जयपुर. राजस्थान की अजमेर शरीफ दरगाह में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मजार है, जहां हर धर्म के लोग जियारत और अकीदत पेश करने आते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि ख्वाजा कहां से आए थे और इस दरगाह का इतिहास क्या है ? इससे पहले अजमेर पर लिखी गई एक किताब का जिक्र करते हैं, जो यहां के हिस्टोरिकल फैक्ट को बताती है। इसके चैप्टर 8 के पेज 82 से 89 तक अजमेर की ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह का इतिहास बताया गया है। इसी पुस्तक में दरगाह की जगह एक मंदिर होने की बात कही गई है। इस मंदिर में पूजा अर्चना किए जाने की भी बात लिखी गई है। ये किताब हिंदू सेवा के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता की ओर से न्यायाधीश मनमोहन चंदेल के समक्ष पेश की गई है।
क्या लिखा है किताब में ?
दरअसल, किताब में इस बात का जिक्र है कि यहां ब्राह्मण दंपती रहते थे। वे दरगाह स्थल पर बने महादेव मंदिर में पूजा-अर्चना करते थे। इसके अलावा कई अन्य तथ्य हैं, जो साबित करते हैं कि दरगाह से पहले यहां शिव मंदिर रहा था।
ये किताब इतनी चर्चा में क्यों आई और कौन हैं इस किताब के लेखक, आइये इसे जानते हैं
दरअसल, इस किताब के लेखक का नाम हरबिलास शारदा है। हरबिलास शारदा कोई आम व्यक्ति नहीं थे। वो जोधपुर हाईकोर्ट में सीनियर जज के रूप में रहे हैं। इन्होंने अपनी सेवा अजमेर मेरवाड़ा (1892) के न्यायिक विभाग में भी रहकर दी है। बड़ी बात ये है कि अजमेर में उनके नाम से हरबिलास शारदा मार्ग भी है। इन्होंने ही 1911 में इस किताब को लिखा था।
क्या है दरगाह का इतिहास ?
ऐसा माना जाता है कि सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती पैगंबर मोहम्मद साहब के अनुयायी थे। उन्हें लोग ‘ख्वाजा गरीब नवाज’ के नाम से भी पुकारते हैं। वो एक फारसी इस्लामिक स्कॉलर थे। जिनका जन्म 1 फरवरी 1143 में अफगानिस्तान के हेरात प्रांत के चिश्ती शरीफ (Chishti Sharif) में हुआ था। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती सुल्तान इल्तुतमिश के शासन में भारतीय उपमहाद्वीप में आए थे, वो अपने मानवता के उपदेशों की वजह से काफी मशहूर हुए। यही वजह है कि हर धर्म के लोग उन्हें पसंद करते थे। उन्होंने अजमेर को अपना घर बना लिया और मृत्यु तक वो यहीं रहे ।
किसने कराया दरगाह का निर्माण?
जानकारी के मुताबिक सूफी संत ख्वाजा गरीब नवाज के सम्मान में मुगल राजा हुमायूं ने इस दरगाह का निर्माण करवाया था। दरगाह के अंदर विशाल चांदी के दरवाजों की एक श्रृंखला के जरिए प्रवेश किया जा सकता है। यहां उनकी कब्र मौजूद है। संगमरमर और सोने की परत से बना, वास्तविक मकबरा चांदी की रेलिंग और संगमरमर के पत्थरों से सुरक्षित है।
अपने शासनकाल के दौरान मुगल सम्राट अकबर हर साल अजमेर की तीर्थयात्रा करते थे। उन्होंने और बादशाह शाहजहां ने दरगाह परिसर के अंदर मस्जिदें बनवाईं। 1568 और 1614 में मुगल राजा अकबर और जहांगीर ने विशाल डेग दान में दी थीं। जो अभी भी यहां पर हैं। ये दोनों डेगों का इस्तेमाल आज भी किया जाता है। इसमें चावल, घी, काजू, बादाम, चीनी और किशमिश की मदद से लंगर तैयार किया जाता है।
बादशाह अकबर पैदल आए थे दरगाह
अजमेर मे ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह है। लोग यहां अत्यंत श्रद्धा के साथ मन्नत मांगने आते हैं और मुराद पूरी होने पर ख्वाजा साहिब का शुक्राना अदा करने आते हैं। अरावली की पहाड़ियों से घिरा अजमेर बहुत ही ख़ूबसूरत जगह है। कहा जाता है कि मुगल बादशाह अकबर आगरा से 437 किमी. पैदल ही चलकर ख़्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह मे पुत्र प्राप्ति की कामना लिए आया था।
साभार : अमर उजाला
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