– सारांश कनौजिया
भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है. इस बात पर हम सभी को गर्व है. लेकिन ये संविधान बना कैसे? इसमें कौन से नियम रखने चाहिए और कौन से नहीं इसका निर्णय कैसे लिया गया? इन बातों की जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है. तभी हम यह समझ पाएंगे कि इस संविधान में क्या-क्या ऐसा है, जिसे बदलने की आवश्यकता है, लेकिन उस ओर हमारा ध्यान नहीं जा रहा. कुछ लोग यह कह सकते हैं कि संविधान से छेड़-छाड़ संविधान निर्माताओं का अपमान है. तो मैं उन्हें यह ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि संविधान निर्माताओं ने ही इसमें परिवर्तन संभव है, ऐसा प्रावधान किया था. स्वतंत्र भारत की पहली चुनी हुई सरकार ने 1952 में शपथ लिया था. लेकिन पहला संविधान संशोधन 1951 में ही हो चुका था. इसलिए इसमें संशोधन की बात करना गलत नहीं है. जहां तक बात संविधान की आत्मा के बारे में है, तो मैं इसी के कुछ उदहारण आपके सामने रखना चाहता हूँ.
स्वतंत्र भारत का संविधान हमें 26 जनवरी 1950 को मिला. तो क्या इससे पहले हम बिना किसी नियमों के चलते थे. संविधान का अध्ययन करने वाले जानते होंगे कि इसके अधिकांश प्रावधान स्वतंत्रतापूर्व अंग्रेजों द्वारा बनाए गए नियम हैं. कुछ नियमों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया गया, तो कुछ को वैसे ही ले लिया गया. संविधान के अनुच्छेदों को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि अंग्रेजों के भारत में आने के बाद ही हमने नियम बनाने शुरू किये. किन्तु पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार भी भारत का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह कालखंड करोड़ों वर्षों का है. उस समय क्या कोई नियम नहीं थे. फिर शासन व्यवस्था कैसे चलती थी? कुछ लोगों का उत्तर होगा कि उस समय राजा जो कह देता था, वही नियम होता था, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं. यह बात अर्द्धसत्य है. भारत के लोकतंत्र और राजतंत्र में अंतर की बात करें, तो लोकतंत्र में जनता अपने राजा को चुनती है और राजतंत्र में राजा अपने उत्तराधिकरी को चुनता है. भारत के प्रधानमंत्री को अधिकांश मामलों में संसद की मंजूरी लेनी होती है, जबकि भारतीय राजतंत्र में दरबार सिर्फ सलाह देता था, अंतिम निर्णय राजा का ही होता था. इसी कारण कुछ लोगों ने राजतंत्र की परिभाषा अपने अनुसार कर ली.
भारतीय राजतंत्र में यदि कोई राजा दरबार या मंत्रियों की सलाह को न मानते हुए अपने प्रत्येक निर्णय उन पर थोपने का प्रयास करता था, तो उसे अच्छा राजा नहीं माना जाता था. इसलिए अधिकांश राजा अपने मंत्रियों और दरबारियों को सहमत करने के बाद ही अंतिम निर्णय लेते थे. यदि कोई राजा कभी किसी कारण बहुमत से अलग निर्णय लेता भी था, तो उसका कारण सभी को समझाने का प्रायस करता था. यह अलग बात है कि उस समय विपक्ष जैसा कुछ नहीं होता था. राजा का निर्णय ही अंतिम और सर्वमान्य होता था. उस निर्णय को राजा ही बदल सकता था, उसके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं. इस तरह देखा जाए तो यह भी एक अर्ध-लोकतांत्रिक व्यवस्था थी. जहां नियम बनाने का अधिकार और नियमों के अनुसार निर्णय करने का अधिकार दोनों एक ही स्थान पर थे. यहां राजा की जगह स्थान शब्द इसलिए प्रयोग किया है, क्योंकि अधिकांश निर्णय दरबार की सहमति से होते थे, न कि अकेले राजा की इच्छा से.
