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स्वर्ण मंदिर को अंग्रेजों से बचाने वाले बाबा खड़क सिंह

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बाबा खड़क सिंह (1867-1963)

बाबा खड़क सिंह एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने न केवल ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष किया, बल्कि गुरुद्वारों के प्रबंधन को भ्रष्ट महंतों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अकाली आंदोलन का भी नेतृत्व किया। उनका जीवन राष्ट्रवाद, अडिग दृढ़ संकल्प और निस्वार्थ सेवा का प्रतीक था।

बाबा खड़क सिंह का जन्म 6 जून, 1867 को सियालकोट (तत्कालीन ब्रिटिश भारत, अब पाकिस्तान में) में हुआ था। वह एक धनी और प्रतिष्ठित परिवार से थे। उन्होंने लाहौर विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और बाद में इलाहाबाद लॉ कॉलेज में कानून की पढ़ाई की, हालाँकि अपने पिता की मृत्यु के कारण उन्हें पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी। उन्होंने 1912 में सियालकोट में आयोजित सिख शैक्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की।

जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) की भयावह घटना ने उन्हें राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने 1920 में लाहौर में आयोजित सेंट्रल सिख लीग के ऐतिहासिक अधिवेशन की अध्यक्षता की और सिखों को महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने का निर्देश दिया।

उन्होंने शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (SGPC) की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1921 में इसके पहले अध्यक्ष चुने गए। एसजीपीसी की स्थापना का उद्देश्य ऐतिहासिक गुरुद्वारों का प्रबंधन सरकार द्वारा नियुक्त भ्रष्ट महंतों से वापस लेकर सिख समुदाय को सौंपना था।

चाबियों का मोर्चा (Keys Morcha)

यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उनके नेतृत्व में चलाए गए सबसे सफल आंदोलनों में से एक था। नवंबर 1921 में, अमृतसर के ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर ने स्वर्ण मंदिर (हरमंदिर साहिब) की तोशाखाना (Treasury) की चाबियाँ ज़ब्त कर ली थीं। बाबा खड़क सिंह ने चाबियाँ वापस लेने के लिए एक ज़ोरदार आंदोलन (चाबियों का मोर्चा) शुरू किया। ब्रिटिश सरकार के दबाव और धमकियों के बावजूद वे झुके नहीं।

इस आंदोलन की व्यापकता और दृढ़ता के सामने ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा। सरकार ने बाबा खड़क सिंह को चाबियाँ सौंपने की पेशकश की, लेकिन उन्होंने चाबियों को एक मजिस्ट्रेट के माध्यम से स्वीकार करने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि वह चाबियों को तभी स्वीकार करेंगे जब उन्हें गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के निर्वाचित सदस्य को सार्वजनिक रूप से सौंपा जाएगा। अंततः, सरकार को सार्वजनिक रूप से चाबियाँ सौंपनी पड़ीं। महात्मा गांधी ने इस जीत को “भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में पहली निर्णायक जीत” कहा था।

बाबा खड़क सिंह ने 1928 में साइमन कमीशन के लाहौर दौरे के दौरान एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया था। उन्होंने नेहरू रिपोर्ट (1928) का तब तक पुरज़ोर विरोध किया जब तक कांग्रेस पार्टी ने भविष्य के संवैधानिक प्रस्तावों में सिखों की सहमति सुनिश्चित करने के लिए कार्रवाई नहीं की। बाबा खड़क सिंह इतने राष्ट्रवादी थे कि उन्होंने कांग्रेस ध्वज के नीचे तब तक लड़ने से इनकार कर दिया जब तक उसमें सिख रंग (केसरी या केसरिया) को शामिल नहीं किया गया, यह दर्शाता है कि सिख समुदाय का संघर्ष भारतीय राष्ट्रीय मुख्यधारा का अभिन्न अंग है।

बाबा खड़क सिंह ने ब्रिटिश शासन के दौरान अपने जीवन के कई वर्ष जेल में बिताए, लेकिन उनकी इच्छाशक्ति कभी नहीं टूटी। जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें “दृढ़ता का एक स्तंभ” बताया था। भारत की राजधानी नई दिल्ली में कनॉट प्लेस की एक प्रमुख सड़क का नाम उनके सम्मान में “बाबा खड़क सिंह मार्ग” रखा गया है, जो राष्ट्र निर्माण में उनके अमूल्य योगदान को याद दिलाता है। उनका निधन 6 अक्टूबर, 1963 को 95 वर्ष की आयु में हुआ।

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