लक्ष्मण जी के शक्तिवाण से मूर्छित होने के बाद संजीवनी की खोज में जा रहे पवनपुत्र श्री हनुमान के मार्ग में रावण के मामा कालनेमि ने यहीं अवरोध उत्पन्न करने का प्रयास किया था. साधुवेश धारी कालनेमि ने प्यासे हनुमान जी को अपने कमंडल का जल दिया था. प्यास न बुझने पर समीप के कुंड की ओर संकेत कर दिया था.

इस कुंड में स्वर्गलोक से शापित अप्सरा मकड़ी की योनि में वास करती थी और कुंड से जल लेने का प्रयास करने वाले किसी भी जीव का वध कर देती थी. लेकिन श्री हनुमान के जल में प्रवेश करते ही मकड़ीं उनके पैर पकड़ कर शापमुक्त हो अपने दिव्य स्वरूप में आ गई. स्वर्ग की ओर प्रस्थान करते हुए उसने श्रीहनुमान को साधुवेशधारी की वास्तविकता की जानकारी दी. इसके बाद श्री हनुमान ने कालनेमि का वध किया. इस स्थल पर आज भी मकड़ी कुंड है. उसके बगल स्थित श्री हनुमान के विशाल मंदिर का अयोध्या की हनुमान गढ़ी जैसा महत्व है. मंगलवार और शनिवार को श्रीहनुमान की आराधना-दर्शन के लिए दूर -दूर से भक्त यहां पहुंचते हैं.

कनिंघम ने किया -शि -पुलो से जोड़ा कुशपुर से संबंध

जनरल कनिंघम ने सुल्तानपुर के पुरास्थलों का 1861 से 1865 के मध्य सर्वेक्षण किया था. ह्वेनसयांग के यात्रा विवरणों के आधार पर कनिंघम बौद्ध स्थलों की खोज में लगे थे. उन्होंने चीनी यात्री द्वारा लिखे विवरण के आधार पर किया-शि-पुलों नामक स्थल का संबंध कुशपुर अथवा कुशभवनपुर से जोड़ा परन्तु वर्णन के आधार पर उस नगर की पहचान करने में असमर्थ रहे. फ्यूरर ने 1891 में अवध क्षेत्र का सर्वेक्षण किया और इस क्षेत्र के अनेक पुरातात्विक महत्व के स्थलों की ओर ध्यान आकर्षित किया.

1968 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुराविदों ने मुसाफिरखाना तहसील में ‘ भर – का – भीटा ‘ नामक पुरास्थल का पता लगाया. 1975 में एल.एम.वहल ने गोमतीं के दाएं तट पर स्थित गढ़ा (कुड़वार) की ओर ध्यान आकर्षित किया. अगले वर्ष उन्हें यहां से चित्रित धूसर मृदमांड मिले जो पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण थे. भिक्षु धर्मरक्षित 1969 में ही अपनी पुस्तिका ‘ कालाम गणतंत्र के केसुपुत्त ‘ में लिख चुके थे कि गढ़ा ( कुड़वार ) बिम्बिसार के शासन काल में कालाम गणतंत्र की राजधानी थी , जिसे ‘ केसपुत्त ‘ के नाम से जाना जाता था और इसके राजा केसिन थे.

महात्मा बुद्ध भी यहां रहे

धर्मरक्षित के अनुसार कालाम सूत्र का संकलन यहीं हुआ था. बौद्ध धर्मावलंबियों में इस स्थल को लेकर काफी उत्सुकता थी. उन्हीं दिनों वर्मा (म्यांमार) के तत्कालीन प्रधानमंत्री ऊ नू भी ‘गढ़ा ‘ आये थे. सुल्तानपुर के इतिहास पर महत्वपूर्ण कार्य करने वाले पत्रकार-इतिहासकार राजेश्वर सिंह के अनुसार केशिपुत्र सुल्तानपुर के कुड़वार कस्बे के निकट था , जहां कांची के विद्वान धम्मपाल का वैर्थिक से शास्त्रार्थ हुआ था.

