रानी लक्ष्मीबाई और उनकी सहयोगी झलकारी बाई के आलावा भी 1857 के संघर्ष में शामिल महिलाओं की लम्बी सूची है। इनमें से कुछ की जानकारी उपलब्ध है, लेकिन इनकी वीरता को देखते हुए ऐसा लगता है कि उस समय हमारी वीरांगनाओं ने पुरुषों के बराबर संघर्ष किया होगा। अतः यह संख्या बहुत अधिक रही होगी। इनमें रानी द्रौपदी, महारानी तपस्विनी, चौहान रानी, रानी अवंतिका बाई, रानी हिन्डोरिया के अलावा आशादेवी गूजर, ऊदा देवी, भगवती देवी, इंद्र कौर, मन कौर, राज कौर, शोभना देवी आदि हैं। सभी के बारे में अधिक जानकारी तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन फिर भी हमने इनमें से कुछ नामों को सामने रखने का प्रयास किया है और कुछ के बारे में जानकारी देने की एक छोटी सी कोशिश कर रहे हैं।
आशा देवी
मुजफ्फरनगर में सन 1829 को जन्मी आशादेवी ने आस-पास के गुर्जरों के 84 गांवों से लोगों को एकत्रित कर 1857 की क्रांति से जोड़ा। आशा देवी की इस फौज में बड़ी संख्या में महिला वीरांगनाएं शामिल थीं। इसका एक उदाहरण तब मिलता है, जब अंग्रेज सेना आशादेवी को जिंदा पकड़ने की कोशिश करती है। उस समय अंग्रेज सेना 250 महिला सैनिकों का नरसंहार करने के बाद आशा देवी तक पहुंच सकी थी। इसके बाद भी आशा देवी को पकड़ने के लिए 11 अन्य महिलाओं को गिरफ्तार करना पड़ा और उन्हें भी फांसी दे दी गई।
रानी द्रौपदी
भारत का एक छोटा सा राज्य धार था। 22 मई 1857 को धार के राजा का देहांत हो गया था। ऐसे में राजा की बड़ी रानी द्रौपदीबाई ने सत्ता संभाल ली। इसका कारण यह था कि राज्य का उत्तराधिकारी आनंदराव बालासाहब नाबालिग था। अंग्रेजों ने अपने ही बनाए नियमों को दरकिनार करते हुए नाबालिग उत्तराधिकारी को मान्यता दे दी। चारों तरफ क्रांति की लहर थी, अंग्रेजों का विचार था कि यदि हम नाबालिग उत्तराधिकारी को मान्यता दे देंगे, तो द्रौपदीबाई, लक्ष्मीबाई की तरह विद्रोह नहीं करेंगी। इसके विपरीत जैसे ही रानी द्रौपदीबाई ने सत्ता संभाली, वैसे ही उन्होंने रामचंद्र बापूजी को अपना दीवान नियुक्त कर दिया। इसके बाद रामचंद्र बापूजी, रानी द्रौपदीबाई और उनके भाई भीमराव भोंसले तीनों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। 22 अक्टूबर 1857 को अंग्रेज अधिकारी कर्नल डूरेंड ने धार का किला घेर लिया, दोनों सेनाओं के बीच युद्ध 30 अक्टूबर तक चला। इसके बाद किले की दीवार में दरार पड़ गई, जिसके कारण रानी द्रौपदी को अपने विश्वासपात्र सैनिकों को साथ लेकर वहां से निकलना पड़ा। अंग्रेज कर्नल ने किला ही ध्वस्त करवा दिया, लेकिन तब भी वो द्रौपदी को नहीं पकड़ पाया।
रानी अवंतीबाई
रामगढ़ राज्य के राजा विक्रमजीत सिंह ने अपने पिता लक्ष्मण सिंह की मृत्यु के बाद सत्ता प्राप्त की, लेकिन प्रारंभ से ही उनकी रूचि सत्ता चलाने में नहीं थी। उन्होंने अपनी पूरी जिम्मेदारी रानी अवंतीबाई को दे दी। रानी अवंतीबाई जमींदार राव जुझार सिंह की पुत्री थीं। उनका विवाह बाल्यावस्था में ही विक्रमजीत सिंह से हो गया था। उन्होंने दो पुत्रों अमान सिंह और शेर सिंह को जन्म दिया। अंग्रेजों ने रामगढ़ की सत्ता पर कब्जा करने के लिए एक दिखावटी पालक न्यायालय (कोर्ट ऑफ वार्ड्स) की कार्रवाई आयोजित की। इस न्यायालय ने राजा विक्रमजीत सिंह को विक्षिप्त घोषित कर दिया। उनके पुत्र अमान सिंह और शेर सिंह नाबालिग थे। इसको कारण बनाकर रामगढ़ की सत्ता हथियाने के लिए दो सरबराहकार (प्रशासक) शेख मोहम्मद और मोहम्मद अब्दुल्ला को नियुक्त कर दिया। रानी ने इन दोनों प्रशासकों को अपने राज्य से बाहर निकाल दिया।
