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कांग्रेस और गांधीजी ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए चलाया था असहयोग आंदोलन

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जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है, उसको पढ़कर ऐसा लगता है कि देश को स्वतंत्रता कांग्रेस ने दिलाई है। किन्तु यह सत्य नहीं है। कांग्रेस भारत का सबसे पुराना राजनीतिक दल है, यह बात बिल्कुल सही है। इसलिए कांग्रेस ने 1947 के पूर्व जो भी किया वो देश को स्वतंत्र कराने के लिए नहीं बल्कि सत्ता की राजनीति का एक हिस्सा था। उदहारण के लिए असहयोग आंदोलन, जिसे हिन्दुओं को धोखा देने के लिए भारत में असहयोग आंदोलन के नाम से चलाया गया। असहयोग आंदोलन वास्तव में मुसलामानों को खुश कर उनका समर्थन लेने के लिए किया गया एक प्रयास था। इसे समझने के लिए पहले इसके पीछे की पृष्ठभूमि को समझना होगा।

खिलाफत आंदोलन उस समय इस्लाम में महत्वपूर्ण पद खलीफा को समाप्त करने के विरुद्ध चलाया गया एक अभियान था। गांधी जी इससे क्यों जुड़े, इसके पीछे बहुत से कारण बताये जाते हैं। गांधी जी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात की। जब 1921 में उनसे सवाल किया गया कि भारत में मुस्लिमों के अतिरिक्त अन्य संप्रदाय भी रहते हैं, फिर सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात ही क्यों? इस पर गांधीजी ने उत्तर दिया कि हम मुस्लिमों के मन में आत्मीयता लाना चाहते हैं। यह उत्तर सवाल खड़े करता है कि क्या 1921 में मुस्लिम स्वयं को भारत से अलग मानते थे? जो उनमें आत्मीयता उत्पन्न करने के लिये अलग से एक नारा देने की आवश्यकता पड़ी।

खिलाफत आंदोलन क्या था और क्यों भारत में इसे असहयोग आंदोलन के नाम से चलाया गया? इसको समझना भी आवश्यक है। इस्लाम को मानने वाला एक वर्ग तुर्की के सुल्तान को खलीफा मानता था अर्थात पृथ्वी पर इस्लाम का सबसे बड़ा और पूज्यनीय व्यक्ति। तुर्की में ही इसे लेकर विरोध शुरु हो गया और मुसलमानों के एक वर्ग ने खलीफा के पद को मानने से इनकार कर दिया। ऐसे में सुल्तान समर्थकों ने इसे धार्मिक रंग देने का प्रयास किया और इस सत्ता विरोधी आंदोलन को कुचलने के लिये खिलाफत आंदोलन चलवाया। जैसा आज भी होता है कि विश्व में कहीं भी इस्लाम के विरुद्ध कुछ भी होता है तो उसकी प्रतिक्रिया भारत में भी होती है। वैसा ही उस समय भी हुआ। भारत में तुर्की के सुल्तान का समर्थक करने के लिये कुछ मुस्लिमों ने खिलाफत आंदोलन को खड़ा करने का प्रयास किया। सुल्तान का विरोध करने वालों पर आरोप यह था कि वो खलीफा विरोधी इस आंदोलन को अंग्रेजों के समर्थन से चला रहे हैं। इसलिये भारत में खिलाफत आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा हो रहा था। देश में यह आंदोलन 1918 में शुरु हुआ और इसी आंदोलन से निकले कुछ नेताओं के कारण बाद में भारत-पाकिस्तान विभाजन हुआ। कुछ मुस्लिम नेताओं को भारत के साथ जोड़े रखने के लिये उन्हें उच्च पद या अन्य महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गयी, जो बाद में तुष्टीकरण का आधार बना।

