नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द जोड़े जाने के खिलाफ दाखिल याचिका को लार्जर बेंच सौंपने से इनकार कर दिया और कहा कि वह मामले में सोमवार को फैसला सुनाएगी। चीफ जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की बेंच ने मामले की सुनवाई की और फैसला सुरक्षित रख लिया है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द जोड़े जाने के खिलाफ दाखिल याचिका पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव खन्ना की अगुवाई वाली बेंच ने कहा है कि वह मामले में सोमवार को फैसला सुनाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि इस दौरान याचिकाकर्ता की उस दलील को ठुकरा दिया जिसमें याचिकाकर्ता ने मामले को लार्जर बेंच भेजने की गुहार ल गाई थी।
सुप्रीम कोर्ट में बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी और एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय की ओर से अर्जी दाखिल की गई है। एक याची के वकील विष्णु शंकर जैन ने दलील दी कि मामले में 9 जजों की बेंच का एक फैसला है जिसमें तत्कालीन चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने जस्टिस कृष्णा अय्यर रेड्डी के सोशलिस्ट व्याख्या से असहमति जताई थी। इस दौरान चीफ जस्टिस खन्ना ने कहा कि भारतीय संदर्भ में सोशलिस्ट का मतलब वेलफेयर स्टेट है। इस दौरान विष्णु शंकर जैन ने दलील दी कि 1976 में संविधान संशोधन के जरिये ये शब्द प्रस्तावना में डाला गया था लेकिन इससे पहले लोगों की राय नहीं ली गई थी। यह बदलाव इमरजेंसी के दौरान हुआ था और देखा जाए तो एक विशेष विचारधारा को लोगों पर थोपा गया था। एक बार जब प्रस्तावना इसे बनने के बाद की तारीख से लागू हुआ है तो उसमें बाद में संशोधन कर उसी तारीख से कैसे लागू किया जा सकता है। इस मामले को लार्जर बेंच को भेजना चाहिए क्योंकि इसमें व्यापक सुनवाई की दरकार है। चीफ जस्टिस ने इससे इनकार किया और कहा कि हम सोमवार को फैसला देंगे।
एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि वह सेक्युरिज्म और सोशलिस्टम के सिद्धांत के खिलाफ नहीं हैं लेकिन प्रस्तावना में गलत तरीके से इसे डाला गया है वह उसका विरोध कर रहे हैं। इस दौरान चीफ जस्टिस खन्ना ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद-368 में संविधान संशोधन का अधिकार केंद्र सरकार को है और यह संशोधन प्रस्तावना में भी हो सकता है। प्रस्तावना भी संविधान का हिस्सा है वह अलग नहीं है। चीफ जस्टिस खन्ना ने कहा कि वह इस दलील में अभी नहीं जाना चाहते हैं कि 1976 में लोकसभा बढ़े हुए कार्यकाल के तहत चल रहा था और प्रस्तावना में संशोधन का अधिकार सिर्फ संविधान सभा को हो सकता है। चीफ जस्टिस ने कहा कि हम यह नहीं कह सकते हैं कि इमरजेंसी में जो भी काम संसद ने किया वह अमान्य है। संविधान के 42 वें संशोधन जो 1976 में हुए थे उसको लेकर काफी ज्यूडिशियल रिव्यू हो चुका है। उपाध्याय ने कहा कि मामले में अटॉर्नी जनरल को भी सुना जाना चाहिए।
इस दौरान बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने व्यक्तिगत तौर पर पेश होकर कहा कि बाद में चुनी हुई सरकार ने भी इन शब्दों को प्रस्तावना में रखने का समर्थन किया। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे अलग पैराग्राफ में रखा जाना चाहिए था या फिर इसे 1949 की तारीख से ही प्रभावी किया जाना चाहिए था।
साभार : नवभारत टाइम्स
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