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1857 का स्वतंत्रता संग्राम और उसके पीछे के कारण

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जब हम 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बात करते हैं, तो सबसे पहले मंगल पाण्डेय और अंग्रेजों की सेना में कार्य कर रहे भारतीय सैनिकों का संघर्ष हमारे ध्यान में आता है। किन्तु इसके पीछे के दो प्रमुख कारणों की तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। कई इतिहासकारों ने इनके बारे में भी लिखा है, लेकिन कुछ कारणों से इनकी चर्चा कम होती है या इस संदर्भ में नहीं होती है। इसमें पहला कारण था लार्ड वेलेजली की सहायक संधि। इस संधि पर सबसे पहले 1778 में हैदराबाद के निजाम ने हस्ताक्षर किये थे, इसके बाद 1801 में अवध के नवाब ने संधि पर अपनी सहमति दी थी। इससे उत्साहित अंग्रेजों ने बाद में अन्य कई शासकों को संधि के लिए मजबूर कर दिया। उनकी इस संधि के दायरे में भारत का एक बड़ा भूभाग आ गया। रही बची कसर लार्ड डलहौजी के व्यपगत के सिद्धांत ने पूरी कर दी। इस सिद्धांत के आधार पर अंग्रेजों ने उन शासकों को अपना निशाना बनाया जिनकी कोई संतान उत्तराधिकारी के लिए नहीं थी।

यदि सहायक संधि की बात करें, तो इसके अनुसार भारतीय शासकों को अपने सशस्त्र बलों को भंग करना पड़ेगा। अर्थात वो पूरी तरह से सुरक्षा के लिए अंग्रेज सरकार पर निर्भर होंगे। इस सुरक्षा के लिए भारतीय शासकों को अंग्रेजों को भारी-भरकम रकम चुकानी होगी। ऐसा न कर पाने की स्थिति में अंग्रेज उस रियासत का कुछ भाग हथिया लेते थे। यह बहुत हद तक आज के माफियाओं द्वारा पैसा लेकर सुरक्षा का वादा करने जैसा ही था। भारतीय शासक इस संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद न तो किसी अन्य से कोई दूसरी संधि कर सकते थे और न ही राजनीतिक संपर्क तक बना सकते थे। अंग्रेजों ने वादा तो किया था कि वो सहायक संधि होने के बाद किसी रियासत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन उपरोक्त नियमों का हवाला देते हुए अंग्रेज हस्तक्षेप करने का कोई न कोई कारण खोज ही लेते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के कई हिस्सों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया।

अंग्रेज सहायक संधि की सफलता से बहुत उत्साहित थे और अब वो इसी प्रकार के षड्यंत्रों की सहायता से भारत के और भूभागों पर अपना अधिकार जमाना चाहते थे, इसलिए 1848 में व्यपगत का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया। इसे सीधे शब्दों में समझे तो जिस भी राजा के कोई संतान नहीं होगी, वह राज्य अंग्रेजों के आधीन हो जायेगा। डलहौजी के इस सिद्धांत ने अंग्रेजों को भारत में सत्ता विस्तार करने के कई अवसर प्रदान किये। इस सिद्धांत का सबसे पहला शिकार 1848 में सतारा रियासत बनी। इसके बाद यह क्रम 1856 तक चलता रहा। इन 2 संधियों के कारण देश के कई हिन्दू और मुस्लिम शासक अंग्रेजों से परेशान थे। उनमें से कई ने एक साथ आकर अंग्रेजों से मुकाबला करने का निर्णय लिया। अभी इनकी योजना बन ही रही थी कि अंग्रेजों के कारतूस में गाय और सूअर का मांस होने की खबर चारों ओर फैल गई, इससे अंग्रेजों की सेना में कार्यरत हिन्दू और मुस्लिमों दोनों में भारी रोष था। अभी तक अंग्रेज इसी सेना के बल पर भारतीय शासकों को डराते थे, इसलिए भारतीय शासकों को लगा कि यही अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलने का सही समय है।

