ऐसा माना जाता है कि 1857 में भारतीय स्वतंत्रता के लिए पहला संग्राम हुआ था। लगभग पूरे देश में एक साथ इतना बड़ा विद्रोह संभवतः पहली बार हुआ हो लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है। अंग्रेजों ने इस ऐतिहासिक घटना से लगभग 100 वर्ष पूर्व 1757 में प्लासी का युद्ध जीता था। जिस कारण हम सभी यह मानते हैं कि अंग्रेजों ने भारत पर लगभग 200 वर्षों तक शासन किया। किन्तु कई बार हम यह भूल जाते हैं कि अंग्रेज एक साथ कभी भी पूरे भारत पर शासन नहीं कर पाए। इसके पीछे का प्रमुख कारण यह है कि हमारे वीर पूर्वज अपने शस्त्रों से हमेशा ही अंग्रेजों के सपनों पर प्रहार करते रहे। बाद के कालखंड में क्रांतिकारियों के प्रहार से अंग्रेजों के लिए अपनी सत्ता को बचाए रखना मुश्किल बनता चला गया। कांग्रेस ने कभी अंग्रेजों को इतना परेशान नहीं किया कि उन्हें भारत को छोड़ कर जाना पड़े, लेकिन स्वतंत्रता के लिए हो रहे सशस्त्र प्रयासों से अंग्रेज हमेशा डरे-सहमे रहे और बाद में इसी डर ने उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।
वैसे तो मैंने इस पुस्तक को लिखने के लिए प्रारंभिक वर्ष 1857 रखा है, किन्तु ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों के भारत आगमन के बाद देश को स्वतंत्र कराने के लिए यह पहला बड़ा प्रयास था। यह अवश्य है कि इससे पहले हुए सशस्त्र प्रयासों के बारे में लिखा कम गया है। इसलिए भारत मां के उन वीर सपूतों को श्रद्धांजलि देने के लिए मैं इनमें से कुछ आंदोलनों की चर्चा अवश्य करना चाहता हूं। क्योंकि इन आंदोलनों ने ही बाद में हमें संघर्ष की प्रेरणा दी है। झारखण्ड के आदिवासियों ने 1769 में अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए रघुनाथ महतो के नेतृत्व में संघर्ष प्रारंभ किया। यह आंदोलन 1805 तक चला। इस आंदोलन का असर बंगाल सहित आस-पास के क्षेत्रों में भी देखने को मिला। अंग्रेज भक्तों ने इन आदिवासियों को लुटेरा बताया और इन्हें चुआड़ या चुहाड़ नाम दिया। लगभग इसी क्षेत्र में 1770 में सन्यासियों ने भी संघर्ष प्रारंभ किया था। अंग्रेजों से लोहा लेने का यह प्रयास 1820 तक चला।
ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों को सिर्फ इसी क्षेत्र से चुनौती मिल रही थी। भारत के अन्य क्षेत्र जहां तक अंग्रेज पहुंच सके थे, वहां भी अंग्रेजों को विरोध का सामना करना पड़ रहा था। ओडिशा में पाइक जाति के लोगों ने बक्शी जगबंधु विद्याधर के नेतृत्व में 1817 में सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत कर दी। जगबंधु को अंग्रेजों ने 1825 में फांसी दे दी थी। इसके पहले 1805 में जब अंग्रेजों ने ओडिशा पर आक्रमण किया था, तब वहां के राजा मुकुंद देव द्वितीय अवयस्क थे। उनके संरक्षक जय राजगुरु ने अपने राज्य को स्वतंत्र बनाए रखने के लिए संघर्ष किया था। अंग्रेजों को उन्हें हराने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। इसी प्रकार 1855 में हुए संथाल या पहाड़ी संघर्ष सहित स्वतंत्रता के लिए हुए कई सशस्त्र प्रयासों का इतिहास के कुछ पन्नों में विवरण आज भी खोजने पर मिल जाता है।
उपरोक्त सभी प्रयासों का अंग्रेज दमन करते हुए आगे बढ़ रहे थे। अभी तक दो बाते विशेष थीं। पहली अंग्रेजों से जितने भी संघर्ष हुए थे, वो एक क्षेत्र विशेष तक सीमित थे। कोई भी संयुक्त प्रयास नहीं था। दूसरा इनका दमन करने के लिए वो जिस सेना का प्रयोग कर रहे थे, उसमें सैनिक के रूप में अधिकांश भारतीय ही थे।
फोटो साभार : विकीपीडिया
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