गुरुग्राम (मा.स.स.). भारतीय संस्कृति में गुरु या शिक्षक को ऐसे प्रकाश के स्रोत के रूप में ग्रहण किया गया है, जो ज्ञान की दीप्ति से अज्ञान के आवरण को दूर कर जीवन को सही मार्ग पर ले चलता है। इसीलिए उसका स्थान सर्वोपरि होता है। उसे साक्षात परब्रह्म तक कहा गया है। आज भी सामाजिक, आध्यात्मिक और निजी जीवन में बहुत सारे लोग किसी न किसी गुरु से जुड़े मिलते हैं। यह बात दि योगक्षेम महिला उत्कर्ष सेवा कोऑपरेटिव मल्टीपर्पज सोसायटी लिमिटेड की उपाध्यक्षा एवं उत्कर्ष प्रयास स्कूल की संस्थापिका स्वर्णलता पाण्डेय (पूजाजी) ने आज गुरुग्राम में सेक्टर-47 और झारसा गाँव में उत्कर्ष प्रयास स्कूल द्वारा स्थापित दो स्कूलों में आयोजित राष्ट्रीय शिक्षक दिवस के अवसर पर अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर पूजाजी ने कहा कि भारत की शिक्षण संस्थानों को भविष्य के लिए तैयार करने की जरूरत पर बल देते हुए पूजाजी ने कहा कि अगर देश भविष्य की अनिश्चितताओ से बचने के लिए कदम उठाता है तो वह अपनी समृद्ध आबादी का फायदा उठा सकता हैं। आज भारत के पास युवाधन एवं प्रतिभाशाली लोगों की खान हैं, जिसका पूरी तरह से इस्तेमाल किया जाना अभी बाकी हैं। आगे उन्होंने कहा कि हमें शिक्षण संस्थानों को भविष्य के लिए तैयार करने में नए शिक्षण अभिगम, मैट्रिक्स, शिक्षाशात्र और भविष्योन्मुखी विषय वस्तु की आवश्यकता होगी और मुझे विश्वास है कि अपने प्रसिद्ध भारतीय प्रौधोगिकी संस्थानों की मदद से हम अपनी नई पीढ़ियों को जरूरी ज्ञान आधार और सही कौशल के साथ चुनोतियों का सामना करने के लिए तैयार कर सकेंगे।
आगे उन्होंने कहा कि गुरु से प्रेरणा पाने और उनके आशीर्वाद से मनोरथों की पूर्ति की कामना एक आम बात है। शिक्षा के औपचारिक क्षेत्र में गुरु या शिक्षक एक अनिवार्य कड़ी है, जिसके अभाव में ज्ञान का अर्जन, सृजन और विस्तार संभव नहीं है। भारत में शिक्षक दिवस डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की स्मृति को जीवंत करता है। वह एक महान अध्यापक और राजनयिक थे। उन्होंने अपने अध्यवसाय के बल पर देश-विदेश में दार्शनिक के रूप में ख्याति अर्जित की और राष्ट्रपति के शीर्ष पद को सुशोभित किया। वह आज भी वैदुष्य की दृष्टि से प्रेरणा-स्रोत हैं।
भारतीय समाज की स्मृति में धौम्य-उद्दालक, चाणक्य- चंद्रगुप्त,समर्थगुरु रामदास-शिवाजी महाराज और रामकृष्ण परमहंस -विवेकानंद जैसी गुरु-शिष्य की जोड़ियां प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने देश काल की धारा बदल दी। यह सूची बड़ी लंबी है। तब गुरु निश्छल, प्रपंचों से दूर और वीतराग तपस्वी हुआ करते थे। गुरु की संस्था समाज का दायित्व थी और गुरु स्वतंत्र रहता था। उसका कार्य चिंतन, मनन और लोक- कल्याण के लिए अपनी साधना से ज्ञान को उपलब्ध कराना था। समय बीतने के साथ शिक्षण और दीक्षा के स्वरूप और गरिमा में बदलाव आता गया। शैक्षिक संस्थाओं के सरकारीकरण और फिर निजीकरण के साथ शिक्षा जगत पर बाजार का असर शुरू हुआ।
शिक्षा व्यापार का रूप लेने लगी और विद्यार्थी अंतत: धनार्थी बनता गया। इसमें शिक्षक की प्रवृत्ति भी बदलने लगी और ज्ञान अर्जित करने की जगह वह कमाई करने लगा। सच्चाई यह है कि शिक्षक सिर्फ पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन से ताल्लुक रखते हैं, नीति-निर्माण के हिस्सेदार नहीं होते हैं। वर्तमान परिवेश और चुनौतियों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। शिक्षक और विद्यार्थी की अंत:क्रिया अब सूचना प्रौद्योगिकी से अनिवार्य रूप से प्रभावित हो रही है। इस बदलाव के साथ समायोजन करना पड़ेगा और शिक्षक को अपने कौशलों को समृद्ध करना होगा।
अध्यापक-शिक्षा किसी भी शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ होती है। इसकी गुणवत्ता को लेकर आज अभिभावकों में व्यापक असंतोष व्याप्त है। आज देश को विश्व गुरु बनाने की अभिलाषा व्यक्त की जाती है। इस उद्देश्य के लिए समर्पित शिक्षक चाहिए, जो अपने आचरण से प्रेरित करें और आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लिए आवश्यक मूल्यबोध और सृजनात्मक प्रवृत्ति वाले हों। इसी श्रंखला में आज स्कूल के बच्चें-बच्चियों ने अपनी गुरु समान शिक्षिकाओं को अपने हाथों से कागज पर चित्रकारी करके शुभकामनाएं संदेश देते हुए कार्ड बनाकर भेंट किया था और विविध प्रकार के कागज के बनाये हुए कार्ड को प्रदर्शित किया था।
इस कार्यक्रम में दोनों स्कूलों की शिक्षिकाएं शांति गुप्ता, अंजना मोहता, आशा सिंह, विद्यार्थियों और उनके अभिभावक साथ साथ झारसा गाँव के समाजसेवी नागरिकों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया।
साभार : मिहिरकुमार शिकारी
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