1857 का स्वतंत्रता संग्राम योजना के अनुसार नहीं हो सका, मंगल पाण्डेय के उतावलेपन के कारण इसे थोड़ा पहले शुरू करना पड़ा, किन्तु कुछ इतिहासकारों ने इस आंदोलन को सिर्फ सैनिक विद्रोह से जोड़ा है, यह भी गलत है। सैनिक आंदोलन के साथ ही तत्कालीन योद्धाओं ने भी अंग्रेजों से जगह-जगह मोर्चा लिया था।

 

बाबू कुंवर सिंह

इतिहास में इनमें से कुछ नामों का उल्लेख मिलता है। ऐसा ही एक नाम है बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे बाबू कुंवर सिंह का। उनका जन्म 1777 में हुआ था, इस अनुसार 1857 में उनकी आयु 80 वर्ष थी। इसके बाद भी जिस वीरता के साथ उन्होंने अंग्रेजों से मुकाबला किया, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी कम है। यहां एक बात और है, जिस पर हमें ध्यान देना चाहिए। 1857 से पहले तक बाबू कुंवर सिंह के अंग्रेज अधिकारियों से अच्छे संबंध थे, लेकिन जब बात भारत की स्वतंत्रता की आई, तो इस देश के लाल ने कुछ विचार नहीं किया। 27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, बिहार के अन्य जवानों व अपने कुछ साथियों को साथ लेकर इनके द्वारा आरा नगर पर अधिकार स्थापित कर लिया गया। उनके द्वारा आरा जेल से कैदियों को स्वतंत्र कर दिया गया और अंग्रेजों के खजाने पर भी कुंवर सिंह का कब्जा हो गया। इससे उत्साहित बाबू कुंवर सिंह ने बीबीगंज में अंग्रेजों के खिलाफ 2 अगस्त 1857 को मोर्चा खोल दिया। इसके बाद अंग्रेजों से उनका बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में भीषण संघर्ष हुआ।

सितंबर 1857 में कुंवर सिंह की भेंट नानासाहब से हुई। यह वह समय था जब कुंवर सिंह बिहार से होते हुए उत्तर प्रदेश पहुंचे थे। यहां वो रामगढ़ के सिपाहियों के साथ बाँदा, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर व गोरखपुर में लोगों के बीच जनजाग्रति का संचार कर रहे थे। लेकिन यहां भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया, तात्या टोपे की हार के बाद उन्होंने बिहार वापस लौटने का निर्णय लिया। जब वे बिहार के जगदीशपुर की ओर वापस लौटने के लिए नदी पार कर रहे थे, तो एक अंग्रेज की गोली उनके हाथ में लग गई। इस गोली के कारण शरीर के अन्य भागों में असर न हो जाये, इसलिए इस वीर नायक ने अपने हाथ का वो भाग ही काट कर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहां अंग्रेजों से उनके संघर्ष में वो विजयी रहे लेकिन इस घायल अवस्था ने उन्हें बहुत कमजोर कर दिया। वो किसी तरह 23 अप्रैल 1858 को वापस बिहार तो पहुंच गए, लेकिन 26 अप्रैल 1858 को उनकी मृत्यु हो गई।

 

रानी लक्ष्मीबाई

कहा जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई एक मर्दानी की तरह अंग्रेजों से 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में लड़ी थीं। यह बोलने वाले लोगों के भाव का मैं सम्मान करता हूं, लेकिन यदि हम कहें कि लक्ष्मीबाई देवी दुर्गा और देवी काली की तरह लड़ी, तो मुझे लगता है कि यह और भी उपयुक्त होगा। उन्होंने हर उस शौर्य का परिचय दिया जो किसी योद्धा की पहचान होता है। उनको इसके संस्कार तो बचपन में ही मिल गए थे। मणिकर्णिका या मनु जो बाद में लक्ष्मीबाई बनी, उनका जन्म 19 नवम्बर 1828 को वाराणसी में हुआ था। उनके पिता वीर मराठा बाजीराव द्वितीय के दरबार में कार्यरत थे। उनकी माता भागीरथीबाई धर्मनिष्ठ महिला थीं। इसलिए माता-पिता ने मनु को भी बचपन से शास्त्रों के साथ शस्त्रों की शिक्षा दी। हमारे यहां महिलाओं को विदुषी बनाने का प्रचलन हमेशा से रहा है।