गांधी जी के जीवनीकार लुई फिशर के अनुसार ‘1919 में पहली बार गांधीजी को भी खिलाफत आंदोलन के समर्थन में होने वाले कार्यक्रम के लिये निमंत्रण मिला था।’ विदेशी कपड़ों की होली जलाने का सुझाव सर्वप्रथम इसी कार्यक्रम में आया था। इस बैठक में मौलाना अब्दुल कलाम आजाद भी उपस्थित थे। इन बैठकों के बारे में गांधी जी के जीवनीकार बी.आर. नंदा ने भी विस्तार से लिखा है। कई खलीफा ऐसे हुये जिन पर आरोप लगे कि उन्होंने हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाले, हिन्दू मंदिरों को तोड़ने वाले आक्रांताओं को गाजी का दर्जा देकर सम्मानित किया। अकबर को भी निहत्थे हिन्दू राजा को मारने के बाद ही गाजी की उपाधि मिल सकी थी और उसकी महानता का गुणगान शुरु हुआ था। ऐसे में हिन्दू, खलीफा के समर्थन में आंदोलन करेंगे, इस पर संदेह था। यही कारण है कि गांधीजी ने भारत में खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन के रूप में चलाने का निर्णय लिया।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विदेशी कपड़ों की होली जलाना (स्वदेशी का विचार) और असहयोग आंदोलन की नींव खिलाफत आंदोलन के समर्थन में पड़ी थी। खिलाफत आंदोलन और भारत का स्वतंत्रता आंदोलन दोनों ही अंग्रेजों के विरुद्ध थे। इस कारण गांधीजी को लगा कि वो इसके लिये कांग्रेस को मना लेंगे। प्रारंभ में कांग्रेस के अंदर इस पर सहमति नहीं बन सकी, लेकिन बाद में गांधीजी के लगातार प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस ने इसे अपना पूरा समर्थन और सहयोग देने का निर्णय लिया।

अधिकांश आंदोलन की रूपरेखा 1920 में बन चुकी थी। ये आंदोलन किस प्रकार भारत-पाकिस्तान विभाजन और मुस्लिम तुष्टीकरण का आधार बना, इसका उदाहरण एक वर्ष बाद ही 1921 में धार्मिक दंगों से मिलने लगा था। 1921 में केरल के अंदर मोपला के दंगे हुए। यहां खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने वाले मोपला के मुस्लिमों ने हिन्दुओं की हत्या, हिन्दू महिलाओं के साथ बलात्कार और लूटपाट जैसी घटनाओं को अंजाम दिया। उस समय सर्वेण्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की एक रिपोर्ट के अनुसार इन दंगों में लगभग 1500 हिन्दू मारे गये और 20,000 हिन्दुओं का धर्मांतरण कर दिया गया। क्योंकि यह आंदोलन पहले अंग्रेजों के विरुद्ध शुरु हुआ था और बाद में इसने हिन्दू विरोधी रुख ले लिया।

कांग्रेस और गांधीजी चाहते तो इन हिन्दू विरोधी दंगों के आरोपियों को कड़ी सजा दिलाने के लिए अंग्रेज सरकार से मांग, अनशन या आंदोलन चला सकते थे, लेकिन इन लोगों ने किया क्या? इस पर भी ध्यान देने की जरुरत है। गांधी जी ने अपने एक लेख में इन मोपला के बलात्कारी और अत्याचारी मुस्लिमों को वीर मोपला कहकर संबोधित किया था। हर जुर्म होने से पहले अपनी दस्तक देता है। गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इस दस्तक को अनसुना करते हुए दंगों को आपसी लोगों के बीच हुई हिंसक झड़प मानकर इसकी निंदा कर अपना कार्य पूर्ण मान लिया और परिणाम 1947 में भारत विभाजन के रूप में सामने आया।

उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि गांधीजी तथा कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन को जारी रखने के लिये इसे असहयोग आंदोलन के रूप में चलाया और क्रांतिकारियों के एक प्रयास को हिंसा का नाम देकर पूरा आंदोलन वापस लेने वाले गांधीजी ने हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार को तुष्टीकरण के लिये नजरअंदाज कर दिया। गांधीजी को मानने वाले नेताओं ने बाद में उनके ऐसे ही बयानों व कार्यों को आधार बनाकर अपनी राजनीति की और आज भी वो इस तुष्टीकरण को सही मानते हैं।

सन्दर्भ : भारत : 1857 से 1957 (इतिहास पर एक दृष्टि), पृष्ठ 75-79

फोटो साभार : न्यूज18

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