देश में ऐसे अनगिनत स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हुये जो पहले कांग्रेस के साथ जुड़े या उसे अपना समर्थन दिया लेकिन बाद में वैचारिक मतभेद होने के कारण एक अलग राह बना ली। इनमें सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह व डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार जैसे अनेक नाम शामिल हैं। तो कुछ लोग कांग्रेस के बाहर से भी स्वतंत्रता के लिए प्रयासरत थे। ऐसे ही एक महान धार्मिक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे स्वामी श्रद्धानंद। महात्मा गांधी इनसे इतने असहमत थे, कि स्वामी जी की हत्या के बाद हुई कांग्रेस की बैठक में उनके हत्यारे की ही वकालत करने लगे थे और गांधी जी ने उनकी हत्या को भी सही सिद्ध करने का प्रयास किया था।
स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती के बचपन का नाम मुंशीराम विज था। उनका जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब में हुआ था। वे आर्य समाज के विचारों से प्रभावित संत थे। प्रसिद्ध गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना उन्होंने ही की थी। ऐसे ही विभिन्न अन्य शिक्षण संस्थानों की स्थापना के पीछे उनका उद्देश्य हिन्दू मान्यताओं का प्रचार-प्रसार था। जबकि गांधी जी हिन्दू मान्यताओं और हिन्दुओं के गौरवशाली इतिहास के शिक्षण को घृणा फैलाने वाला कार्य मानते थे। गांधी जी को अंग्रेजी शिक्षण पद्धति से कोई समस्या नहीं थी। हिन्दू समाज में फैले हुये जातिगत भेदभाव के विरुद्ध स्वामी जी के कार्यों को देखकर 1922 में डॉ. भीमराव राम आंबेडकर ने उन्हें अछूतों का महानतम और सच्चा हितैषी बताया था।
स्वामी जी ने सर्वप्रथम जालंधर में आर्य समाज के जिलाध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली थी। उस समय वो वकालत करते थे। किंतु दयानंद सरस्वती की 1883 में हत्या के बाद श्रद्धानंद जी ने स्वयं को पूरी तरह आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। उनका जीवन इस बात का भी उदाहरण है कि आर्य समाज हिन्दू धर्म की बुराईयों के विरुद्ध है न की हिन्दुत्व के सिद्धांत के। इस कारण स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिये हिन्दुओं के संगठन पर जोर देते थे। गांधी जी इस विचार से असहमत थे। गांधी जी को संदेह था कि मुस्लिम समाज स्वयं को हिन्दुस्थान से जुड़ा हुआ महसूस नहीं कर रहा, इसके लिये हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात कर, उसे जोड़े रखना बहुत जरुरी है। हिन्दुत्व के विचार का प्रचार-प्रसार इसमें बाधक है।
ऐसा नहीं है कि स्वामी जी और गांधी जी के बीच यह मतभेद हमेशा से थे। गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार करते हुये सुधारों की वकालत कर रहे थे, तो भारत में उनकी जो सकारात्मक छवि बन रही थी, उससे श्रद्धानंद जी भी प्रभावित थे। उनके द्वारा स्थापित गुरुकुल कांगड़ी के विद्यार्थियों ने उस समय 1500 रूप ये एकत्रित करके गांधी जी को भेजे थे। स्वतंत्रता से पूर्व 1 रूप ये भी बहुत बड़ी राशि होती थी। ऐसे में प्रश्न उठता है कि गांधी जी के भारत आने के बाद ऐसा क्या हुआ, जो स्वामी जी से गांधीजी नाराज हो गये?
इसके उत्तर के लिये विदर्भ प्रांत के एक तत्कालीन बड़े कांग्रेसी नेता डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार की चर्चा करना चाहता हूं। डॉ. हेडगेवार चाहते थे कि कांग्रेस पूर्ण स्वराज्य के अंतर्गत अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिये कहे। जबकि गांधी जी दक्षिण अफ्रीका की तरह ही हिन्दुस्थान में भी अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार करते हुये सुधारों की वकालत कर रहे थे। गांधी जी के स्वराज्य का अर्थ था कि अंग्रेज प्रमुख बने रहे और उनके आधीन रहते हुये हिन्दुस्थानी हिन्दुस्थान का काम देखें। गांधी जी के इन विचारों से डॉ. हेडगेवार सहित कई अन्य कांग्रेसी सहमत नहीं थे। इस कारण कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नेताजी सुभाष चंद्र बोस सहित कई वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। जब गांधी जी हिन्दुस्थान आये और कांग्रेस से जुड़े, तो उनके वास्तविक विचारों से स्वामी श्रद्धानंद अवगत हुये।
स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती हिन्दुस्थान का पुराना गौरवशाली हिन्दू इतिहास याद दिलाने का प्रयास निरंतर कर रहे थे। उनका मानना था कि यदि हम इतिहास के वास्तविक महापुरुषों से सीख लेंगे, तो हमें स्वतंत्रता भी मिलेगी और हम सदैव स्वतंत्र बने भी रहेंगे। स्वामी जी को इसके लिये क्रांतिकारियों का सहयोग लेने में भी कोई दिक्कत नहीं लगती थी, जबकि गांधी जी क्रांतिकारियों को हिंसावादी मानते थे। गांधी जी की तुलना में स्वामी जी के विचार डॉ. हेडगेवार से अधिक मिलते थे। गांधी जी ने मोपला सहित हिन्दुओं के विरुद्ध हुये सांप्रदायिक दंगों के विरोध में एक भी मुस्लिम आतंकवादी की निंदा नहीं की, जबकि स्वामी जी ने इन सबका मुखर होकर विरोध किया। इस कारण कई मुस्लिम नेताओं को स्वामी जी खतरा लगने लगे। 23 दिसंबर 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक आतंकवादी ने स्वामी जी की हत्या कर दी।
यह हत्या दुखद थी। कांग्रेस में कुछ लोग इस हत्या को साम्प्रदायिक सौहार्द की भावना के विरुद्ध मानते थे। लेकिन गांधी जी अहिंसा के सिद्धांत के इतर कितने प्रसन्न थे, यह बात स्वामी जी की हत्या पर उनकी प्रतिक्रिया से समझी जा सकती है। यंग इंडिया में प्रकाशित वर्ष 1926 की एक रिपोर्ट के अनुसार गांधी जी ने 26 दिसंबर 1926 को गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में स्वामी जी की हत्या पर शोक सभा को संबोधित करते हुये कहा था कि मैं अब्दुल रशीद को भाई मानता हूं। मैं उन्हें स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। एक दूसरे के विरुद्ध घृणा पैदा करने वाले लोग इस हत्या के दोषी हैं। इसलिये हमें आंसू नहीं बहाने चाहिए। मैं स्वामी श्रद्धानंद की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती की हत्या हमारे दोष को धो देगी। इससे हृदय निर्मल होगा।
स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती ने कांग्रेस द्वारा आयोजित कई कार्यक्रमों में भाग लिया था। इनमें से कांग्रेस नेता के रूप में डॉ. हेडगेवार द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम को श्रद्धानंद सरस्वती ने संबोधित भी किया था। इसके बाद भी अहिंसा के पुजारी के रूप में प्रसिद्ध गांधीजी के स्वामी जी के बारे में जो विचार थे, वो गांधी जी की अहिंसा के प्रति उनकी अत्याधिक श्रद्धा को दर्शाते हैं। अति सर्वत्र वर्जयेत की नीति के अनुसार अहिंसा की अति भी वर्जनीय होनी चाहिए।