बीच के कुछ कालखंड को छोड़ दे तो हिन्दू समाज में महिलाओं को भी वही स्थान प्राप्त रहा है, जो पुरुषों को मिला। यह अलग बात है कि महिलाओं और पुरुषों ने आपसी समझ से अपने-अपने काम बांट लिए। इसका उदाहरण मनु के जीवन से भी हमें मिलता है। बचपन से स्वभाव में चंचल मनु को उनके पिता दरबार भी ले जाते थे, यहां उन्हें उनकी चंचलता के कारण एक और नाम मिला ‘छबीली’। किन्तु ऐसा नहीं था कि मनु की चंचलता ने उनकी प्रतिभा को प्रभावित किया हो। इसी का परिणाम था कि 1842 में उनका विवाह झांसी के मराठा शासक राजा गंगाधर राव नेवालकर से हुआ और वो रानी लक्ष्मीबाई बन गई। लेकिन इसके बाद उनके जीवन का अच्छा समय शुरू होने के स्थान पर चुनौतियों की श्रृंखला शुरू हो गई । विवाह के उपरांत प्रारंभ के कुछ वर्ष का समय सुखद गुजरा। उसके बाद उन्होंने 1851 में एक पुत्र को जन्म दिया, किन्तु मात्र 4 माह की आयु में ही उसका देहांत हो गया। इसके लगभग 2 वर्ष बाद उनके पति गंगाधर राव गंभीर रूप से बीमार हो गए। उनको वंश आगे चलाने के लिए पुत्र गोद लेने की सलाह दी गयी, जिसे उन्होंने मान लिया। इससे पहले कि गंगाधर राव अपने पुत्र दामोदर को ठीक से तैयार कर पाते, उनका निधन 21 नवम्बर 1853 को हो गया।

अंग्रेजों ने उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इनकार करते हुए साजिश रच कर रानी लक्ष्मीबाई को झांसी का किला छोड़कर रानीमहल जाने के लिए विवश कर दिया। इस अत्याचार से लक्ष्मीबाई कमजोर नहीं हुईं, बल्कि उन्होंने इसका प्रतिशोध लेने का निर्णय लिया। 1857 के पहले स्वतंत्रता समर में इसी कारण झांसी भी क्रांति का एक प्रमुख केंद्र था। चंचल मनु को अब समय ने एक गंभीर योद्धा बना दिया था। एक ऐसी वीरांगना, जिसने प्रण लिया था कि वो अपनी झांसी किसी भी कीमत पर अंग्रेजों को नहीं देगीं। अंग्रेजों की सेना से मुकाबला करने के लिए उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं को भी प्रशिक्षण दिया। संभव था कि वो जौहर के स्थान पर रणभूमि में बलिदान होने को उस समय अधिक उपयुक्त समझती होंगी, क्योंकि वो स्वयं भी तो एक महिला थीं, जो अंग्रेजों से अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही थीं। उनके लिए समस्या सिर्फ अंग्रेज ही नहीं थे, पड़ोसी राज्य भी इस मुश्किल घड़ी में साथ देने की जगह साम्राज्य हड़पने में अधिक रूचि रखते थे। ओरछा और दतिया के राजाओं ने लक्ष्मीबाई को अबला और असहाय मानकर झांसी पर सितम्बर और अक्टूबर 1857 के दौरान आक्रमण कर दिया। बड़ी ही वीरता के साथ इस वीरांगना ने उनके हमलों को नाकाम कर दिया। जनवरी 1858 में अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण के लिए आगे बढ़ना शुरू किया और मार्च में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। रानी लक्ष्मीबाई की सेना अपेक्षाकृत कम थी। ऐसे में वो अपने पुत्र दामोदर को लेकर बचे हुए सैनिकों के साथ कालपी के लिए निकल गई। यहां उन्हें तात्या टोपे का साथ मिला। दोनों सेनाओं ने संयुक्त रूप से ग्वालियर के एक किले पर हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया। जून 1858 में अंग्रेज जनरल ह्यूरोज ने लक्ष्मीबाई से आत्मसमर्पण करने के लिए कहा, लेकिन रानी को अपनी स्वतंत्रता प्यारी थी। उन्होंने आत्मसमर्पण के स्थान पर संघर्ष का रास्ता चुना। 18 जून 1858 में जनरल ह्यूरोज ने लक्ष्मीबाई को चारों ओर से घेर लिया।

