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राव कदम सिंह

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मेरठ से क्रांति के अग्रिम ध्वज वाहक मंगल पाण्डेय थे। भले ही उनके विद्रोह के समय उन्हें पर्याप्त समर्थन नहीं मिला, जिसके कारण उनका बलिदान हो गया, किन्तु इस चिंगारी ने इसी शहर के एक और क्रांतिकारी राव कदम सिंह को और अधिक क्रियाशील बना दिया। राव का प्रमुख प्रभाव मवाना, हिस्तानपुर और बहसूमा क्षेत्र में था। यह मेरठ शहर के पास का क्षेत्र था। इनकी प्रमुख पहचान सफेद पगड़ी थी। यह इस बात का प्रतीक थी कि वो अपना कफन साथ रखते हैं अर्थात मृत्यु के लिए सदैव तैयार रहते हैं। वे परीक्षतगढ़ के अंतिम राजा नैनसिंह के भाई के पौत्र थे। उनके साम्राज्य में 349 गांव थे। 1818 में नैनसिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने इस साम्राज्य को हथिया लिया था। राव सहित मेरठ के क्रांतिकारियों को जैसे ही मंगल पाण्डेय के विद्रोह की सूचना मिली। इन लोगों ने अंग्रेजों की संचार और यातायात व्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया। संभव है कि ऐसी ही प्रतिक्रियाओं से डरकर अंग्रेजों ने मंगल पाण्डेय को 10 दिन पूर्व ही फांसी दी हो।

राव कदम सिंह की वीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन मेरठ के कलक्टर आर.एच. डनलप ने अपने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को बताया कि क्षेत्र के क्रांतिकारियों ने राव कदम सिंह को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया गया है। उन्होंने अपने क्रांतिकारी भाई दलेल सिंह के साथ मिलकर अंग्रेज पुलिस को परीक्षतगढ़ से हटने के लिए मजबूर कर दिया। इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के मददगारों पर हमला बोल दिया। कुछ गद्दारों को छोड़ दें, तो लोग राजपरिवार से होने के कारण राव कदम सिंह को अपना राजा मानने लगे थे। कदम सिंह के रूप में उन्हें अपने बीच का एक राजा मिल गया था। राव को पता था कि अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए उन्हें अधिक से अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए उन्होंने अपने भाईयों दलेल सिंह, पिर्थी सिंह और देवी सिंह के साथ मिलकर बिजनौर में संघर्ष कर रहे देशभक्तों से हाथ मिला लिया। इस संयुक्त दल ने बिजनौर के मंडावर, दारानगर और धनौरा क्षेत्रों पर हमला बोलकर वहां से अंग्रेजों को मारकर भगा दिया। अंग्रेज राव कदम सिंह के बढ़ते प्रभाव से भयभीत थे, इसलिए उन्होंने मेजर विलयम्स को जिम्मेदारी दी। उसने 4 जुलाई 1857 को हमला बोल राव कदम सिंह को परीक्षतगढ़ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और बहसूमा में अंग्रेजों के विरुद्ध नया मोर्चा खोल दिया।

राव कदम सिंह के समर्थक क्रांतिकारियों ने 18 सितंबर को मवाना पर बड़ा हमला बोला लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद राव ने बिजनौर जाकर संघर्ष जारी रखा। उन्होंने बिजनौर के साथ ही मुजफ्फरनगर और हरिद्वार तक अंग्रेजों को जगह-जगह उलझाए रखा। लेकिन दूसरी ओर बिजनौर और बरेली सहित विभिन्न स्थानों पर क्रांतिकारियों की हार के कारण उनको मिलने वाला समर्थन लगातार कम हो रहा था। इस कारण यह वीर सपूत गुमनामी की चादर में कहीं खो गया। अंग्रेजों द्वारा उन्हें पकड़ने के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। अतः यह तो निश्चित है कि राव कदम सिंह अंत तक स्वतंत्र ही रहे।

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