यहां के ही निवासी आलार कालाम नालंदा विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के आचार्य थे. कहा जाता है कि गौतम बुद्ध ने भी उनसे शिक्षा ग्रहण की. ह्वेनसांग ने चीनी भाषा में जिस स्थान का किया-शि-पुलों के रूप में उल्लेख किया है वह केशिपुत्र अथवा केसिपुत्त से साम्यता रखता है और यह संकेत देता है कि महात्मा बुद्ध यहां छह माह रहे. प्रोफेसर के.सी. श्रीवास्तव ने ‘ प्राचीन भारत का इतिहास और संस्कृति ‘ में लिखा है ,’ बौद्धकालीन गणतंत्रों में दशम गणतंत्र कालामों का केसिपुत्त था जो कौशल राज्य के अन्तर्गत उसी क्षेत्र में स्थित था. संभवतः सुल्तानपुर में कुड़वार से लेकर पलिया तक उसका विस्तार था.’

शासक वंश बदलते रहे

गौतम बुद्ध के जीवनकाल (623 – 543 ई.पूर्व) में बुद्धवाद अपने उत्थान के शिखर पर था. ऐसे समय में कुशभवनपुर या कुशपुर कपिलवस्तु के बौद्ध राजाओं शुद्धोदन तथा शाकवंशीय बौद्ध राजाओं के अधीन रहा. कोशल से सूर्यवंशियों के निष्कासन के बाद शिशुनाग वंश के पांचवें शासक गौतम बुद्ध के शिष्य बिम्बिसार ने 28 वर्ष (582 – 554 ई.पू.) और उसकी मृत्यु के बाद 27 वर्ष तक उसके पुत्र अजातशत्रु ने इस भूभाग पर शासन किया. नन्दवंश काल में बुद्धवाद का पतन हो गया. 364 ई.पू. में कुशपुर सहित कोशल का सम्पूर्ण भाग नन्द के शासन में मगध राज्य में सम्मिलित कर लिया गया.

चंद्रगुप्त मौर्य (322-298 ई.पू.) के हाथों नन्दवंश की पराजय के बाद मौर्य वंश के महान शासकों चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार, महान अशोक और कनिष्क (120-162ई.पू.) के समय तक कुशपुर भी उनके साम्राज्य का अंग रहा. गुप्त वंश (320-488 ई.) का शासन चंद्रगुप्त प्रथम से प्रारम्भ हुआ. उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने सम्पूर्ण अवध क्षेत्र जिसमें कुशपुर सम्मिलित था, का अपने मगध साम्राज्य विलय कर लिया था. समुद्रगुप्त के पुत्र चंद्रगुप्त द्वित्तीय ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की और अपनी राजधानी पाटिलपुत्र के स्थान पर साकेत (अयोध्या) बनाई. साकेत से प्रयाग तक का क्षेत्र , जिसके मध्य कुशपुर स्थित है, उसके अधीन आ गया. कुशपुर के अगले शासक शाक्य वंश के कनकसेन थे, जिन्होंने विक्रमादित्य से पूर्वी अवध का भूभाग छीन लिया था.

भरों का भी रहा अधिकार

कन्नौज के राजा हर्ष (606-647ई.) की मृत्यु के पश्चात लगभग पचास वर्ष तक कुशपुर एक पृथक राज्य बना रहा. इसके बाद इस राज्य पर ‘ भरों ‘ का अधिकार हुआ . कन्नौज और कड़ा राज्यों के अधीन भरों ने कुशपुर पर अगले लगभग साढ़े पांच सौ वर्षों तक शासन किया. उन्होंने यहां अनेक किले बनवाये. उनके एक शासक ‘ अल्दे ‘ के नाम से ही अल्देमऊ परगना है.

ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार , ‘ कासपुर (कुशपुर) सातवीं शताब्दी में एक भरपूर नगर था ,जहां भरों की शक्ति पराकाष्ठा पर थी. उन्होंने अपने अधीन क्षेत्र को छोटे -छोटे हिस्सों में बांट रखा था ,जिनका एक दूसरे से संबंध नहीं था. इसमें कासपुर सबसे ज्यादा प्रसिद्ध था.’ भरों के विषय में अधिक जानकारी का अभाव है. वे ‘ वनवासी ‘ थे और किसी कारण यहां आकर बस गए. उन्होंने शक्ति और वैभव अर्जित करके लम्बे समय तक पूर्वी अवध पर अपना आधिपत्य रखा. उनसे वैमनस्य रखने के बाद भी अनेक राजपूतों ने उनके अधीन पद स्वीकार किये.