रानी लक्ष्मीबाई लड़ते-लड़ते बुरी तरह से घायल हो चुकी थीं। ऐसे में रामबाग तिराहे से नौगजा रोड की तरफ बढ़ते समय अपने घोड़े के नदी पार ना कर पाने के कारण वो आगे नहीं बढ़ सकी। उनकी मृत्यु हो गई। कोई व्यक्ति कितना वीर है, यह बात जाननी है, तो उसके विरोधियों से उनके बारे में जानना चाहिए। अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई को रोकने की जिम्मेदारी जनरल ह्यूरोज को दी थी। इस अंग्रेज अधिकारी ने स्वयं अपनी ऑफिसियल डायरी में रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और रणकौशल को सैल्यूट किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसने भी माना कि वीरता के मामले में रानी लक्ष्मीबाई हार कर भी जीत गईं।

 

झलकारी बाई

झांसी की प्रमुख बात यह थी कि यहां रणभूमि में पुरुषों के साथ ही हर मोर्चे पर महिलाएं बढ़-चढ़ कर भाग ले रही थीं। वैसे तो रानी लक्ष्मीबाई की सेना में बहुत सी वीरांगनाएं थीं, लेकिन उनमें से एक झलकारी बाई के बारे में बात करना अत्यंत आवश्यक है। मेरा मानना है कि उनके बिना रानी लक्ष्मीबाई का वर्णन अधूरा रहेगा। झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को झांसी के निकट भोजला गांव में एक साधारण कोली परिवार में हुआ था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं, तभी उनकी मां जमुना देवी का देहांत हो गया था। उनके पिता सदोवर सिंह ने कभी भी झलकारी बाई को लड़कों से कम नहीं माना। इसी का परिणाम था कि झलकारी बाई को वो सब कुछ करने को मिला, जो उस समय लड़के कर सकते थे।

झलकारी बाई को घुड़सवारी और हथियारों का प्रशिक्षण दिया गया। उस समय तक समाज में लड़कियों को अधिक छूट न देने की भावना आ गई थी, इसलिए झलकारी बाई को उनके पिता शिक्षा तो नहीं दिला सके, लेकिन उन्होंने उन्हें अपनी तरह एक बहुत अच्छा योद्धा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। झलकारी बाई की वीरता को समझने के लिए उनके जीवन की दो घटनाओं को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। एक बार जब वो अपने घर के लिए लकड़ियाँ एकत्रित करने जंगल में गई थीं, तो वहां उनका मुकाबला एक तेंदुए से हो गया, उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से तेंदुए को मार गिराया। इसी प्रकार जब गांव के व्यापारी के घर पर डकैतों ने हमला कर दिया, तो झलकारी बाई ने इन डकैतों से लोहा लेकर उनको भागने पर विवश कर दिया। हमारे गरीब पूर्वज भी बेटियों को किस प्रकार रखते थे, यह उसका अनुपम उदाहरण था।