अब इस प्रश्न का भी उत्तर जानना आवश्यक है कि क्या राजा एक ही जैसे मामलों पर अलग-अलग व्यवस्था (निर्णय) देने के लिए निरंकुश था. इसका उत्तर है, नहीं. राजा का निर्णय तीन प्रकार की व्यवस्थाओं पर निर्भर करता था. पहली व्यवस्था – इस संबंध में धार्मिक ग्रन्थ और तत्कालीन प्रचलित मान्यताएं क्या कहती हैं? दूसरी व्यवस्था – उनके पूर्वजों के इस बारे में क्या विचार थे? तीसरी व्यवस्था – क्या वर्तमान परिस्थिति पूर्व में आये मामलों से अलग है? दरबार में आये किसी मामले के संबंध में पहले इन पर विचार किया जाता था. उसके बाद दरबार के लोगों के विचार व साक्ष्य आदि का भी संज्ञान लिया जाता था. इतना सब होने के बाद ही राजा किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचता था. कभी-कभी जटिल विषयों पर तुरंत निर्णय न लेने के स्थान पर मामले को अगली सुनवाई के लिए भी टाला जाता था. उसके बाद संबंधित विशेषज्ञों से विचार कर दरबार में राजा अपना निर्णय सुनाते थे. न्याय प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही तय होता था कि व्यक्ति दोषी है अथवा निर्दोष. निर्णय आने तक यदि आवश्यक होता था, तो पीड़ित को सुरक्षा और आरोपी को जेल भी मिलती थी.
यह तो बात हो गई उन विषयों की जो दरबार में आते थे. दैनिक कार्य कैसे चलते थे? क्योंकि हर कार्य के समय राजा प्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक स्थान पर उपलब्ध नहीं रह सकता. प्रत्येक कार्य के लिए कुछ नियम तय किये जाते थे. यदि इन नियमों में कोई संशोधन की आवश्यकता होती थी, तो इन पर दरबार में चर्चा होने के बाद उसमें संशोधन किये जाते थे. जो भी निर्णय होते थे, उनको सम्बंधित व्यक्तियों तक लिखित अथवा मौखिक रूप से पहुंचाया जाता था, जिससे उसका अनुपालन सुनिश्चित किया जा सके. यदि नियम दीर्घकाल के लिए या व्यापक प्रभाव वाले होते थे, तो उसे भविष्य के लिए लिखित रूप में संरक्षित भी किया जाता था. इस पर राजा की मुहर लगती थी, जो उनकी सहमति का प्रमाण होती थी. सामान्यतः यह कार्य राजा के प्रमुख सलाहकार या महामंत्री का होता था. जो राजा सिर्फ मौखिक आदेश ही करता था या कभी भी कुछ भी निर्णय ले लेता था, उसे अच्छा राजा नहीं माना जाता था.
भारत के संविधान को बनाते समय राजतंत्र की इस व्यवस्था को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया. मैं यह नहीं कहता कि इस व्यवस्था को उसी रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए था. किन्तु जैसे तत्कालीन अन्य देशों के संविधान पर विचार करने के बाद अंग्रेजों के बनाए कानून में संशोधन किये गए या नए नियम बनाए गए. इसके स्थान पर राजतंत्र में किन नियमों का पालन होता था, उसे आधार बनाकर उसमें संशोधन या नए नियमों को जोड़ा जाता तो अधिक उपयुक्त होता. क्योंकि भारतीय राजतंत्र के सभी नियम हमारे भारत की संस्कृति और सभ्यता को ध्यान में रखकर बनाए गए थे, जबकि अंग्रेजों ने जो कानून भारत के लिए बनाए थे, वो उनकी सुविधा के लिए थे. वो कानून भारत के संसाधनों के दोहन के लिए बनाई गयी व्यवस्था थे.
क्रमशः
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