रानी अवंतीबाई जानती थीं कि अंग्रेजों का मुकाबला करना किसी एक राज्य के लिए संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने आस-पास के प्रभावी राजाओं और जमींदारों सहित अन्य को एकत्रित करना शुरू कर दिया। एक क्षेत्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता शंकरशाह ने की। यह सम्मेलन इतनी गोपनियता के साथ किया गया था कि इसकी जानकारी जबलपुर के कमिश्नर मेजर इस्काइन और मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन को नहीं लग सकी। अंग्रेजों के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए अनोखी रणनीति बनाई गयी, जिसकी जिम्मेदारी रानी के पास थी। प्रसाद के रूप में एक पुड़िया बनाकर वितरित की गई। इस पुड़िया में दो काली चूड़ियां और एक पत्र था। इस पत्र में लिखा था कि या तो अंग्रेज सरकार का विरोध करने के लिए तैयार हो जाओ या फिर चूड़ियाँ पहन लो और घर पर बैठ जाओ। इस पुड़िया को लेने का अर्थ समर्थन देना माना गया।
रानी ईश्वरी कुमारी
गोरखपुर के निकट एक बहुत ही छोटा सा साम्राज्य था तुलसीपुर। क्षेत्रफल और जनसंख्या के अनुसार भले ही इसका महत्व उतना न हो, लेकिन वीरता इतनी कि अंग्रेज भी टकराने से बचते थे। इस साम्राज्य के शासक दृगनाथ सिंह अंग्रेजों से लगातार लोहा ले रहे थे, उनका विरोध कर उनकी सत्ता के लिए चुनौती बने हुए थे। वो उन राजाओं से भी सम्बन्ध नहीं रखते थे, जिनकी मित्रता अंग्रेजों से होती थी। इस कारण कई भारतीय राजाओं को भी उनसे परेशानी थी। अंग्रेजों ने 1857 से पहले ही किसी तरह से उन्हें गिरफ्तार करने में सफलता प्राप्त कर ली। किन्तु फिर भी साम्राज्य बिना राजा के नहीं हुआ। उनकी पत्नी रानी ईश्वरी कुमारी ने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली। अंग्रेजों ने बहुत प्रयास किया कि वो रानी को किसी प्रकार मानसिक आघात पहुंचाकर, डराकर या लालच देकर झुकने के लिए मजबूर कर दें। लेकिन राजा दृगनाथ और रानी ईश्वरी कुमारी दोनों में से किसी ने हार नहीं मानी। अंग्रेजों की प्रताड़नाओं के कारण राजा का बलिदान हो गया, लेकिन रानी ईश्वरी कुमारी ने तब भी अपनी प्रजा को अंग्रेजों के हवाले नहीं किया।
छोटा सा साम्राज्य और सिमित संसाधनों के बाद भी वो अंग्रेजों से मुकाबला करती रहीं। अंग्रेजों ने कई बार उन पर आक्रमण किये लेकिन वो कभी रानी ईश्वरी कुमारी को गिरफ्तार नहीं कर पाए। अंग्रेज कमिश्नर मेजर बैरव के अनुसार छः अंग्रेजी फरमानों के बाद भी जब रानी ईश्वरी कुमारी ने अंग्रेज सत्ता स्वीकार नहीं की, तो अंग्रेजों ने उनका साम्राज्य बलरामपुर राज्य के साथ मिला दिया और उन्हें निर्वासन के लिए मजबूर कर दिया। अंग्रेजों ने एक बार फिर रानी ईश्वरी कुमारी को प्रस्ताव भेजा कि वो गुलामी स्वीकार कर लें, तो उनका साम्राज्य उन्हें वापस कर दिया जाएगा, लेकिन रानी ने इसे भी अस्वीकार कर दिया। अंग्रेज क्यों चाहते थे कि ईश्वरी कुमारी उनकी गुलामी स्वीकार कर लें, इसको समझने के लिए उनके और अंग्रेजों के बीच हुए एक संघर्ष को उदहारण के रूप में लिया जा सकता है। बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों के द्वारा उन्हें उनकी रियासत से बेदखल कर देने के बाद निर्वासन का जीवन चुना था। किन्तु अंग्रेज इससे भी संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि यदि बेगम जीवित रहीं, तो वो उनके लिए सिरदर्द बनी रहेंगी।