झलकारी बाई के ऐसे ही किस्सों से प्रभावित गांव वालों की सहायता से उनका विवाह झांसी की सेना के महान सिपाही पूरन कोरी से करवा दिया गया। झलकारी बाई एक बार जब झांसी के महल में गईं तो लक्ष्मीबाई की नजर उन पर पड़ी, वो दोनों लगभग एक जैसी ही लगती थीं। लक्ष्मीबाई ने जब उनके बारे में पता किया, तो वो भी उनकी बहादुरी से बहुत अधिक प्रभावित हुईं और उन्होंने झलकारी बाई को अपनी महिला सेना में शामिल कर लिया। यहां झलकारी बाई ने तलवारबाजी के साथ ही बंदूक और तोप चलाना भी सीखा। झलकारी बाई बचपन से ही एक योद्धा थीं, इसलिए उन्हें यह सब सीखने में अधिक समय नहीं लगा। इसी का परिणाम था कि लक्ष्मीबाई ने उन्हें अपनी महिला सेना ‘दुर्गा’ का सेनापति बना दिया। देवी चंडी की तरह ही दोनों वीरांगनाओं ने कई युद्ध मिलकर जीते। झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई की मदद के लिए पूरे झाँसी दुर्ग को अभेद्य बना दिया था, लेकिन रानी के एक सेनानायक ने धोखा दे दिया और अंग्रेजों के लिए किले का एक दरवाजा खोल दिया।

अभेद्य लगने वाले किले में अब दुश्मन घुस चुका था। यदि यह विश्वासघात न हुआ होता, तो अंग्रेजों को वो सबक मिलता, जिसे उनके लिए भूल पाना कभी भी संभव न होता। जब दुश्मन ने किले में प्रवेश कर लिया, तो झलकारी बाई के पति पूरन सहित अन्य सभी सैनिकों ने मोर्चा संभाल लिया, लेकिन दुश्मन की संख्या अधिक थी। पूरन सिंह ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण दे दिए। ऐसे में जब हार निश्चित हो गई, तो झलकारी बाई ने लक्ष्मीबाई को किला छोड़कर सुरक्षित स्थान पर जाने का अनुरोध किया। बहुत समझाने पर लक्ष्मीबाई अपने कुछ विश्वासपात्र सैनिकों को लेकर निकलने के लिए तैयार हो गईं। झलकारी बाई ने उनकी वेशभूषा धारण कर ली, क्योंकि झलकारी बाई दिखने में भी लक्ष्मीबाई की तरह ही थीं और युद्ध कौशल में भी श्रेष्ठ, इसलिए अंग्रेज सेना को धोखा हो गया। पति की मृत्यु का शोक मनाने के स्थान पर यह वीरांगना अंग्रेज सेना के नरमुंडों को काटती चली जा रही थी। इस कारण रानी लक्ष्मीबाई अपेक्षाकृत आसानी से दुर्ग छोड़कर निकलने में सफल रही। वीरता के साथ लड़ते-लड़ते झलकारी बाई 4 अप्रैल 1857 को हुए इस हमले में वीरगति को प्राप्त हुईं। उस समय उनकी आयु 27 वर्ष भी नहीं थी।

झलकारी बाई की तरह ही पूरी दुर्गा सेना देवी दुर्गा की तरह काल बनकर अंग्रेजों से लड़ी। दुर्गा सेना की अन्य वीरांगनाओं में से कुछ के नाम मंदर, सुंदर बाई, मुंदरी बाई और मोती बाई आदि हैं, लेकिन इनके बारे में अधिक जानकारी इतिहास में नहीं मिलती है।

नानासाहब पेशवा

नानासाहब का जन्म सन 1824 को महाराष्ट्र में माधवनारायण के घर हुआ था। उनके बचपन का नाम नानाराव धोंडूपंत था। पेशवा बाजीराव द्वितीय की कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने नानासाहब को गोद ले लिया था। बाजीराव द्वितीय ने नानासाहब को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दिलायी और उन्हें एक वीर योद्धा बनाया। नानासाहब कई भाषाओं के जानकार भी थे। 28 जनवरी 1851 को पेशवा का देहांत हो गया। अंग्रेजों ने नानासाहब को अपने पिता की संपत्ति का अधिकारी तो माना, लेकिन उत्तराधिकारी न मानते हुए पेशवा की उपाधि का प्रयोग करने से मना कर दिया। इस समय नानासाहब महाराष्ट्र से निकलकर कानपुर, उत्तर प्रदेश के बिठूर (ब्रह्मावर्त) नामक स्थान पर आ चुके थे। नानासाहब ने उनके पिता के समय से चली आ रही अंग्रेजों से मिल रही पेशवाई की पेंशन शुरू करवाने का प्रयास किया, क्योंकि पिता की संपत्ति से वे अपने खर्चे तो निकाल सकते थे, लेकिन अपनी प्रजा को सहयोग नहीं कर सकते थे। अंग्रेजों का राज्य पर पूर्ण नियंत्रण होने के बाद वो यहां की जनता पर और खुलकर अत्याचार करते, इसे भी नानासाहब समझ चुके थे।

