भारतीय वीरांगनाओं ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल पुरुषों के साथ हर मोर्चे पर कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। यदि सिर्फ इनके शौर्य के बारे में बात की जाए तो किसी भी दृष्टि से इन्हें पुरुषों से कम नहीं कहा जा सकता है। ऐसी ही एक वीरांगना थीं ऊदा देवी। लखनऊ के सिकंदर बाग को लगभग 2000 भारतीय सैनिकों ने अपनी शरणस्थली बनाया हुआ था। 16 नवंबर 1857 को जब अंग्रेजों ने इस स्थान पर हमला बोला, तो पुरुष वेश में एक स्त्री ने पेड़ पर चढ़ कर अंग्रेजों को तब तक रोके रखा जब तक की उनकी मृत्यु नहीं हो गई। यह वीरांगना थीं ऊदा देवी। अंग्रेज अधिकारी सार्जेंट फ़ोर्ब्स मिशेल ने रेमिनिसेंसेज ऑफ द ग्रेट म्यूटिनी में लिखा है कि सिकंदर बाग में पीपल के पेड़ पर बैठे एक व्यक्ति ने अंग्रेजों के कई सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। जब उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को देखा गया, तब पता चला की वो एक स्त्री हैं। उनके पास पुराने पैटर्न की भारी कैवलरी पिस्तौल थी, गोलियों से भरी एक पिस्तौल उनके अंतिम समय तक उनकी बेल्ट से बंधी हुई थी।
ऊदा देवी के पास उपलब्ध थैली में अभी भी आधा गोला-बारूद था। संभव है कि ऐसी अन्य वीरांगनाएं भी वहां हो, ऊदा देवी सबसे आगे अंग्रेजों को रोकने का प्रयास कर रही थीं, इसलिए उनके बारे में तो फिर भी उल्लेख मिलता है, लेकिन अन्य एक भी नाम उपलब्ध नहीं हैं। ऊदा देवी की वीरता के बारे में उस समय लंदन टाइम्स के तत्कालीन संवाददाता विलियम हावर्ड रसेल ने लिखा था कि एक पुरुष वेश वाली स्त्री ने पीपल के पेड़ से अंग्रेजों पर फायरिंग कर अंग्रेजी सेना को भारी नुकसान पहुंचाया है। ऊदा देवी के पति मक्का पासी भी एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनकी मृत्यु अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए हुई थी। इसके बाद ऊदा देवी का यह अद्भुद शौर्य उनके पति के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में भी देखा जाता है। सिकंदर बाग में भारतीय सैनिकों से मुकाबला करने के लिए अंग्रेज अधिकारी काल्विन कैम्बेल के नेतृत्व में कानपुर से सेना भेजी गई थी। काल्विन ऊदा देवी की इस वीरता से इतना अधिक प्रभावित हुआ था कि उसने ऊदा देवी की मृत्यु के बाद उन्हें अपनी हैट (टोपी) उतारकर श्रद्धांजलि दी थी।