जब बेगम ने रानी ईश्वरी कुमारी के साम्राज्य के अचवागढ़ी नामक स्थान पर शरण ली, तो अंग्रेज उनका पीछा करते हुए वहां भी पहुंच गये। अंग्रेज अधिकारी जनरल होपग्रांट और ब्रिगेडियर रोक्राफ्ट ने रानी ईश्वरी कुमारी को प्रस्ताव दिया कि वो बेगम को उन्हें सौप दे, तो रानी को अंग्रेज कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। रानी ने खुली घोषणा कर दी, ‘जब तक बेगम हजरत महल यहां से सुरक्षित निकल नहीं जाती, अंग्रेज आगे नहीं बढ़ पायेंगे’। हुआ भी ऐसा ही, सिर्फ कुछ मुट्ठी भर सैनिकों की सहायता से रानी ईश्वरी कुमारी ने अंग्रेजों को तब तक रोके रखा, जब तक की बेगम अपने विश्वासपात्रों के साथ वहां से सुरक्षित नहीं निकल गईं। रानी को पता था कि वो अंग्रेजों को रोक सकती हैं, लेकिन हरा नहीं सकती। इसलिए जैसे ही उनको बेगम के निकलने की जानकारी मिली, उन्होंने भी वहां से निकलना ही ठीक समझा। रानी ईश्वरी कुमारी का निर्वासन के बाद अंतिम समय नेपाल में बीता। उनकी मृत्यु भले ही गुमनामी में हुई हो, लेकिन उनकी वीरता के कारण वो तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियो को भी बहुत याद आती थीं। यह बातें उस समय के अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे गए दस्तावेजों से सिद्ध होती है।
चौहान रानी
अनूपनगर साम्राज्य के राजा प्रताप चंडी सिंह और चौहान रानी की कोई संतान नहीं थी। अंग्रेजों के नए नियम के अनुसार जिन भारतीय शासकों के कोई संतान नहीं थी, उन्हें गुलामी स्वीकार करनी होती थी। जैसे ही राजा की मृत्यु हुई, चौहान रानी ने साम्राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली। किन्तु अंग्रेजों ने इस राज्य को गुलाम बनाने का फरमान निकाल दिया था। अंग्रेजों को अनूपनगर का साम्राज्य तो मिल गया, लेकिन चौहान रानी नहीं मिलीं। वो तो अपने साम्राज्य को फिर से स्वतंत्र कराने का स्वप्न लिए निकल चुकी थीं। चौहान रानी अवसर की तलाश में थीं। उन्हें यह अवसर 1857 की क्रांति के समय मिला।
अंग्रेज कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रहे थे। इस कारण उनके लिए एक जगह सारी शक्ति लगा पाना संभव नहीं था। इसका लाभ उठाकर चौहान रानी ने अपने विश्वासपात्र लोगों की सहायता से सेना का गठन किया और अनूपनगर को स्वतंत्र कराने के लिए धावा बोल दिया। अंग्रेज सेना के सभी सैनिकों को चौहान रानी ने मौत के घाट उतार दिया और अनूपनगर फिर स्वतंत्र हो गया। रानी का अनूपनगर के खजाने और वहां रखे अंग्रेजों से शस्त्रों पर भी अधिकार हो गया। जब तक अंग्रेजों को 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष को दबाने में सफलता नहीं मिली, अनूपनगर स्वतंत्र साम्राज्य बना रहा। यह स्वतंत्रता लगभग 15 महीने तक रही। अंग्रेज