अंग्रेजों ने उन्हें पेशवा मानने से ही इनकार कर दिया था, इसलिए उनको पेंशन देने का अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद नानासाहब ने अपने प्रतिनिधि के माध्यम से ब्रिटेन की महारानी तक भी अपनी बात पहुंचाई, लेकिन अंग्रेज उनका राज्य हड़पने की पूरी योजना बना चुके थे, इसलिए नानासाहब के पास अंग्रेजों से सीधे संघर्ष के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। यह सभी प्रयास करते-करते 1857 आ गया। नानासाहब बिठूर से बाहर निकले और उन्होंने कालपी, लखनऊ व दिल्ली का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने क्रांतिकारियों की एक टुकड़ी भी तैयार कर ली थी। यह टुकड़ी छापामार युद्ध को प्राथमिकता देती थी। जब मेरठ से स्वतंत्रता आंदोलन का बिगुल बजा, तो उनके कई  क्रांतिकारी साथी दिल्ली पर धावा बोलना चाहते थे, लेकिन नानासाहब ने उन्हें रोक दिया। संभवतः नानासाहब चाहते थे कि वो सभी जिस भू क्षेत्र पर हैं, उसे सबसे पहले स्वतंत्र कराएं। उन्होंने योजना बनाकर शस्त्रागार पर अधिकार कर लिया और स्वयं को पेशवा भी घोषित कर दिया।

अंग्रेज जान बचाकर प्रयागराज (इलाहबाद) भागना चाहते थे । अंग्रेजों के साथ परिवार थे, इसलिए नानासाहब ने इसकी अनुमति दे दी। लेकिन अंग्रेज जनरल टू व्हीलर और नानासाहब का यह समझौता पूरा नहीं हो सका। 27 जून 1857 को सत्तीचौरा घाट पर नांव से इन परिवारों के साथ जा रहे अंग्रेजों और कुछ क्रांतिकारियों के बीच संघर्ष हो गया, जिसमें अंग्रेजों के कई परिवार वाले भी मारे गए। ऐसा विवरण मिलता है कि क्रांतिकारियों की मौजूदगी देख अंग्रेजों ने फायरिंग कर दी, जिसमें कई क्रांतिकारी बुरी तरह से घायल हो गए, जिसका उत्तर इन क्रांतिकारियों ने भी दिया और यह दुखद घटना हो गई। इसे दुखद इसलिए कहा जाना चाहिए क्योंकि  क्रांतिकारी कभी नहीं चाहते थे कि निर्दोष महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को कोई नुकसान हो। कुछ इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेज जहां पर भी सशक्त होते थे, वो बड़ी ही निर्दयता से कत्लेआम करते थे। ऐसा ही मंजर देख चुके कुछ  क्रांतिकारी जो उस समय कानपुर में उपस्थित थे, वो नानासाहब के अंग्रेजों को निकलने के लिए सुरक्षित मार्ग देने से सहमत नहीं थे। इसी कारण इन लोगों ने निशाना तो अंग्रेज अधिकारियों को ही बनाया था, लेकिन नाव में उनके परिवार भी थे, इनमें से कई डर के कारण नदी में कूद गए, जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गई, कुछ को इस गोलीबारी में गोली भी लगी। नानासाहब को जब इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने तुरंत सहायता करने का निर्णय लिया और वो जितने परिवारों को बचा सकते थे, उन्हें बचाया गया। किसी भी क्रांतिकारी के द्वारा इस बचाव कार्य को रोकने के प्रयास का विवरण नहीं मिलता है, इससे भी स्पष्ट होता है कि इन देशभक्तों के निशाने पर कौन था?