चौदहवीं सदी के आसपास कुशभवनपुर बन गया सुल्तानपुर

कुशपुर या कुशभवनपुर कब से सुल्तानपुर कहा जाने लगा , इसके अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलते. लेकिन चौदहवीं सदी में सुल्तान इब्राहिम शाह के इस्लाम के प्रचार-प्रसार , धर्मांतरण के लिए भय-प्रलोभन और अरबी-फारसी की पढ़ाई के मदरसों के निर्माण से जिले के नाम परिवर्तन को भी जोड़ा जाता है . उस दौर में इस्लाम कुबूल करने वालों में सुल्तानपुर के राजपूत बड़ी संख्या में शामिल थे. शर्की सल्तनत के सिक्के धोपाप के नजदीक शाहगढ़ किले के पास प्रायः मिलते रहते हैं. शर्की शासकों के समय में भरों की अल्देमऊ गढ़ी ध्वस्त की गई.

वहां कई मस्जिदों-मकबरों का निर्माण हुआ. इस इलाके के शेख मखदूम मारूफ और जुड़िया शहीद के मकबरों को काफी ख्याति मिली. परगना अल्देमऊ अन्तर्गत मारूफपुर और मखदुमपुर नाम के अभी भी राजस्व ग्राम हैं. इसी काल में धोपाप में गुम्बदाकार मस्जिद और मदरसे का निर्माण हुआ 1479 में दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी के हाथों हुसैन शाह शर्की की पराजय के साथ शर्की वंश के शासन का अंत हो गया. 1526 में पानीपत में इब्राहिम लोदी पर बाबर की जीत के बाद मुगल वंश का शासन प्रारंभ हुआ.

शुरुआती जीत के बाद बाबर ने अवध या सुल्तानपुर में कोई समस्या पैदा की हो इसके प्रमाण नहीं मिलते. बचगोती ठाकुर त्रिलोक चंद्र , नखलगढ़ ( अब हसनपुर) के बाबर के सामने इस्लाम कुबूल करने के एक प्रसंग का उल्लेख मिलता है लेकिन इस धर्मांतरण का स्थल इलाहाबाद बताया जाता है. त्रिलोक चंद्र के धर्मांतरण से जुड़ी दूसरी कथा के अनुसार वह बाबर के मुकाबले इब्राहिम लोदी की मदद के लिए अपनी सेना के साथ पानीपत गए थे और वहां बंदी बनाये जाने के बाद उन्होंने इस्लाम कुबूल किया और अपना नाम तातार खान रखा. उनकी प्रथम हिन्दू पत्नी के पुत्र फतेह शाह हिन्दू बने रहे और धम्मौर में रहने लगे. दूसरी मुस्लिम पत्नी से पुत्र वाजिद खान हुए और उन्होंने खुद को खानजादा कहना प्रारम्भ किया. वाजिद के पुत्र हसन खान ने रियासत नखलगढ़ का नाम हसनपुर किया.

शेरशाह सूरी ने कराया कई किलों का निर्माण

1539-40 में शेरशाह सूरी ने बाबर के पुत्र हुमायूँ को पराजित किया. शेरशाह की शुरुआती शिक्षा जौनपुर में हुई थी. वह निकटवर्ती सुल्तानपुर के भूगोल से बखूबी वाकिफ था. हसन खान ने शेरशाह सूरी की काफी निकटता हासिल कर ली थी. यह भी कहा जाता है कि हसन खान ने अपनी पुत्री का विवाह शेरशाह सूरी से किया. इस रिश्ते ने हसन खान को दौलत-रुतबा दोनो दिया. उसने उन्हें अपने सिंहासन के बगल बिठाया. दम-मशनदी-आला का खिताब दिया. उनकी सहमति से ही अवध में कोई राजा बनाया जा सकता था.

राजकीय समारोहों में हसन खान को तालुकेदारों -राजाओं को तिलक लगाने का अधिकार प्राप्त हुआ. यह तिलक लगाते समय वह सवा लाख चांदी के सिक्कों पर खड़े होते थे, जो उनका नजराना होता था. शेरशाह ने भी सुल्तानपुर में कई किलों का निर्माण कराया और अपनी छाप यहां छोड़ी. हसन खान ने इन रिश्तों की याद में हसनपुर में ‘ सूरी गेट ‘ का निर्माण कराया.

साभार : टीवी9 भारतवर्ष

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