धीरे-धीरे अपने खोये हुए साम्राज्य को वापस लेने में सफलता प्राप्त कर रहे थे और 1858 के अंत तक लगभग सभी जगह उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को क्रूरतापूर्वक दबा दिया था। इसका असर अनूपनगर पर भी पड़ा। राज्य एक बार फिर अंग्रेजों के आधीन हो गया, लेकिन इस बार भी चौहान रानी को अंग्रेज पकड़ने में सफल नहीं हो सके। अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव के कारण चौहान रानी गुमनामी में चली गईं। कुछ स्थानों पर ऐसा उल्लेख मिलता है कि चौहान रानी को आजीवन स्वतंत्रता से प्रेम था, इसलिए वो जंगल में चली गईं और वहीं उन्होंने स्वयं को समाप्त कर लिया, जिससे अंग्रेजों को उनका शरीर भी न मिले।
ऊदा देवी
भारतीय वीरांगनाओं ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल पुरुषों के साथ हर मोर्चे पर कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। यदि सिर्फ इनके शौर्य के बारे में बात की जाए तो किसी भी दृष्टि से इन्हें पुरुषों से कम नहीं कहा जा सकता है। ऐसी ही एक वीरांगना थीं ऊदा देवी। लखनऊ के सिकंदर बाग को लगभग 2000 भारतीय सैनिकों ने अपनी शरणस्थली बनाया हुआ था। 16 नवंबर 1857 को जब अंग्रेजों ने इस स्थान पर हमला बोला, तो पुरुष वेश में एक स्त्री ने पेड़ पर चढ़ कर अंग्रेजों को तब तक रोके रखा जब तक की उनकी मृत्यु नहीं हो गई। यह वीरांगना थीं ऊदा देवी। अंग्रेज अधिकारी सार्जेंट फ़ोर्ब्स मिशेल ने रेमिनिसेंसेज ऑफ द ग्रेट म्यूटिनी में लिखा है कि सिकंदर बाग में पीपल के पेड़ पर बैठे एक व्यक्ति ने अंग्रेजों के कई सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। जब उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को देखा गया, तब पता चला की वो एक स्त्री हैं। उनके पास पुराने पैटर्न की भारी कैवलरी पिस्तौल थी, गोलियों से भरी एक पिस्तौल उनके अंतिम समय तक उनकी बेल्ट से बंधी हुई थी।
ऊदा देवी के पास उपलब्ध थैली में अभी भी आधा गोला-बारूद था। संभव है कि ऐसी अन्य वीरांगनाएं भी वहां हो, ऊदा देवी सबसे आगे अंग्रेजों को रोकने का प्रयास कर रही थीं, इसलिए उनके बारे में तो फिर भी उल्लेख मिलता है, लेकिन अन्य एक भी नाम उपलब्ध नहीं हैं। ऊदा देवी की वीरता के बारे में उस समय लंदन टाइम्स के तत्कालीन संवाददाता विलियम हावर्ड रसेल ने लिखा था कि एक पुरुष वेश वाली स्त्री ने पीपल के पेड़ से अंग्रेजों पर फायरिंग कर अंग्रेजी सेना को भारी नुकसान पहुंचाया है। ऊदा देवी के पति मक्का पासी भी एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनकी मृत्यु अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए हुई थी। इसके बाद ऊदा देवी का यह अद्भुद शौर्य उनके पति के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में भी देखा जाता है। सिकंदर बाग में भारतीय सैनिकों से मुकाबला करने के लिए अंग्रेज अधिकारी काल्विन कैम्बेल के नेतृत्व में कानपुर से सेना भेजी गई थी। काल्विन ऊदा देवी की इस वीरता से इतना अधिक प्रभावित हुआ था कि उसने ऊदा देवी की मृत्यु के बाद उन्हें अपनी हैट (टोपी) उतारकर श्रद्धांजलि दी थी।
फोटो साभार : दैनिक जागरण
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