अंग्रेजों के पास इस बात के कोई प्रमाण नहीं थे कि ये हत्याएं नानासाहब के कहने पर की गईं, इसके बाद भी बदले में अंग्रेजों ने क्या किया? यह भी ध्यान देना चाहिए। नाराज जनरल हैवलॉक ने 19 जुलाई 1857 को बिठूर पर कब्ज़ा करते हुए घाटों और मंदिरों को आग लगा दी। अंग्रेजों ने नानासाहब की 14 वर्षीय बेटी मैनावती को भी जलाकर मार दिया। आज भी उनकी याद में कानपुर की एक सड़क का नाम मैनावती मार्ग है। अंग्रेज जहां से भी गुजरे उन्होंने कत्लेआम किया। पुरुषों के साथ ही महिलाओं और बच्चों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। लगभग 25,000 निर्दोष लोगों का निर्दयता से नरसंहार हुआ। नानासाहब अंग्रेजों के द्वारा ईनाम रखे जाने के बाद भी नहीं पकड़ में आये। वो अंग्रेजों से बचते-बचाते नेपाल आ गए। 1970 के दशक में नानासाहब के पोते केशवलाल मेहता के घर से प्राप्त दस्तावेजों में दो पत्र प्राप्त हुए, जिनमें नानासाहब के हस्ताक्षर थे। इनमें से एक उन्होंने कल्याणजी मेहता को लिखा था। कल्याणजी मेहता के अनुसार नानासाहब गुजरात भी आये थे और उनकी मृत्यु 1903 में हुई थी। यद्यपि नानासाहब के निधन पर कई बाते समय-समय पर सामने आती रही हैं, कुछ जगह उंनके 1926 तक जीवित होने का दावा भी किया जाता रहा है।

 

महारानी तपस्विनी

महारानी तपस्विनी का जन्म 1842 में हुआ था। वो महारानी लक्ष्मीबाई की भतीजी और बेलुरु के जमींदार नारायण राव की बेटी थीं। उनके बचपन का नाम सुनंदा था। बचपन में ही उनके पति की मृत्यु हो गई थी। उसके बाद उन्होंने अपना ध्यान ईश्वर की पूजा में लगा लिया था, लेकिन साथ ही वो शस्त्रों का अभ्यास भी नियमित रूप से करती थीं। अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त उनका सारा कार्यभार महारानी तपस्विनी ने ही संभाला था। वीरता के साथ ही ईश्वर के प्रति समर्पण ने उन्हें माता जी के नाम से प्रसिद्ध कर दिया था। जब रानी लक्ष्मीबाई ने स्वतंत्रता का बिगुल फूंका, तो महारानी तपस्विनी भी सक्रिय होकर अंग्रेजों से लोहा लेने लगी। 1857 की क्रांति के असफल हो जाने के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तिरुचिरापल्ली की जेल में रखा गया था। यहां उन्होंने अपने आध्यात्म ज्ञान से ऐसे अलौकिक वातावरण का निर्माण किया कि सभी उन्हें एक सन्यासिन की तरह ही देखने लगे। बाल विधवा होने के कारण उनका अधिकांश समय बचपन से ही चंडी पाठ और धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में ही व्यतीत होता था।

अपने कारावास के समय उन्होंने इसी ज्ञान की वर्षा की। सभी उनकी सन्यासी प्रवृत्ति को देखकर उन्हें माता तपस्विनी बुलाने लगे। वो किसी सन्यासिनी की तरह ही धार्मिक प्रवचन भी देती थीं। इसी कारण अंग्रेजों ने तपस्विनी को कुछ समय बाद रिहा कर दिया। यहां से निकलने के बाद उन्होंने दो कार्य किये। पहला संस्कृत और योग की शिक्षा प्राप्त की और दूसरा वो भी नानासाहब पेशवा की तरह ही नेपाल चली गईं। किन्तु जिसके मन में देशभक्ति भरी हो, वो कहीं भी रहे उसे चिंता अपनी मातृभूमि की ही रहती है। यहां उन्होंने नेपाल के शासकों की सहायता से नाम बदलकर क्रांतिकारियों के लिए गोला-बारूद बनाना शुरू कर दिया। धन के प्रलोभन में आकर एक व्यक्ति ने माताजी के बारे में सभी जानकारी अंग्रेजों को दे दी। इस कारण उन्हें नेपाल छोड़ना पड़ा। वो कोलकाता आ गईं। यहां उन्होंने ‘महाकाली पाठशाला’ खोलकर बालिकाओं को देश के लिए तैयार करने का कार्य शुरू कर दिया। उनके इसी कार्य से प्रभावित होकर 1902 में बाल गंगाधर तिलक ने कोलकाता में माताजी से भेंट की थी। तिलक के संपर्क में आने के बाद 1905 में माताजी ने बंग-भंग के विरुद्ध आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई। 1907 में कोलकाता में ही माताजी ने अंतिम सांस ली।

 

तात्या टोपे

नानासाहब की बात बिना तात्या टोपे के अधूरी है। नासिक के निकट एक गांव में 1814 को जन्मे तात्या के बचपन का नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था। उन्हें प्यार से तात्या भी कहा जाता था। तात्या के पिता बाजीराव द्वितीय के यहां कर्मचारी थे, लेकिन तात्या ने प्रारंभ में अंग्रेजों के तोपखाना रेजीमेंट में काम किया था। इसके बाद उनकी देशभक्ति ने उनसे यह कार्य छुड़वा दिया और वो भी बाजीराव द्वितीय के पास वापस आकर नौकरी करने लगे। रामचंद्र पांडुरंग राव तात्या टोपे कैसे बने, इसके पीछे का एक कारण यह मिलता है कि पेशवा के द्वारा उन्हें एक टोपी दी गई थी, जिसे वे अपना सम्मान मानते थे, इसीलिए उनका नाम तात्या टोपे पड़ा। बाद में वो भी नानासाहब पेशवा के साथ बिठूर आ गए। यहां 1857 के संग्राम के समय नानासाहब ने उन्हें अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया था। जब अंग्रेज सेना से नानासाहब पेशवा की हार निश्चित हो गई तो वो उनके साथ नेपाल नहीं गए, बल्कि अपनी देश भक्ति का परिचय देते हुए अंत तक संघर्ष करते रहे। इस संघर्ष में कई बार उन्होंने अंग्रेजों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया।

यदि तात्या टोपे के साथ विश्वासघात न हुआ होता, तो शायद अंग्रेज उन्हें कभी नहीं पकड़ पाते। अंग्रेजों ने उन्हें सोते समय पकड़ा और अप्रैल 1859 को फांसी पर चढ़ा दिया। 1857 से लेकर 1859 तक तात्या शांत नहीं बैठे थे। वे कभी रानी लक्ष्मीबाई का सहयोग करने आ गए, तो कभी उन्होंने ग्वालियर से तत्कालीन राजा से सहायता ले सेना तैयार की और फिर रणभूमि में उतर गए। तात्या टोपे से जब अंग्रेजों ने उनकी अंतिम इच्छा बताने को कहा, तो तात्या ने अपने परिवार को परेशान न करने के लिए कहा, लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा नहीं किया। अंग्रेजों के द्वारा उनके कई परिजनों को गिरफ्तार कर लिया गया। तात्या टोपे के बारे में अंग्रेज कर्नल मालेसन ने लिखा है कि तात्या टोपे पूरे भारत के हीरो बन गए हैं। अंग्रेज लेखक पारसी के अनुसार यदि तात्या टोपे जैसे कुछ और लोग होते तो उसी समय अंग्रेजों के हाथ से भारत निकल जाता। कुछ और विदेशी इतिहासकारों ने उन्हें समकालीन इटली के प्रसिद्ध योद्धा गैरीवाल्डी की तरह बताया है।

फोटो साभार : नवभारत टाइम्स

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